राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनते ही गैर कांग्रेसी पार्टियां और मीडिया के एक खेमे में उनके भविष्य की चुनौतियों को लेकर बहस छिड़ी हुई है। राहुल गांधी के विरोधी दावे कर रहे हैं कि वे कतई सफल नहीं हो सकते क्योंकि उनके सामने समस्याओं का अंबार है। मौजूदा प्रधानमंत्री के सामने वे कहीं नहीं टिकते। इस तरह की नकारात्मक बातें सोचने वालों को भारतीय संस्कृति पर गौर फरमाना चाहिए। देश में न्यायप्रिय वीर-रस की बातें ही पसंद की जाती हैं, वरना सर्वग्राह्य तो विनम्रता और गांधीगिरी ही है। विनम्रता और गांधीगिरी को मूलमंत्र मानते हुए अपने कदम आगे बढ़ाने वाले राहुल गांधी के आगे चाहे कितनी भी चुनौतियां क्यों न हों, पर वो टिकेंगी नहीं। क्योंकि बेहतर व्यवहार के आगे कुछ भी नहीं टिकता। हाल ही में हुए गुजरात विधानसभा चुनाव का नतीजा चाहे कुछ भी हो, पीएम के घर में घुसकर उन्हें तगड़ी चुनौती देकर राहुल गांधी ने विपक्षी योद्धा की जगह हासिल कर ली है। वो दिन अब नहीं रहे जब नीतीश कुमार या केजरीवाल से उम्मीद की जाती थी कि वे एकीकृत विपक्ष की कमान संभालेंगे क्योंकि राहुल से न हो पाएगा। राहुल ने इस धारणा को बदल डाला है। मोदी के उग्र, तानों से भरे, तनकर दिए गए भाषणों के मुक़ाबले राहुल ने शांत, संतुलित और सौम्य छवि पेश की है, वे मोदी से उन्हीं की शैली में मुक़ाबला करने की कोशिश न करके एक कॉन्ट्रास्ट पैदा करने में कामयाब रहे हैं।
आपको बता दें कि गुजरात में बीजेपी के चुनाव प्रचार में इंदिरा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और सोनिया गांधी पर जमकर छींटाकशी की गई। इतना तक कहा गया कि क्या सोमनाथ मंदिर इनके (राहुल के) नाना ने बनवाया था? मोरबी में इंदिरा गांधी की नाक पर रूमाल रखने के मुद्दे पर भी मोदी ने हमले करने में पूरी बेरहमी दिखाई, लेकिन जवाबी हमले करने के बदले राहुल गांधी किसानों, युवाओं और समस्याओं की बात करते रहे। बीबीसी के डिजिटल एडिटर राजेश प्रियदर्शी ने लिखा है कि सोमनाथ मंदिर में विधर्मियों वाले रजिस्टर में नाम दर्ज करने की बात एकमात्र ऐसा मामला था जब राहुल गांधी की टीम ने रिऐक्ट किया और उनकी जनेऊ वाली तस्वीरें जारी की गईं। ये इकलौता मौक़ा था जब राहुल गांधी को नरेंद्र मोदी हिंदुत्व के मैदान में घसीटने में कामयाब होते दिखे। इसी साल मार्च में यूपी में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव के साथ मिलकर लड़े गए विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी के सियासी सयानेपन के लक्षण दिखने लगे थे। गुजरात चुनाव में कांग्रेस कामयाब हो या नहीं, पर जैसा कि राजनीति के जानकारों का मानना है कि राहुल गांधी अब ऐसे नेता बन चुके हैं जिसकी बात लोग सुनने लगे हैं। अब से कुछ ही महीने पहले तक कोई ये मानने को तैयार नहीं था कि राहुल कभी मोदी के मुक़ाबले खड़े हो सकते हैं और वो भी गुजरात में? राहुल गांधी न सिर्फ मुक़ाबले में ख़ड़े हुए बल्कि पूरी विनम्रता के साथ पीएम नरेन्द्र मोदी को कड़ी चुनौती तक दे डाली। राहुल गुजरात मॉडल और विकास के दावों को संदेह के घेरे में लाने में कामयाब हो गए हैं।
अक्सर यह कहा जाता है कि दिल्ली स्थित संसद तक की दूरी तय करने के लिए उत्तर प्रदेश यानी यूपी से होकर ही गुजरना पड़ता है। यह वाक्य एक अबूझ पहेली की भांति है, लेकिन यह स्पष्ट है कि जिस राष्ट्रीय पार्टी का जनाधार यूपी में मजबूत होता है, केन्द्र में उसी की सरकार बनती है। यूपी में जनाधार घटते ही दिल्ली की दूरी बढ़ने लगती है। 1947 के बाद सबसे ज्यादा वक्त तक केन्द्र की सत्ता में कायम रही कांग्रेस का सकारात्मक पहलू यही रहा कि वह यूपी में बड़ी जनाधार वाली पार्टी वही हुआ करती थी। धीरे-धीरे यूपी की नब्ज पर कांग्रेस की पकड़ ढीली होती गई और उसकी सत्ता से दूरी बढ़ती गई। अब राहुल गांधी के हाथ में कांग्रेस की कमान है। 