चुनावी सभाओं में जुमलों की बारिश कोई नई बात नहीं है। इधर कुछ वर्षों से इसका प्रचलन काफी तेज हुआ है। और तो और विपक्षी पार्टियां पीएम नरेन्द्र मोदी के भाषणों को भी जुमला सिद्ध कर देती हैं। कई बार पीएम मोदी की जुबान भी फिसलती है, जिसे लपकने में विपक्ष बिल्कुल देरी नहीं करता। इसी क्रम में 16 नवम्बर को छत्तीसगढ़ की चुनावी सभाओं में मोदी ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर कटाक्ष करते हुए कहा- ‘आपकी दादी ने गरीबी हटाने को कहा था, लेकिन नहीं हुआ। ऐसे झूठे वादे करने वाले लोगों पर आप (जनता) भरोसा करेंगे क्या? इंदिरा ने कहा था गरीबी हटाने के लिए मेरी सरकार बनाओ। उस बात को आज 40 साल हो गए हैं। क्या देश से गरीबी हटी है? उन्होंने वादाखिलाफी की या नहीं? ऐसे झूठे वादे करने वालों पर भरोसा नहीं करना चाहिए’। इसमें कोई खास बात नहीं है। नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी के बीच आरोप-प्रत्यारोप चलते रहते हैं। अहम यह है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री स्व.इंदिरा गांधी की ‘गरीबी हटाओ’ नारे पर चुटकी ली है। यह वही इंदिरा गांधी हैं, जिनकी ताकत और शैली की दुनिया कायल थी। दुनिया के कई दिग्गज नेता इंदिरा के नाम से कांपते थे। पीएम मोदी को इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ प्रोग्राम का अध्ययन कर यह समझना चाहिए कि उन्होंने देश से गरीबी हटाने के लिए किस तरह शिद्दत से काम किया था। तब गरीबी उन्मूलन की दिशा में देश कुछ आगे भी बढ़ा। काफी हद तक सफलता भी मिली। इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ प्रोग्राम की चर्चा इसलिए करनी पड़ रही है कि 19 नवम्बर को उनकी जयंती है।
आपको बता दें कि वर्ष 1966 में पीएम बनते ही इंदिरा गांधी कांग्रेस के अंदर जमे मठाधीशों के निशाने पर थीं। 1967 के आम चुनाव में जब गैर-कांग्रेसवाद के नारे तले कांग्रेस का जनाधार खिसका तो उनके विरोधियों को नई ताकत मिली। 1969 में कांग्रेस का विभाजन हुआ। पार्टी में मौजूद अपने प्रतिद्वंद्वियों से निपटने के लिए इंदिरा ने समाजवाद की प्रत्यंचा चढ़ाकर एक साथ कई तीर चलाए। राजा-महाराजाओं के प्रीवी पर्स खत्म करना और 14 प्रमुख बैंकों का राष्ट्रीयकरण इनमें प्रमुख थे। 19 जुलाई, 1969 की आधी रात ये बैंक सरकारी नियंत्रण में आ गए लेकिन प्रीवी पर्स समाप्ति का विधेयक लोकसभा से पारित होकर जब राज्यसभा में गया तो एक वोट से गिर गया। इसके बाद इंदिरा गांधी ने डां.लोहिया के ‘गूंगी गुड़िया’ के आवरण से बाहर निकलकर और अपने को एक जनवादी नेता की तरह स्थापित किया। उन्हें समर्थन दे रहे वामपंथियों ने इस काम में उनकी पूरी मदद की। दरअसल, कांग्रेस विभाजन के बाद 522 सदस्यों की लोकसभा में कांग्रेस के पास 228 सदस्य रह गए थे और उसकी सरकार वामपंथियों के सहारे टिकी थी। इंदिरा गांधी ने तय किया कि वे मध्यावधि चुनाव कराएंगी और लोकसभा भंग कर दी गई। अपने कुछ तेजतर्रार सलाहकारों से मंत्रणा के बाद उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा उछाला। बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रीवी पर्स की समाप्ति की राह पर चलीं इंदिरा गांधी निजी क्षेत्र में बैंक चलाने वाले पूंजीपतियों, महलों में रहने वाले सामंतों और पार्टी के अंदर के बूढ़े हो चले बुर्जुआ नेताओं से सीधी टक्कर लेने वाली गरीबों की हमदर्द की तरह उभर आईं थीं। इसलिए आम लोगों को ‘गरीबी हटाओ’ के नारे में सच हो सकने वाला एक और सपना सामने दिखने लगा।
