संजय अभिज्ञान
आम चुनाव में जनता ने बीजेपी को जिता दिया है, अब पूर्ण बजट में बीजेपी को जनता को जिताना होगा। मोदी एंड पार्टी ने जनादेश जीत लिया है लेकिन देश का दिल जीतने का काम बाकी है। जीएसटी, नोटबंदी और बेरोजगारी के जख्मों पर मरहम लगाना होगा। उसे अर्थनीति का अधूरा एजेंडा पूरा करना होगा। खजानों के मुंह खोलने होंगे। कुछ ऐसे बड़े एलान करने होंगे कि अर्थव्यवस्था की दुहाई देने वाले वैसे ही खामोश हो जाएं जैसे आज मतगणना के बाद विपक्ष सुन्न हो गया है। सेंसेक्स और निफ्टी के सोडावाटरी उफान बहुत भरोसेमंद नहीं होते। इंडेक्स सुबह बढ़ते हैं, दोपहर को गिर जाते हैं। इसलिए चालीस हजारी देखते-देखते उनतालीस हजारी रह जाते हैं। सूचकांकों की हरारत की वजहें फौरी होती हैं। असली प्रतिक्रिया सूचकांकों के अगले तीन माह के ट्रेंड से उभरेगी। उसका दारोमदार अर्थनीति के नए नीति निर्णयों पर होगा। चुनावी महाकुंभ पुनः बीजेपी ने जीत लिया है। लेकिन लोकतंत्र की चक्की लगातार चलेगी। कुछ ही माह बाद दिल्ली के विधानसभा चुनावों का नंबर आएगा। फिर अगले साल बिहार और बंगाल का नंबर आना है। ये परीक्षाएं छोटी होंगी, लेकिन प्रतिष्ठा का सवाल वे भी बनेंगी। इसलिए मोदी सरकार की दूसरी पारी की पहली चुनौती आर्थिक मैनेजमेंट ही होगी। यह काम वोट अकेले मैनेजमेंट के अमित शाह सरीखे दिग्गजों के बूते नहीं छोड़ा जा सकता। अगले कुछ हफ़तों में ही पूर्ण बजट पेश होना है। तब तक सुपर विक्ट्री का नशा उतर चुका होगा। माल्यार्पण अभिनंदनों का दौर गुजर चुका होगा। कुछ ठोस कर दिखाने की असली चुनौती सामने होगी नई केंद्र सरकार के पहले बजट में वित्त मंत्रियों के हाथ बंधे नहीं होते। राजकोषीय घाटा तब इतना डरावना नहीं लगता। अगले चार बजटों में कमीबेशी दुरुस्त करने का बेफिक्री भी होती है। इसलिए सौगात लुटाने की हिम्मत पहले बजट में दिखा दी जाती है। कांग्रेस हार भले ही गई हो, लेकिन उसके बहत्तर हजार के नारे ने डरा दिया था। इसलिए किसानों के लिए कुछ ठोस करना नई सरकार का पहला काम होना चाहिए। किसानों के खातों में सम्मान निधि का कुछ हिस्सा पहुंच गया है लेकिन बात भूखों को उपहार में मछली देने से नहीं, मछली पकड़ना सिखाने से बनती है। सवाल यही है कि फसल का उचित दाम किसान को मिले और ग्रामीण अर्थतंत्र में खपत और मांग सुधरे - इसके लिए क्या हो। पिछली पांच छह तिमाहियों में जीडीपी ग्रोथ आंकड़ा उदास करता रहा है। दिसंबर में यह छह फीसदी पर सिमट गया था। बेरोजगारी की दर बढ़ रही थी और कारखाना उत्पादन की गिर रही थी। जीएसटी कर ढांचे की ऊपरी दरें पचास फीसदी के पास पहुंच कर इतनी मदमस्त हो चली थीं कि आटो सेक्टर का दम निकलने के कगार पर था। किसानों का असंतोष चरम पर था क्योंकि फसल कौड़ियों के भाव बिक रही थी या खलिहान में सड़ रही थी। ऐसे में विपक्ष बार-बार नोटबंदी का गड़ा मुर्दा उखाड़ लाने को तैयार था। बेरोजगारी और हताशा में नेगेटिव कैंपेन खूब बिकता है। पूर्ण बजट में शुरुआत इन्हीं से करनी होगी। सरकारी नौकरियों की वेकेंसी उम्मीद के पेड़ पर सबसे नीचे लटक रहे फल हैं। उन्हें महज उचक कर पकड़ा जा सकता है। फिर असली काम लेकिन मुश्किल काम पर निगाह जमानी होगी। एक्सपर्ट बिरादरी हजार बार कह चुकी है कि कृषि एक सीमा के बाद रोजगार नहीं दे सकती। उसकी जोत लगातार घट रही है। असली आश्वासन कारखाने देते हैं। ज़रुरत छोटे और मध्यम उद्योगों को संजीवनी देने की है। मैन्युफैक्चरिंग को खाद-पानी देने की है। कंसट्रक्शन इंडस्ट्री रोजगार की दूसरी सबसे बड़ी खान होती है। सड़क-पुल-बिजली यानी इन्फ्रास्ट्रक्चर भी एक हाथ से निवेश लेकर दूसरे हाथ से रोजगार वापस करता है। एक्सपर्ट कह रहे हैं कि `मेक इन इंडिया` कैंपेन ही बेरोजगारी के कैंसर का स्थायी इलाज कर सकता है। उसे फिर सरकार के अग्रिम मोर्चे पर लाना होगा। व्यापारियों और आटो सरीखे सेक्टरों के कारोबारियों जीएसटी वाले जख्म असली हैं। वे राजनीति से कम और व्यावहारिक जटिलताओं से ज्यादा उभरे हैं। जीएसटी की शुरुआत पी चिदंबरम ने यूपीए राज में की थी। बाकायदा सर्वसम्मति से काम आरंभ हुआ था। इसलिए सिद्धांत तौर पर कांग्रेस या कोई और पार्टी इसका विरोध नहीं कर सकती। लेकिन क्रियान्वयन की दिक्कतें इसके समर्थकों को भी विरोधियों में बदल रही हैं। इसलिए जीएसटी ढांचे में विवेकसम्मत सुधार भी मोदी सरकार की दूसरी पारी की वरीयता होना चाहिए। मानसून के नाज-नख़रे भी मोदी की दूसरी पारी का नशा उतार सकते हैं। जून की पहली फुहार हफ़ता भर लेट होने की खबर आ चुकी है। सत्तर फीसदी से ज्यादा खेतों की सिंचाई के लिए आसमान का मुंह देखने वाली इकॉनमी के मुल्क में क्राइसिस मैनेजमेंट की तैयारी रखनी होगी। वर्ष 2019 का आम चुनाव विपक्ष ने इकॉनमी के मोर्चे पर लड़ा है। मोदी सरकार इकॉनमी से ज्यादा राष्ट्रवाद, सुरक्षा और हिंदुत्व के भरोसे थी। 2024 में भी क्या विपक्ष इकॉनमी की दुहाई दे रहा होगा, इसका अंदाजा मोदी सरकार के आगामी बजट से मिल जाएगा। यह सही है कि अर्थनीति के तरकश के तीर कई बार निशाने से चूक जाते हैं। लेकिन जब वे लगते हैं तो बहुत गहरे लगते हैं। दिल्ली में कभी प्याज के भाव के कारण बनवास पर जाने को मजबूर हुई भाजपा इसे अच्छी तरह समझती होगी। Amar Ujala
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