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अर्थव्यवस्था के लिए और बुरी खबर, आरबीआई ने दिए महंगाई के संकेत, घाटा पूरा करने के लिए टैक्स बढ़ने की आशंका

राहुल पांडे 
आखिर क्यों आंखों पर पड़ रही तेज़ रोशनी से मृग स्तंभित होकर जहां का तहां खड़ा रह गया? उन लोगों की हालत बिल्कुल इसी मृग जैसी है, जो छाती पीट-पीटकर शोर मचा रहे हैं कि पटरी पर लौट आई है अर्थव्यवस्था। इनकी आंखे भी बिल्कुल वैसे ही चुंधियाई हुई हैं, जैसे यह मृग बीच सड़क पर खड़ा सोच रहा है कि मुसीबत टल ही जाएगी। उन्हें बताया भी जा रहा है कि सामने से मुसीबत आने वाली है, लेकिन वह मानने को तैयार नहीं। संकट में घिरी देश की अर्थव्यवस्था के अच्छे दिन अभी लौटे नहीं हैं। रेटिंग एजेंसी फिच ने इस साल की विकास दर के अनुमान को घटाकर साफ कह दिया है कि ये 2013-14 से भी कम रहने वाली है। पीएमआई के आंकड़े बताते हैं कि मांग में कमी के चलते सर्विस सेक्टर की हालत बिगड़ चुकी है। और रही सही कसर रिजर्व बैंक ने पूरी कर दी। महंगाई के काबू में न होने का हवाला देते हुए आरबीआई ने ब्याज दरें घटाने से साफ इनकार कर दिया। ये तीनों आंकड़ें स्पष्ट संकेत दे रहे हैं कि अर्थव्यवस्था पर काले बादल मंडरा रहे हैं। रेटिंग एजेंसी फिच ने जो आंकड़े पेश किए हैं, वे काफी महत्वपूर्ण हैं। फिच ने कहा है कि 2017-18 में भारतीय अर्थव्यवस्था 6.7 फीसदी की दर से ही बढ़ सकती है। ये दर 2013-14 की 6.9 फीसदी की विकास दर से भी कम है। हालांकि फिच ने माना है कि पहली तिमाही की 5.7 के मुकाबले विकास दर में सुधार हुआ है, लेकिन अर्थव्यवस्था के पटरी पर वापसी की रफ्तार उम्मीदों से बहुत कमजोर है। इतना ही नहीं फिच ने अगले साल यानी 2018-19 के लिए भी ग्रोथ का अनुमान 7.4 फीसदी से घटाकर 7.3 फीसदी कर दिया है। यह कमी भले ही देखने में बहुत ज्यादा न लगे, लेकिन अहम इसलिए है क्योंकि यह आने वाले बुरे दिनों की आहट दे रहा है। दरअसल फिच जो कहना चाहती है, वह यह कि उसे नोटबंदी और जीएसटी से बड़े असर की उम्मीद थी, क्योंकि इन दोनों कथित आर्थिक सुधारों के कदमों से उठी आंधी की धूल बैठने के बाद दूसरी तिमाही में अर्थव्यवस्था में तेज सुधार होना चाहिए था। उसे यह भी उम्मीद थी जीएसटी की शुरुआती दिक्कतों के बाद कंज्यूमर डिमांग बढ़कर अपनी सामान्य गति पर आ जाएगी। लेकिन नवंबर में आए पीएमआ के आंकड़ों ने आंखें खोल दीं। इससे साफ हो गया कि सर्विस सेक्टर तो बुरी हालत में है और मांग बढ़ना तो दूर, उलटे घट गई है। सर्विस सेक्टर में पीएमआई के आंकड़ों को भी गंभीरता से देखने की जरूरत है। अक्टूबर 2016 में यह आंकड़ा 54 के आसपास था, लेकिन नवंबर 2016 में नोटबंदी के आलान के साथ ही यह घटकर 47 रह गया था। पीएमआई में 50 से नीचे का कोई भी आंकड़ा अर्थव्यवस्था और किसी विशेष सेक्टर की बेहद बुरी अवस्था का संकेत होता है। अगले कुछ महीनों तक इसमें कुछ सुधार दिखा, लेकिन जैसे ही इस साल जुलाई में जीएसटी लागू किया गया यह फिर से पटरी से उतर गया और 46 पर पहुंच गया। हालांकि बाद के महीनों यानी अगस्त और सितंबर में हल्का स्थायित्व दिखा, लेकिन नवंबर 2017 में इसके आंकड़े 48.5 पर पहुंच गए। अब इस महीने तो कोई ऐसा बड़ा कदम भी नहीं उठाया गया था जिसके आधार पर कहा जाए कि इस वजह से ऐसा हुआ। हकीकत यह है कि दरअसल अर्थव्यवस्था बुरे हालत में है और ये सारे आंकड़े यही तस्वीर दिखा रहे हैं। मिंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जब पीएमआई सर्वे के आंकड़े आए तो एजेंसी ने कहा कि, “सर्वे पैनल में 15 फीसदी ने नए काम में