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विश्व आर्थिक मंच में दिखा पीएम मोदी की कथनी और करनी का फर्क

तस्लीम खान
आतंकवाद, पर्यावरण सुरक्षा और आत्म-केंद्रीकरण - ये वे तीन प्रमुख विषय या चुनौतियां हैं, जिनका जिक्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विश्व आर्थिक मंच के उद्घाटन सत्र में किया। इसमें कोई संदेह नहीं कि आतंकवाद और पर्यावरण चिंता के कारण हैं और इसके समाधान के लिए पूरे विश्व को एकसाथ बैठकर हल निकालना होगा। लेकिन, जिस तीसरी चुनौती की बात पीएम मोदी ने की, वह बिल्कुल उसी तरह थी जैसा कि एक पुरानी कहावत में कहा गया है - ‘दूसरों को नसीहत, खुद मियां फजीहत’। पीएम मोदी ने अपने भाषण की शुरुआत में रस्मी अभिनंदन के बाद जो सबसे पहली बात कही, वह विश्व आर्थिक मंच की इस वर्ष की थीम यानी विषय पर थी। उन्होंने कहा, "आज का विषय दरारों से भरे विश्व में साझा भविष्य के निर्माण का है।” उन्होंने आगे कहा, “आर्थिक क्षमता और राजनीतिक शक्ति का संतुलन बदल रहा है। इससे विश्व के स्वरूप में दूरगामी परिवर्तनों की छवि दिखाई दे रही है। विश्व के सामने शांति, स्थिरता, सुरक्षा जैसे विषयों को लेकर नई और गंभीर चुनौतियां हैं। तकनीक आधारित बदलाव ने हमारे रहने और काम करने के व्यवहार और बातचीत के तरीकों को प्रभावित किया है।” साथ ही पीएम मोदी ने कहा, "टेक्नोलॉजी से जोड़ने, मोड़ने और तोड़ने का उदाहरण सोशल मीडिया में मिलता है।” उन्होंने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा कि वे यह बात पूरी जिम्मेदारी से कह रहे हैं कि टेक्नालॉजी तोड़ने का काम भी होता है। पीएम के इस संबोधन के दौरान मौजूद दर्शकों और श्रोताओं में भारतीय दल के बीच रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी भी थे, जिन्होंने लगभग एक साल पहले ही रिलायंस जियो शुरु किया है। मुकेश अंबानी ने जियो के लांच के वक्त कहा था कि डाटा सबसे बड़ी संपदा है। प्रधानमंत्री ने दावोस में अपने भाषण में यही बात दोहराई। उन्होंने कहा, “डाटा बहुत बड़ी संपदा है। डाटा से सबसे बड़े अवसर मिल रहे हैं और सबसे बड़ी चुनौतियां भी। डाटा के पहाड़ बन रहे हैं और उन पर नियंत्रण की होड़ लगी है। ऐसा माना जा रहा है कि जो डाटा पर नियंत्रण रखेगा, वही भविष्य पर नियंत्रण करेगा।'' पीएम ने अपने भाषण में चेतावनी दी कि विज्ञान और तकनीक से दरारें भी पैदा हो रही हैं, जिनसे दर्द भरी चोटें पहुंचती हैं। उन्होंने कहा कि प्राकृतिक और तकनीकी संसाधनों पर कब्जे की चाहत ही अलगाव, प्रतिबंध, गरीबी, बेरोजगारी, विकास और अवसरों के अभाव कारण है। उन्होंने स्वंय से सवाल किया, “कहीं ये व्यवस्था इन दरारों और दूरियों को बढ़ावा तो नहीं दे रही है। ये कौन सी शक्तियां हैं, जो सामंजस्य के ऊपर अलगाव को तरजीह देती हैं, जो सहयोग के ऊपर संघर्ष को हावी करती हैं।'' शायद यह सब कहते हुए प्रधानमंत्री के मन में अपने घर की तस्वीर घूम रही थी, जहां असमानता, अलगाव, बेरोजगारी, अवसरों की कमी, सामाजिक दरारें, प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे रोजमर्रा का मसला बने हुए हैं। पीएम ने कहा कि वे भारत, भारतीयता और भारतीय विरासत के प्रतिनिधि हैं और उनके लिए विश्व आर्थिक मंच में आना जितना समकालीन है, उतना ही