महामारी कोविड-19 से पूरी दुनिया लड़ाई लड़ रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12 मई को अपने संबोधन में साफ संकेत दिया कि लॉकडाउन जारी रहेगा, लेकिन कुछ ज्यादा छूट मिल सकती है। इसके लिए उन्होंने नए ‘रंग-रूप’ शब्द का इस्तेमाल किया। इस दौरान उन्होंने कहा कि भारत के लोगों को ‘आत्मनिर्भर’ बनना होगा। अब सवाल यह उठता है कि क्या प्रधानमंत्री के वक्तव्य दे देने भर से देश ‘आत्मनिर्भर’ बन जाएगा? शायद नहीं। देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए तमाम तरह के संसाधनों की जरूरत है, जो यहां नहीं हैं। इस तरह के सकारात्मक बनाने में वर्षों लगते हैं। रातोंरात यह तैयार नहीं होता। केवल सोच लेने भर से कोई ‘आत्मनिर्भर’ नहीं बन जाता। यूं कहें कि प्रधानमंत्री की बातें काफी अव्यावहारिक भी होती जा रही है, क्योंकि उन्होंने कोविड को हराने के लिए सबसे पहले 24 मार्च की शाम आठ बजे लोगों से 21 दिन मांगे थे। उन्होंने यह भी कहा था कि महाराभारत 18 दिन में समाप्त हुआ और हम इस लड़ाई को 21 दिन में जीतेंगे। लेकिन, पीएम का ‘गोल पोस्ट’ लगातार बदलता रहा।
खैर, अब यह भी आकलन करने की कोशिश की जा रही है कि कोरोना के बाद भारत की तस्वीर कैसी होगी? लोगों द्वारा मुँह पर मास्क लगाने के सिवा सार्वजनिक रूप से कुछ नया दिखने की आशा नहीं है। बड़े लोग वैसे ही अपने सेवक, चौकीदार तक से दूरी रखते हैं। अब आपस में भी हाथ नहीं मिलाएंगे। पहले भी हाथ मिलाना एक छोटे वर्ग में सीमित था। सोशल डिस्टेंसिंग का हाल अभी ही शराब की दुकानों के सामने और मजदूरों के घर जाने की व्यवस्था में दिख गया है। इसलिए अधिकांश लोग भीड़-भाड़ में ही यात्रा करने को विवश रहेंगे। उन्हें मूर्ख कह कर पल्ला छुड़ाया जाएगा। भारत में लोग बहुत हैं, इसलिए भी उन का मोल नहीं है। वे मरते हैं, मरें। जलील होते हैं, हों। न्यूनतम सुविधाओं के बिना जीते हैं, जिएं। जिस सोवियत नकल वाला राज्य-तंत्र मतिहीन रूप से सुरसाकार बढ़ाया गया है, सब से पहले वही हाथ उठा देता है कि सब काम राज्य का नहीं है। लोगों को खुद भी करना चाहिए। लेकिन लोग कुछ भी करें, उस में सवाल पूछने, हिस्सा मांगने या बाधा डालने, उसी तंत्र के कारकून पहुंच जाते हैं। जान-माल की रक्षा जैसे मूलभूत विषय में यही हाल है। लोग पुलिस भरोसे सुरक्षित नहीं, यह सर्वविदित है। पर उन्हें अस्त्र-शस्त्र रखने की अनुमति नहीं। समर्थ लोग निजी रक्षक रखते हैं। सामान्य लोग भगवान भरोसे रहते हैं। आगे भी वैसे ही रहेंगे।
इस बीच देश के लोगों ने तमाम दुख और तकलीफें सही हैं। उन्होंने अनुशासन का पालन करते हुए सोशल डिस्टेंसिंग के मूलमंत्र को कोरोनावायरस के संक्रमण से बचने का उपाय मानकर जीवन जिया है। लेकिन अब उन्हें घुटने टेकने पड़ रहे हैं। ऐसा लगता है कि इसका एहसास सरकार को भी है। असल में शुरू में सब कुछ जहां का तहां रुक गया था और बाद में सरकारों की बंदइंतजामी, लापरवाही और संवेदनहीनताएं भी सामने आने लगीं, तो लॉकडाउन का लंबा सिलसिला कई तरह की अनिश्चितताओं का सबब बन गया। सबसे पहले धैर्य उन मजदूरों का टूटा जो किसी क्वारंटीन सेंटर, राहत शिविर या खुद के छोटे दड़बों में थे, लेकिन जब अनिश्चितता बढ़ी तो उन्होंने पैदल ही अपने घरों का रुख कर लिया। उसमें सैकड़ों भूख या दुर्घटनाओं में मारे गए और आने वाले दिनों में लाखों के जीवन में कई तरह के कष्ट बढ़ेंगे। दूसरी ओर, सरकार बड़ा पैकेज तैयार करने में मशगूल रही। मामला बिगड़ता देख राज्यों पर मजदूरों को उनके घर भेजने का दबाव बढ़ गया। उसी मजबूरी के चलते श्रमिक ट्रेनें चलाई गईं। इसमें एक पेच यह भी रहा कि कई राज्यों ने राजस्थान के कोटा के कोचिंग सेंटरों में पढ़ने वाले मध्य वर्ग के परिवारों के बच्चों