11 दिसम्बर को उन्हें अधिकृत रूप से पार्टी अध्यक्ष घोषित किया गया। बेशक, पार्टी की कमान उनके हाथ में उस वक्त आई है, जब पार्टी की सांगठनिक संरचना उत्तर प्रदेश समेत पूरे देश में लचर है। स्वाभाविक है, राहुल गांधी की सलाहकार मंडली इस बात से चिंतित होगी कि कमोबेश यूपी में अपना जनाधार खो चुकी पार्टी में किस तरह ऊर्जा भरी जाए ताकि वह अपने पुराने स्वरूप में लौट सके। भाजपा की ‘कांग्रेस मुक्त भारत’की सोच पर राहुल गांधी कहते रहे हैं कि कांग्रेस देश की डीएनए में है, उसे खत्म नहीं किया जा सकता। उनका यह कहना कि हम तकरार नहीं, प्यार की सियासत करना चाहते हैं। सवाल यह है कि अन्य दलों के कूटनीतिक तकरार पर राहुल का राजनीतिक प्यार वाला ‘गांधीगिरी’ कितना कामयाब हो पाएगी। सबके बावजूद मृतप्राय यूपी के सांगठनिक स्वरूप को पुनर्जीवित किए बगैर कांग्रेस का मिशन-2019 आसान नहीं है।
उल्लेखनीय है कि भले लम्बे अरसे से राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष बनना तय था, बावजूद इसके पार्टी के भीतर लोकतांत्रिक प्रणाली के प्रदर्शन के लिए अध्यक्ष पद के लिए नामांकन, नाम वापसी की प्रक्रिया विधिवत पूरी की गई। चूंकि कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए किसी दूसरे नेता ने नामांकन नहीं किया था, इसलिए नाम वापसी की तिथि यानी 11 दिसम्बर को राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने की अधिकृत रूप से सूचना दे दी गई। दिलचस्प यह है कि राहुल गांधी के कांग्रेस प्रमुख बनने के बाद मीडिया से लेकर चौक-चौराहों तक सिर्फ एक ही चर्चा है कि वे पार्टी को चुनौतियों से कैसे ऊबार पाएंगे। मेरा मानना है कि इस तरह की नकारात्मक बातें सोचने वालों को राहुल गांधी की काबिलियत को ध्यान में रखना चाहिए। केन्द्र में सत्तारूढ़ मुखर भाजपा नेताओं द्वारा राहुल गांधी की छवि एक अक्षम नेता की बनाई गई है। जबकि भाजपा की सहयोगी पार्टियां शिव सेना समेत कई दलों द्वारा यह कहते हुए राहुल गांधी की तारीफ की जा चुकी है कि उनमें देश की बागडोर संभालने की अदम्य साहस, बौद्धिक गहराई और असीम क्षमता है। समझने वाली बात यह है कि राहुल गांधी ने बड़े ही शालीन, सभ्य व संस्कारी तरीके से भाजपा के सबसे बड़े मुखर वक्ता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बोलती बंद कर दी है। राहुल का यह कहना कि पीएम नरेन्द्र मोदी को कांग्रेस से गहरा ‘लगाव’ है। सियासत में रहस्यमयी गहराई वाले इस वाक्य से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राहुल गांधी में असीमित कूटनीतिक क्षमता भी कूट-कूटकर भरी हुई है।
बीते दिनों बीबीसी हिन्दी के डीजिटल एडिटर राजेश प्रियदर्शी की इस ट्वीट ने राहुल विरोधियों की बोलती बंद कर दी थी-‘वो (राहुल) का इंदिरा पोता है। उसे किसी से कुछ सीखने की जरूरत नहीं।’ राजेश प्रियदर्शी का उक्त ट्वीट यह बताने के लिए काफी है कि राहुल गांधी की क्षमता पर सवाल उठाना अथवा उन्हें हल्के में लेने वालों को एकबार अपने गिरेबां में झांककर देखना चाहिए। खैर, मूल विषय यह है कि राहुल गांधी को मृतप्राय यूपी कांग्रेस में जान कैसे डालेंगे? इसका सबसे आसान जवाब है पिछले 27 वर्षों से यूपी में शासन करने वाली गैर कांग्रेसी पार्टियों की कथित नाकामियां कांग्रेस के लिए मृतसंजीविनी का काम कर सकती है। बस जरूरत इस बात की है कि यहां के दिग्गजों राज बब्बर, प्रमोद तिवारी, दीपक कुमार, डा.संजय सिंह, आरपीएन सिंह, अखिलेश प्रताप सिंह, द्विजेन्द्र त्रिपाठी, पीएल पुनिया के नेतृत्व में संयमित होकर कांग्रेसी पार्टी के संदेशों को जन-जन तक पहुंचाएं और अपने युवा नेता राहुल गांधी की भांति ऊर्जा से लबरेज होकर विरोधियों का जवाब देने के बजाय अपनी बातों को मजबूती से जनता के बीच रखें। देखते ही देखते भाजपा जैसी पार्टियां ‘हवा’ हो जाएंगी। बहरहाल, देखना यह है कि राहुल गांधी 132 साल पुरानी कांग्रेस के लिए क्या कुछ कर पाते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं)
राजीव रंजन तिवारी (संपर्कः 8922002003)
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