समयातीत भी है। उन्होंने कहा, “भारत में अनादि काल से हम मानव मात्र को जोड़ने में विश्वास करते आए हैं, उसे तोड़ने और बांटने में नहीं।” लेकिन यहां प्रधानमंत्री को याद रखना था कि वे ऐसा क्या कह रहे हैं जिस पर वे स्वंय ही अमल नहीं करते। उन्हें याद रखना था कि उनके 44 महीने के शासनकाल में जोड़ने के बजाय तोड़ने और बांटने का ही काम हुआ है। उन्हें याद रखना था कि भारत में धर्म, जाति, समुदाय और संप्रदाय के आधार पर समाज का बंटवारा जितना बीते 44 महीनों में हुआ है, उतना कभी नहीं हुआ। पीएम मोदी ने यहां फिर से वसुधैव कुटुंबकम की याद दिलाते हुए कहा कि उनके लिए पूरी दुनिया एक परिवार है और नियतियों में एक साझा सूत्र उन्हें एक-दूसरे से जोड़ता है। यहां पीएम संभवत: उस परिवार की बात कर रहे थे, जिसमें रहकर उनकी राजनीतिक दीक्षा हुई है। प्रधानमंत्री को यहां दिल पर हाथ रखकर सोचना था कि विश्व मंच पर वसुधैव कुटुंबकम की बात कहने से पहले उन्हें अपने घर में झांक कर देखना जरूरी है। पीएम ने अपने संबोधन में कहा कि इस काल की चुनौतियों से निपटने के लिए सहमति का अभाव है। वे विश्व संदर्भ में यह बात कह रहे थे, लेकिन भूल गए थे कि सहमतियों का अभाव तो उनके अपने देश में ही है। कलबुर्गी, लंकेश, पहलू खान, अखलाक इसके उदाहरण हैं। उन्होंने कहा कि विश्व के सामने तीसरी बड़ी चुनौती ये है कि “बहुत से समाज और देश आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं।” उन्होंने महात्मा गांधी को याद करते हुए कहा कि, "महात्मा गांधी ने कहा था कि मैं नहीं चाहता कि मेरे घर की दीवारें और खिड़कियां सभी तरह से बंद हों। मैं चाहता हूं कि सभी देशों की संस्कृतियों की हवा मेरे घर में पूरी आजादी से आ-जा सकें।'' लेकिन प्रधानमंत्री को संभवत: याद नहीं रहा कि इस सरकार ने खिड़की-दरवाजे कुछ खास लोगों के लिए ही खुले हुए हैं, बाकी आम लोग या तो ट्विटर या फिर मन की बात का इंतजार करते रह जाते हैं, क्योंकि उनकी सरकार एकतरफा संवाद और शासन में विश्वास करती है। पीएम मोदी ने लोकतंत्र की व्याख्या करते हुए कहा कि, "लोकतंत्र सिर्फ विविधता का पालन नहीं करता, बल्कि सवा सौ करोड़ भारतीयों की आशाओं, सपनों को पूरा करने के लिए, सम्पूर्ण विकास के लिए रोडमैप और परिवेश देता है।'' यहां प्रधानमंत्री उस रिपोर्ट को भूल गए जो एक दिन पहले ही इसी मंच से जारी की है, जिसमें कहा गया है कि समावेशी विकास के मामले में भारत न सिर्फ पाकिस्तान, बल्कि नेपाल जैसे छोटे देश और दूसरे पड़ोसी बांग्लादेश और श्रीलंका से भी पीछे है। उन्होंने 2014 में अपनी प्रचंड विजय का जिक्र करते हुए कहा कि, “हमने किसी एक वर्ग या कुछ लोगों के सीमित विकास का नहीं, बाल्कि सबके विकास का संकल्प लिया है। मेरी सरकार का लक्ष्य है सबका साथ-सबका विकास। प्रगति के लिए हमारा विजन, मिशन और दर्शन समावेशी है। ये मेरी सरकार की हर नीति और योजना का आधार है।'' लेकिन प्रधानमंत्री उस रिपोर्ट को भूल गए जिसमें कहा गया है कि भारत की कुल दौलत का 73 फीसदी देश के एक फीसदी लोगों के हाथों में है। प्रधानमंत्री जब यह कह रहे थे कि प्रगति और विकास तभी सच्चे अर्थों में है, जब साथ चलें, सबको लेकर चलें और सबके लिए चलें, तो वे उस सूचकांक को भूल गए थे जिसका आंकलन किसी देश के लोगों के