इंदिरा गांधी ने 1971 के चुनाव में ‘गरीबी हटाओ’ के नारे को भुनाया। चुनाव प्रचार में उन्होंने यह कहते हुए आमजन की हमदर्दी बटोरी, ‘वो कहते हैं इंदिरा हटाओ, हम कहते हैं गरीबी हटाओ’। विरोधियों ने गरीबी हटाओ के जवाब में नारा दिया, ‘देखो इंदिरा का ये खेल, खा गई राशन, पी गई तेल’। लेकिन वह काम नहीं आया। पांचवीं लोकसभा चुनाव के नतीजे आए तो कांग्रेस ने चुनाव में दो तिहाई सीटें हासिल की। कांग्रेस ने 518 में से 352 सीटों पर विजय पाई। ‘गरीबी हटाओ’ उन बिरले नारों में से था, जिसने उसे गढ़ने वाले को चुनाव में बड़ी सफलता दिलाई। इंदिरा ने इस नारे के सहारे चुनाव जीतने के चार साल बाद 1975 में एक 20 सूत्रीय कार्यक्रम पेश किया, जिसका लक्ष्य गरीबी पर हमला था। सुनील खिलनानी की पुस्तक ‘भारतनामा’ में लिखा है कि गरीबों को आमतौर पर कहीं नुमाइंदगी हासिल नहीं थी। इंदिरा गांधी ने इस लोकलुभावनवाद को अभूतपूर्व ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया। उन्होंने रजवाड़ों की लगभग भुलाई जा चुकी याद को कुछ इस तर्ज पर ताजा किया कि वे देश की समस्याओं के लिए एक हद तक जिम्मेदार लगने लगे। इसी आधार पर उनके प्रीवी पर्स समाप्त किए गए, यद्यपि संविधान में उन्हें इसका आश्वासन मिला था। हालांकि नेहरू में भी रजवाड़ों के प्रति कोई हमदर्दी नहीं थी लेकिन उन्होंने संवैधानिक उसूलों के खिलाफ जाने के संसदीय दबाव को मानने से इंकार कर दिया था। बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया, जिससे सरकार को सस्ती दरों पर धन का स्रोत मिला। इसके बाद बीमा, कोयला उद्योग और ‘बीमार’ उद्यमों (खासकर सूती वस्त्र उद्योग) का अधिग्रहण हुआ। वैज्ञानिकों और वामपंथियों के बुद्धिजीवी वर्ग ने इन कदमों को हाथों-हाथ लिया। लेकिन स्वयं इंदिरा अपने कदमों के बारे में अलग सोचती थीं। एक पत्रकार के सामने उन्होंने माना था कि वे समाजवाद के बारे में इसलिए बोलती हैं कि लोग यही सुनना चाहते हैं।
जानकार बताते हैं कि 1971 में गरीबी की दर 57 प्रतिशत थी। इंदिरा ने गरीबी हटाओ का नारा देकर कई योजनाएं शुरू की। 1973 में श्रीमान कृषक एवं खेतिहर मजदूर एजेन्सी व लघु कृषक विकास एजेन्सी तथा 1975 में गरीबी उन्मूलन के लिए बीस सूत्रीय कार्यक्रम लागू किए। ये गांव के लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने और गरीबी घटाने के लिए प्रभावशाली साबित हुए। 