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इस जूनियर अधिकारी की वजह से गई त्रिवेन्द्र सिंह रावत की कुर्सी

देहरादून। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत को आखिरकार कुर्सी छोड़नी ही पड़ी। वैसे भी हाईकमान के फरमान के आगे किसी का वश तो चलता नहीं है? सो, त्रिवेन्द्र को भी जाना पड़ा। अब जो सबसे बड़ा सवाल है कि आखिर इनकी कुर्सी क्यों गई। इसके जवाब भी अलग-अलग ढंग से तलाशे जा रहे हैं। लेकिन आज आपको पूरी और पक्की खबर के हवाले से यह बता दूंगा कि त्रिवेन्द्र को कुर्सी क्यों छोड़नी पड़ी। उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार अतुल बरतरिया द्वारा संचालित लोकप्रिय पोर्टल न्यूज वेट में पोस्ट एक खबर के हवाले से बताऊंगा किस तरह त्रिवेन्द्र के अपने ही लोगों ने उनकी जड़ें खोद दी। साथ ही लोकप्रिय अखबार हिन्दुस्तान के देहरादून के स्थानीय संपादक गिरीश चंद्र गुरुरानी द्वारा लिखे एक आलेख के हवाले से पूरा सियासी किस्सा-कहानी बताऊंगा। गिरीश का यह आलेख हिन्दुस्तान में छपा है। चलिए अब समझिए त्रिवेन्द्र के सत्ता से रूखसत होने के गेम को। सबसे पहले मैं उत्तराखंड के जाने-माने पत्रकार अतुल बरतरिया द्वारा संचालित पोर्टल न्यूज वेट में प्रकाशित न्यूज की चर्चा करता हूं। न्यूज वेट में अतुल बरतरिया ने लिखा है कि त्रिवेन्द्र की कुर्सी खिसकने के पीछे उनकी किचन कैबिनेट ही जिम्मेदार है। इस कैबिनेट ने सीएम नहीं अपनी छवि निखारने की दिशा में काम किया। इसके चंगुल में फंसे त्रिवेन्द्र भी आम लोगों से कट गए थे। हालात ये बन गए थे कि एक जूनियर अफसर खुद को आईएएस अफसरों से भी ऊपर समझने लगा था। इस अफसर के विभाग में दो सौ करोड़ के घोटाले का जिक्र कैग ने अपनी रिपोर्ट में भी किया है। न्यूज वेट में अतुल बरतरिया बताते हैं कि इसमें कोई दो राय नहीं कि त्रिवेन्द्र खुद में गलत नहीं थे। लेकिन उन्होंने जो किचन कैबिनेट बनाई, उसमें शामिल लोगों ने ही उन्हें गर्त में धकेल दिया। त्रिवेन्द्र या तो इन लोगों को समझ नहीं पाए अथवा उन्होंने इन लोगों पर अंधविश्वास किया। नतीजा यह रहा कि विधायक ही नहीं, आम कार्यकर्ताओं से भी उनकी दूरी बढ़ती गई और इस किचन कैबिनेट के लोग त्रिवेन्द्र को हसीन सपने दिखाकर मौज करते रहे। यूं कहें कि 4 साल के इस कार्यकाल में चंद अफसर मौज करते रहे और मनमाने ढ़ंग से सीएम से आदेश करवाते रहे। धीरे-धीरे हालात बिगड़ते गए और त्रिवेन्द्र को कुर्सी छोड़ने तक की नौबत आ गई। अब चर्चा करते हैं उस आलेख की, जिसे हिन्दुस्तान, देहरादून के स्थानीय संपादक गिरीश चंद्र् गुरुरानी ने लिखा है। गिरीश ने लिखा कि त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार चार साल पूरे करने का जश्न मनाने की तैयारियां कर रही थी। भारी बहुमत वाली सरकार पर किसी तरह के संकट का आभास न था। यहां तक कि मुख्यमंत्री और उनकी सरकार को भी इस सियासी तूफान का अंदाजा नहीं था। त्रिवेंद्र सिंह रावत को आखिरकार चार साल पूरा करने का जश्न मनाने का मौका भी नहीं मिल सका और उन्हें मुख्यमंत्री पद खोना पड़ा। उत्तराखंड के लिए हालांकि, यह नया अनुभव नहीं है। 21 साल में इस राज्य ने 10 मुख्यमंत्री देख लिए हैं। भाजपा को करीब 11 साल राज्य में सरकार चलाने का मौका मिला। इस अवधि में पार्टी ने राज्य में पांच मुख्यमंत्रियों का प्रयोग कर डाला। भाजपा का एक भी मुख्यमंत्री अब तक पांच साल स्थिर सरकार नहीं दे पाया। इसके पीछे गुटीय राजनीति और असंतोष प्रमुख कारण रहे। भाजपा के मुख्यमंत्रियों में त्रिवेंद्र सिंह रावत को सबसे अधिक करीब चार साल सत्ता में रहने का मौका मिला। फिर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के जमाने की भाजपा में आम धारणा यह बनी है कि यहां मुख्यमंत्री बनाए जाते हैं, बदले नहीं जाते। त्रिवेंद्र सिंह रावत को पार्टी हाईकमान में अच्छी पकड़ वाला नेता भी माना जाता रहा है। अब सवाल यह है कि ऐसी सुविधाजनक स्थिति में मुख्यमंत्री को कुरसी गंवानी क्यों पड़ी? दरअसल, तीन साल पूरा करते-करते कई विधायक सरकार से शिकायत करने लगे थे। सबसे पहले नौकरशाही को लेकर विधायकों की नाराजगी सामने आई। कुछ जिलाधिकारियों और सचिवालय के नौकरशाहों के रवैये पर पहले विधायकों और फिर मंत्रियों ने सवाल उठाए। धीरे-धीरे बात बिगड़ती चली गई और त्रिवेन्द्र को अपनी कुर्सी खोनी पड़ी। अब देखना यह है कि आगे क्या होता है?
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