को बसों में मंगवाया था, जिससे मजदूरों और गरीबों के प्रति असंवेदनशील चेहरा सामने आ गया। उसी को ढंकने के लिए मजदूरों को लाने की कवायद शुरू हुई। लेकिन उनसे किराया वसूलने का मामला भी उठा और केंद्र सरकार ने खुद को उनकी मदद से बाहर कर लिया। श्रमिक ट्रेनें चल रही हैं और मजदूर सड़क पर भी चल रहे हैं, सैकड़ों, हजारों किलोमीटर दूर अपने घरों के लिए। ऐसे में एक बार फिर हमारे देश की कमजोरी खुल गई और करोड़ों लोगों की बदहाल तसवीरों ने हमें अफ्रीकी देशों की श्रेणी में खड़ा कर दिया।
इस बीच संक्रमित लोगों और मौतों की संख्या बढ़ती गई। लोगों के जीवन को पटरी पर लाने के लिए बढ़ते दबाव के चलते कई तरह की गतिविधियों की छूट दी गई, लेकिन अभी भी कुछ राज्यों के बीच सीमाएं ऐसे सील हैं जैसे दो देशों के बीच होती हैं। अर्थव्यवस्था की बदहाली से बेरोजगार हो रहे लोगों के भयावह आंकड़े आ रहे हैं। यह सिलसिला असंगठित क्षेत्र और छोटी कंपनियों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि बड़े कॉरपोरेट भी छंटनी कर रहे हैं। उधर, केंद्र और राज्यों के बीच तालमेल के अभाव में भारी विवाद भी सामने आ रहे हैं, जो देश के संघीय ढांचे के लिए अच्छा संकेत नहीं है। इस सबके बीच एक बार फिर 12 मई को प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को संबोधित किया, जिसमें उन्होंने 20 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा की। इससे कैसे जिंदगी और अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटेगी, उसकी जानकारी की पहली किस्त 13 मई को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण लेकर आईं, जिसमें बहुत प्रभावी कदम नहीं दिखे। हालांकि यह सिलसिला अगले कई दिनों तक जारी रहेगा। चर्चित आर्थिक विश्लेषक हरवीर सिंह पूछते हैं कि संकट को अवसर में बदलने, देश को आत्मनिर्भर बनाने का प्रधानमंत्री का संकल्प आखिर कैसे पूरा होगा? प्रधानमंत्री ने इसके लिए पांच स्तंभों इकोनॉमी, इन्फ्रास्ट्रक्चर, सिस्टम, डेमोग्राफी, डिमांड और चार मंत्रों लैंड, लेबर, लिक्विडिटी, लॉ में सुधारों की बात की। इससे स्वदेशी का एजेंडा आगे बढ़ेगा। लेकिन कई सवाल अनुत्तरित हैं कि क्या हम इस संकट के बाद अपनी स्वास्थ्य सेवाओं को इतना मजबूत करेंगे कि देश के लोगों के जीवन को बचाने की स्थिति बेहतर हो जाए? क्या हम अपने जीवन की जरूरतों और रक्षा जरूरतों को भी देश में बनने वाले उत्पादों से पूरा कर सकेंगे?
बहरहाल, अब आगे का जीवन कैसे बीतेगा, इस पर मंथन शुरू हो गया है। वैसे भी योग, ध्यान और आयुर्वेद के क्षेत्र लगी संस्थाओं का काम बढ़ने की पूरी संभावना है। क्योंकि शारीरिक-मानसिक रोग-निरोधक क्षमता, इम्यूनिटी, बढ़ाने में ये अतुलनीय रूप से प्रभावी और लगभग मुफ्त हैं। कोई दूरदर्शी राजनीति इसे पूरे विश्व में फैलाने की सोच सकती थी। पर इसके लिए अवकाश और योग्यता, दोनों ही का अभाव लगता है। राज्यतंत्र का सोवियत चरित्र व आकार भी इस में बाधक है। जानकारी के बदले इलहाम और जानकारों के बदले गुटबंदी का महत्व भी इसे करने न देगा, या अधकचरेपन में डूब कर रह जाएगा। सो, भगवान-भरोसे और पर-उपदेश कुशलता की राजनीति यथावत रहेगी। जहां-तहां किसी विचारशील, कर्मठ अधिकारी के कारण कुछ भला होना अपवाद है। पर हमारा समाज प्राचीन सभ्यता है, वह अपनी गति चलता रहेगा। लोग पारंपरिक स्वभाव से उपाय करते कहेंगे। अतः सोवियत किस्म के विजातीय शासन के बावजूद अपनी बड़ी जनसंख्या, प्राकृतिक संसाधन, धर्म-ज्ञान, स्थानीय कौशल और देशी उपचारों के सहारे रहेंगे। नए उपाय इसी में एडजस्ट होंगे। हमारी पुरानी गति शायद ही बदले। खैर, देखते हैं कि क्या-क्या होता है?
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