1977 में गरीबी दर 52 प्रतिशत और 1983 में 44 प्रतिशत हो गई। इसके बाद यह 1987 में 38.9 फीसदी तक आ गई। मौजूदा समय में गरीबी की दर लगभग 27.5 फीसदी जरूर है लेकिन गरीब नहीं घटे हैं। यूपी में गरीबी का आंकड़ा केन्द्र से अधिक ही रहा है। यहां 1971 में गरीबी की दर 65 फीसदी थी। इस समय यह लगभग 32.8 प्रतिशत है। सबके बावजूद गरीबी उन्मूलन के लिए बीस सूत्री कार्यक्रम में आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को नीचे लाना, भूमिहीन मजदूरों, छोटे किसानों और कारीगरों से कर्ज की वसूली पर रोक हेतु कानून लाना, सरकारी खर्च में कठोरता को बढ़ावा देना, बंधुआ मजदूरी पर कारवाई, ग्रामीण ऋणग्रस्तता को समाप्त करना आदि कठोर कदम उठाए गए। फिलहाल, मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा इंदिरा गांधी की शैली की मजाक उड़ाने पर कांग्रेस मीडिया सेल में कार्यरत विनीत पुनिया, यूपी युवा कांग्रेस के सोशल मीडिया प्रभारी विशाल कुन्द्रा और राजस्थान में कांग्रेस के लिए सोशल मीडिया पर एक्टिव रहने विक्रम स्वामी कहते हैं कि नरेन्द्र मोदी को इंदिरा गांधी के बारे में कटाक्ष करने से पहले अपने गिरेबां में झांककर देखना चाहिए। इन नेताओं ने कहा कि तेजतर्रार इंदिरा गांधी के सामने दुनिया के कई बड़े नेता नतमस्तक थे। बहरहाल, यह कह सकते हैं कि इंदिरा गांधी ने गरीबी उन्मूलन के लिए जितने कड़े फैसले लिए उसका प्रतिपादन संभव नहीं था।
साल 1992 में संयुक्त राष्ट्र ने एक प्रस्ताव में दुनिया से गरीबी खत्म करने का आह्वान किया था। इसके बाद हर साल 17 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय गरीबी उन्मूलन दिवस अस्तित्व में आया। इस वैश्विक आह्वान के करीब 20 साल पहले स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत में गरीबी के प्रतीक ओडिशा के कालाहांडी जिले से गरीबी हटाओ का नारा दिया। दोनों मामलों में सामाजिक रूप से हाशिए पर चल रहे समुदायों को लक्षित किया गया था जो उस वक्त भी बड़ी संख्या में थे। हाल के महीनों में आजादी के बाद जन्म लेने वाले पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी चुटीले अंदाज में ही सही इस नारे को दोहराया है। वैश्विक अपील के 25 साल और इंदिरा गांधी के नारे के 45 साल के बाद से हमने क्या कुछ पाया है? जिस तरह गरीबी का स्तर कम हुआ है और हाशिये पर चल रहे लोगों की दशा और बदतर हुई है, उसे देखते हुए इसका जवाब न ही होगा। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट गरीबी की वजहों और कुछ लोगों के कभी इससे बाहर न निकल पाने के कारणों पर प्रकाश डालती है। रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि भविष्य निर्धारित करने वाला किसी व्यक्ति के अभिभावकों का सामाजिक स्तर का प्रभाव आज भी उतना है जितना 50 साल पहले था। रिपोर्ट के अनुसार, 1960 का दशक गरीबी व असमानता को कम करने और विकास को बढ़ावा देने के लिए बहुत अहम था। रिपोर्ट बताती है कि कैसे शिक्षा तक पहुंच गरीबी से निकलने और समग्र विकास तय करती है। रिपोर्ट के अनुसार, 1980 के दशक में जन्म लेने वाले 50 प्रतिशत बच्चे अपने माता-पिता से अधिक शिक्षित हैं। 1960 के दशक से यह अलग नहीं है। 2030 तक गरीबी को खत्म करना तब और बड़ी चुनौती होगी। तो क्या भारत के लिए यह खतरे की घंटी है? असल में जरूरी कदम उठाने के लिए यह आपातकालीन स्थिति है। साथ ही गरीबी को देखने के चश्मे को भी बदलने की जरूरत है। बहरहाल, देखना यह है कि सरकार क्या करती है?
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