महज 4 महीने पहले मुंबई का एक उद्योगपती नरेंद्र मोदी से बुरी तरह निराश होने के बावजूद राहुल गांधी के खिलाफ नफरत से भरा हुआ था। सामान्य तौर पर व्यारपारी वर्ग एक डरपोक समुदाय है जो सत्ताधारी वर्ग के खिलाफ आवाज उठाने से डरता है। पहले नोटबंदी और फिर गलत तरीके से लागू जीएसटी की वजह से धंधा तबाह हो जाने के बावजूद उस व्यापारी ने सार्वजनिक तौर पर मोदी के खिलाफ अपशब्द कहने की हिम्मत नहीं जुटायी। हालांकि, अकेले में उसकी राय उस मोदी के खिलाफ थी, जिसका 2014 में उन्होंने तन-मन-धन से समर्थन किया था। राहुल गांधी से उसकी निराशा राहुल के काम की वजह से नहीं है बल्कि इसलिए है कि वह कुछ कर सकते थे, लेकिन उन्होंने नहीं किया। और वह काम था मोदी को और अधिक निर्णायक तरीके से चुनौती देना। गुजरात चुनाव के आखिरी दौर में पहुंचने के साथ नवनिर्वाचित कांग्रेस अध्यक्ष के बारे में इस उद्योगपति की राय पूरी तरह बदल गई। उसे अब राहुल से बहुत उम्मीद है और चुनाव के दौरान रोज एक सवाल के जरिये राहुल के मोदी पर किए गए हमलों से भी उसके गुजराती स्वाभिमान को कोई ठेस नहीं लगी है। उसने कहा, “राहुल सही राह पर हैं। उन्हें 2019 तक अपनी उंगली मोदी के रग पर टिकाए रखना चाहिए। भविष्य के लिए वह हमारी इकलौती उम्मीद हैं।”
सिर्फ 120 दिनों में ऐसा क्या बदल गया? क्या राहुल गांधी बदल गए? या वह उद्योगपति बदल गया? या फिर, क्या यह मोदी से निराशा की सामान्य भावना का उद्गार था? इस बात के पीछे ये सारी वजह हो सकतीं हैं। लेकिन, गुजरात चुनाव के नतीजे चाहे जो भी आएं, आश्चर्यजनक बात यह है कि इसके अंत में राहुल गांधी इस देश में कई लोगों की उम्मीद के रूप में उभरे हैं। यह बात सच है कि मोदी ने नोटबंदी और जीएसटी लागू कर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है। राहुल गांधी को लेकर लोगों के दृष्टिकोण में आए बदलाव का एक बड़ा कारण मोदी की अशिष्टता, दुर्व्यवहार, असभ्यता और सच को दबाने की प्रवृत्ति और इसके मुकाबले उनका निखरा हुआ व्यक्तित्व और उनकी सौम्यता है। ऐसे गुणों को एक मजबूत नेता की विशेषता समझकर, विशेष तौर पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लो प्रोफाइल व्यक्तित्व की तुलना में लोगों ने गलत धारणा बना ली थी। देश में 2014 और उसके तीन साल बाद अब, तर्क को बदलने में सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका रही है। कांग्रेस के नेता पहले इस बात को नकारते थे कि उन्होंने निष्प्रभावी सरकारें चलाई हैं। वे कहते थे कि उन्हें उन लोगों की आलोचनाओं की परवाह नहीं है, जो सुसज्जित ड्राइंग रुम में बैठकर समीक्षा करते हैं और चुनाव के दौरान वोट देने के लिए भी बाहर नहीं निकलते हैं। गरीब हों या वोटर, सभी लोग कांग्रेस पार्टी के काम और प्रखंडों से गांव स्तर तक पार्टी का प्रतिनिधित्व करने वाले उन कार्यकर्ताओं से भी भलिभांति परिचित हैं, जो हमेशा पार्टी के साथ खड़े रहेंगे। लेकिन, वह सोशल मीडिया के पहले का दौर था। यह बात सबको पता है कि मोदी और बीजेपी ने संचार के इन नए स्वरुपों का जमकर उपयोग किया है, जबकि कांग्रेस यह समझ पाने में विफल रही है कि प्रखंड और ग्राम स्तर की उसकी समितियां अब बीती बातें हो गई हैं और अब तो गांव के लोग भी जमीनी स्तर पर काम की बजाय सोशल मीडिया ग्रुप से अधिक प्रभावित होते हैं।