रहन-सहन का स्तर, पर्यावरण की स्थिति और कर्ज के बोझ से संरक्षण आदि पहलुओं पर आधारित होता है, और इस सूचकांक में भारत 103 देशों की सूची में 62वें नंबर पर है। मोदी ने भारत में उनकी सरकार के दौर में उठाए गए कदमों में से जीएसटी को बड़ी उपलब्धि बताया। लेकिन यह नहीं बताया कि इस टैक्स को अभी तक उनकी सरकार ही नहीं समझ सकी है, तो आम लोग और व्यापारी क्या समझेंगे। उन्होंने नहीं बताया कि जीएसटी लागू होने के बाद जीएसटी काउंसिल की 25 बैठकें कर करीब 50 बार दरों में बदलाव करने के बाद भी किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा है। यह भी नहीं बताया कि कथित पारदर्शिता के नाम पर जिस तकनीक के इस्तेमाल की वे बात कर रहे थे, उसी तकनीक के कारण जीएसटी का फांस नहीं निकल पा रही है। मुहावरे गढ़ने में माहिर मोदी ने फिर से नया मुहावरा गढ़ते हुए कहा कि, "डेमोक्रेसी, डेमोग्राफी और डायनिज्म ने मिलकर डेवलपमेंट और डेस्टिनी को आकार दिया है। अब हमारी सरकार के निर्भीक फैसलों ने हालात में बदलाव किया है।'' लेकिन वे यह नहीं बता पाए कि इन बदलावों और फैसलों से बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ गई है, युवाओं में गुस्सा है, रोजगार के अवसर संकुचित हो गए हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ आदर्शों की गिनती करते हुए बताया कि कैसे संकट के समय वे दूसरों की मदद करते हैं। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में भारतीय दल की मौजूदगी, नेपाल भूकंप आदि का जिक्र किया। लेकिन यह नहीं बताया कि जब कोई पहलू खान या अखलाक मारा जाता है, तो उसे दिलासा देने के बजाय, उसके जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया जाता है। यह नहीं बताया कि जब किसी गौरी लंकेश की हत्या होती है, तो इसकी आलोचना करने के बजाय उसे बुरा भला कहा जाता है। सोशल मीडिया पर अपशब्दों का प्रयोग किया जाता है। प्रधानमंत्री ने गुरुदेव रवींद्रनात टैगोर का जिक्र करते हुए कहा कि, “महान भारतीय कवि गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने ऐसी स्वतंत्रता की कल्पना की- आइए हम मिलकर ऐसा हैवन ऑफ फ्रीडम बनाए जहां सहयोग और समन्वय हो, बंटवारे और टूट की जगह ना हो। हम साथ-साथ दुनिया को दीवारों और अनावश्यक दरारों से मुक्ति दिलाएं।'' लेकिन गुरुदेव का नाम लेने से पहले प्रधानमंत्री ने एक बार भी नहीं सोचा कि जिस स्वतंत्रता के स्वर्ग की बात कर रहे हैं, वह क्या भारत में बची है। वे शायद भूल गए कि उनके शासनकाल में लोगों को बोलने-कहने की आजादी तो दूर, मनमर्जी खाने-पाने और पहनने-ओढ़ने तक की इजाजत नहीं है। यहां तक कि प्यार पर भी उनकी सरकार के दौर में पहरे बैठा दिए गए हैं। भाषण खत्म करते-करते उन्होंने एक नया जुमला भी उछाला, “मैं आपका आह्वान करता हूं कि अगर आप वेल्थ, वैलनेस चाहते हैं तो भारत में आइए। आप हेल्थ के साथ जीवन की होलनेस चाहते हैं तो भारत में आएं, अगर आप प्रॉस्पैरिटी के साथ पीस चाहते हैं तो भारत में आएं।” लेकिन पीएम को याद रखना था देश में न तो वेल्थ है और न ही वेलनेस, न पीस है न प्रोस्पेरिटी और न ही हेल्थ है और न ही होलनेस। साभार नवजीवन 
राजीव रंजन तिवारी (संपर्कः 8922002003)
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