कमी, जीएसटी का असर और कम होती मांग की जानकारी दी। इन आंकड़ों के लिए सर्वे में शामिल 5 में से 5 श्रेणियों, ट्रांसपोर्ट और स्टोरेज, कंज्यूमर सर्विस, सूचना और संचार और रियल एस्टेट बिजनेस सर्विस में मांग और नए काम की कमी सामने आई।” पीएमआई आंकड़े स्पष्ट दर्शाते हैं कि अर्थव्यवस्था कमजोर मांग और ग्राहकों की जबरदस्त कमी से जूझ रही है। तो क्या इसका अर्थ यह निकाला जाए कि नोटबंदी और जीएसटी के दीर्घकालीन असर सामने आ रहे हैं? क्या अर्थव्यवस्था की असली तस्वीर पेश करने के लिए असंगठित क्षेत्र की हालत पर भी ध्यान दिया गया है? फिच और पीएमआई के आंकड़ों ने तो साफ कर दिया कि मांग में कमी आ चुकी है। लेकिन, आरबीआई की मौद्रिक नीति कमेटी यानी एमपीसी के छह सदस्य अगर यह कहते हैं कि दरों में कटौती न करते हुए इन्हें ऐसा ही रहने दिया जाए, तो सरकार के सामने मुंह दिखाने लायक भी कुछ नहीं बचता। सिवाय इसके कि सामने से आ रही मुसीबत में चुंधियाई आंखों के साथ स्तंभित खड़े रहें। अब ऐसे बाजार में जहां मांग ही नहीं है, आरबीआई इस बात को लेकर चिंतित है कि आने वाले दिनों में रिटेल मंहगाई दर ऊपर जाएगी। आरबीआई के पास इस तर्क का कोई ठोस कारण जरूर होगा। लेकिन कुछ दूसरे कारण भी हैं जो आरबीआई को मजबूर कर रहे हैं। वित्तीय घाटे के मोर्चे पर सरकार के पास अब कोई गुंजाइश नहीं बची है। आरबीआई ने साफ कह दिया है कि तेल की कीमतें बढ़ रही हैं और सरकार के लिए यह एक और नए संकट की आहट है। पहली अगस्त से 29 नवंबर के बीच भारतीय बास्केट में कच्चे तेल की कीमतं में 22 फीसदी का उछाल आया है, और वित्तीय घाटे में सरकार के पास अब जगह बची ही नहीं है। तो क्या करेगी सरकार? सरकारी खजाने को भरने के लिए उसके पास सिवाय टैक्स बढ़ाने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है। इसका नतीजा होगा कि महंगाई दर में उछाल आएगा और इसके 4.3 से 4.7 फीसदी पहुंचने की आशंका है। गौरतलब है कि अक्टूबर 2017 में रिटेल मंहगाई दर 3.58 फीसदी थी। अभी कहना थोड़ा जल्दबाजी लग सकता है, लेकिन हकीकत तो यही है। जो हालत इस समय है, उसके आशंका यही है कि गुजरात चुनाव खत्म होते ही पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बढ़ोत्तरी की जाएगी। सरकार की इस मंशा के संकेत इस बात से लगते हैं कि उसने पीआईबी की बेवसाइट पर रोज दिए जाने वाले भारतीय बास्केट में कच्चे तेल के दाम देना बंद कर दिया है, और इसे ब्लॉक कर दिया है। इसके अलावा यह भी साफ है कि जीएसटी से होने वाले राजस्व में भी अक्टूबर में 10 फीसदी के आसपास कमी आई है और नवंबर के आंकड़ों में तो इसके और कम होने की आशंका है, क्योंकि पिछले महीने ही बहुत सारी वस्तुओँ और सेवाओँ पर दरें कम करने की घोषणा की गई थी। तो इस सबका कुल अर्थ क्या है? नोटबंदी और जीएसटी के बाद ग्रोथ में जो सुधार होने के दावे किए जा रहे थे, वे सब खोखले साबित हो चुके हैं। चूंकि मांग कम है और राजस्व कम होने के साथ ही वित्तीय घाटे में गुंजाइश खत्म हो चुकी है, तो खर्च पूरे करने के लिए सरकार टैक्स बढ़ाने पर मजबूर होगी। और इसका असर यह होगा कि मांग में और कमी होगी और विकास की रफ्तार उल्टे गियर में जाएगी। यहां मर्फी लॉ याद आता है। जो कहता है कि, अगर बुरी हालत को नहीं सुधारा गया, तो वे विकराल रूप से खराब हालत सामने आते हैं। ऐसे में अगर मृग चुंधियाई आंखों के साथ बीच सड़क पर स्तंभित ही खड़ा रहेगा, तो सब जानते हैं कि क्या होगा। साभार नवजीवन 
राजीव रंजन तिवारी (संपर्कः 8922002003)
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