लेकिन इंटरनेट के प्रादुर्भाव से कई दशकों पहले पंडित जवाहर लाल नेहरू के समकालीन और पूर्व पार्टी प्रवक्ता वीएन गाडगिल के पिता, पुराने गांधीवादी काकासाहेब गाडगिल, अपने अच्छे कामों को लोगों के बीच व्यापक रूप से प्रचारित करने के लिए अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को प्रेरित किया करते थे। उनका कहना था, “बिना प्रचार के अच्छा काम करना, अंधेरे में किसी को देखकर आंखें झपकाने जैसा है। उसे पता भी नहीं चलेगा।” कांग्रेस के 2014 के अभियान का नेतृत्व कर रहे राहुल गांधी और तत्कालीन यूपीए सरकार ऐसा ही कर रही थी- एक ढेर की पीछे अपनी चमक को छिपाकर वे उम्मीद कर रहे थे कि जनता के जरिये उनके अच्छे काम की चमक बिखरेगी। दूसरे शब्दों में, टीवी स्क्रीन पर अपने जोरदार भाषणों के जरिये मोदी द्वारा लोगों को मंत्रमुग्ध करने के दौर में वे अंधेरे में बैठकर लोगों को आवाज दे रहे थे। उस समय कोई यह भी नहीं जानता था कि राहुल गांधी किस चीज के साथ खड़े थे या किस चीज के खिलाफ थे या फिर एक ऐसे राजवंश के होने के अलावा वह क्या थे, जिससे कुछ लोग बहुत ज्यादा नफरत करते हैं। मीडिया और अन्य लोगों से अपनी बातचीत को ऑफ द रिकॉर्ड रखने की राहुल गांधी की विनम्रता ने पूर्व में फायदा पहुंचाने के बजाय उनका नुकसान ज्यादा किया है। पंजाब में ड्रग्स में डूबे नौजवानों को नसीहत देने और गरीबी उन्मूलन के संबंध में एक मुहावरा, ‘एस्केप वेलोसिटी’ का पहली बार इस्तेमाल कर कई मुद्दों पर वह दूसरों से आगे रहे हैं। एस्केप वेलोसिटी एक मुहावरा है जो पश्चिम के अर्थशास्त्रियों के बीच काफी प्रचलित है। लेकिन भारत में एक चुनावी सभा में राहुल गांधी द्वारा इस्तेमाल किए जाने से पहले इसे नहीं सुना गया था। स्पष्ट है कि राहुल ने गलत लोगों के सामने इस शब्द का इस्तेमाल किया था। उन्हें हमारे उन अर्थशास्त्रियों और उद्योगपतियों द्वारा बेहतर तरीके से समझा जाना चाहिए था, जो कभी उन्हें गाली दिया करते थे पर अब उनकी सराहना करते हैं।
हालांकि, यह बताने के लिए सिर्फ दो उदाहरण काफी है कि लोगों के साथ जुड़ने में उनकी अनिच्छा ने पूर्व में उनकी छवि, प्रतिष्ठा और हितों को किस तरह नुकसान पहुंचाया है। 2016 के जनवरी में मुंबई में प्रबंधन के छात्रों के साथ एक मुलाकात के बाद सोशल मीडिया पर उन्हें इस बात के लिए ट्रॉल किया गया कि उन्होंने अपने भाषण में स्टीव जॉब्स को माइक्रोसॉफ्ट से जोड़ दिया था। वास्तव में उन्होंने कहा था, "एक दिन आप इस देश के स्टीव जॉब्स और माइक्रोसॉफ्ट होंगे।” ट्रॉल करने वालों का दावा था कि राहुल ने कहा था, 'माइक्रोसॉफ्ट के स्टीव जॉब्स'। उस समय कांग्रेस द्वारा सोशल मीडिया की अनदेखी ने इस झूठ को तब तक फैलने दिया जब तक कि उनके भाषण का वास्तविक वीडियो सामने नहीं आ गया। लेकिन हाल में गुजरात चुनाव के दौरान बीजेपी के आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने एक झूठा वीडियो पोस्ट किया, जिसमें राहुल को यह कहते हुए दिखाया गया कि, "मैं आपके लिए एक ऐसा मशीन लगाऊंगा जिसमें आप एक तरफ से आलू डालेंगे तो दूसरी तरफ से सोना निकलेगा"। ट्रॉल करने वालों का यह झूठ सोशल मीडिया पर ज्यादा देर तक टिक नहीं पाया। बीजेपी की तरफ से वीडियो डाले जाने के एक घंटे के भीतर कांग्रेस ने उस भाषण का मूल वीडियो प्रसारित कर दिया, जिसमें असल में मोदी द्वारा आदिवासियों को आलू के बदले सोना देने का आश्वासन देकर बेवकूफ बनाने की राहुल आलोचना कर रहे थे। लेकिन आज जब राहुल ने अपने ऊपर लगे अपरिपक्वता के तमगे को हटा दिया है और सोशल मीडिया में महारत हासिल कर ली है तो भी यह अपने आप में उनके लिए एक खतरा बन सकता है। भारत सूचना क्रांति के युग में डूब चुका है लेकिन ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की पूरी पीढ़ी ऐसी है जिसे आज भी मोबाइल फोन में महारत हासिल नहीं है। ऐसे कार्यकर्ताओं से बातचीत करने पर अपने पार्टी अध्यक्ष से उनके मोहभंग की वजह सामने आती है। पार्टी कार्यकर्ताओं को राहुल गांधी से मिलने का समय लेने के लिए ईमेल करना होता है और वे लोग अभी तक यह नहीं जानते हैं कि ईमेल अकाउंट कैसे चलाया जाता है। वे लोग बहुत तो उन्हें पत्र लिख सकते हैं या सीधे फोन पर उनसे बात कर सकते हैं। ऐसे में राहुल गांधी को इन पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए खुद को सुलभ बनाने की जरूरत है, जिनके पास हो सकता है भविष्य के लिए बड़े विचार हों।
मुंबई में संपादकों के साथ एक बैठक में राहुल गांधी ने कहा था कि वह देश के लिए एक बड़े विचार की तलाश में हैं और उनकी पार्टी ने इस काम के लिए अपने थिंक टैंक को सक्रिय कर दिया है। लेकिन, अगर राहुल अपने परदादा की किताब से सीख लेना चाहें और ‘शिविर’-चिंतन शिविर- जिसमें इलाके के सभी गांवों के सभी कार्यकर्ता शामिल हो सकते हैं, आयोजित करने की परंपरा पर वापस लौट आएं तो उन्हें आसानी से अपना जवाब मिल जाएगा। महाराष्ट्र विधानसभा में विपक्ष के वर्तमान नेता राधाकृष्ण विखे पाटिल के दादा विठ्ठलराव विखे पाटिल ने महराष्ट्र में सहकारी समितियों का विचार ऐसे ही एक शिविर में दिया था। इस विचार के लिए विट्ठलराव पाटिल को पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था और आज भी यह विचार राज्य में कांग्रेस की रीढ़ बनी हुई है, जिसे बीजेपी अपने तमाम प्रयासों के बावजूद तोड़ पाने में असमर्थ है। पंडित नेहरू विशेष तौर पर दिल्ली से उनसे मिलने अहमदनगर आए थे, क्योंकि वह यह जानने के लिए बेचैन थे कि कैसे सिर्फ चौथी कक्षा तक पढ़ा एक शख्स ऐसा शानदार विचार पेश कर सकता है, जो देश के सर्वश्रेष्ठ दिमाग वालों की सोच से बच निकला। इसलिए राहुल गांधी को नए और पुराने का मिश्रण बनाना चाहिए जिसमें उनके थिंक टैंक के लोगों के साथ-साथ जमीन से जुड़े पार्टी के लोग भी हों जिनके पास शायद समस्याओं का अंतिम समाधान हो। हालांकि, गुजरात में उनके मंदिर दौरों की बीजेपी की तरफ से जमकर आलोचना हुई है। इस मामले में वह अपने माता-पिता और पंडित नेहरू की बजाय अपनी दादी इंदिरा गांधी की तरह हैं। राहुल गांधी को धर्मनिपेक्षता को बहुलता के रूप में फिर से परिभाषित करने की जरूरत है और उनका मंदिरों में दर्शन करना सही दिशा में उठाया गया एक कदम था। उनका हिंदुओं से भी जुड़ना उतना ही जरूरी है जितना मुसलमानों, पारसी, सिख, बौद्ध, जैन या अन्य सभी अल्पसंख्यकों से जुड़ना जरूरी है। उन्हें अमीर हो या गरीब, उच्च जाति का हो या निम्न जाति का हर भारतीय का प्रतिनिधित्व करना चाहिए क्योंकि यही महात्मा गांधी की कांग्रेस थी – धर्मनिरपेक्ष और समावेशी।
पार्टी के सबसे बुरे समय में इसका नेतृत्व संभालने की जिम्मेदारी लेकर राहुल गांधी ने अपने साहसी होने का परिचय दिया है। उनके सामने सिर्फ कांग्रेस को पुनर्जीवित करने की चुनौती नहीं है बल्कि भारत में फैल रही विषाक्तता को उखाड़ने और इसे वापस इसकी सही शक्ल में लाने का भी मुश्किल काम है। भारतीयों के लिए इस बात का कोई महत्व नहीं है कि वह भारत के अगले प्रधान मंत्री बनते हैं या नहीं। लेकिन, उद्योगपति और पुराने मोदी भक्तों में से ज्यादातर लोग उनसे बहुत सारी उम्मीदें लगा रहे हैं। लोग उनसे किसी मसीहा की तरह उम्मीदें लगा रहे हैं। अगर वह विफल होते हैं तो वह सिर्फ खुद को विफल नहीं करेंगे बल्कि भारत को विफल करेंगे। साभार नवजीवन
राजीव रंजन तिवारी (संपर्कः 8922002003)
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