
‘नोटबंदी से कम हुई वेश्या वृत्ति’, बोले केंद्रीय मंत्री रवि शंकर प्रसाद
केंद्रीय मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने बुधवार को कहा कि नोटबंदी के कारण देशभर में वेश्यावृत्ति और मानव 
ममता ने ट्विटर पर लगाई काली डीपी, कहा- हादसा था नोटबंदी
कोलकाता में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने नोटबंदी को ‘डिमो-डिजॉस्टर’ (नोटबंदी हादसा) बताते 
तबाह हो गई मुरादाबाद की अर्थव्यवस्था, सिसककर मरते लोग
नोटबंदी का एक साल हो गया। इस फैसले ने मुरादाबाद की अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर दिया। जो कल तक दूसरों को रोजगार देते थे, आज बेरोजगार हैं और किसी तरह सिसक-सिसक कर जिंदगी गुजार रहे हैं। आरिफ की हालत देखकर कोई नहीं कह सकता कि कभी इस शख्स के कारखाने में 6-7 लोग काम करते थे और आरिफ खुद 40-50 हजार रुपए महीना कमाता होगा। नोटबंदी के एक साल बाद हालत यह है कि आज उसके पास अपने हाथ पर प्लास्टर लगवाने के लिए 1500 रुपए की मामूली रकम भी नहीं है। मजबूरी में वह एक सस्ते से जर्राह (झोलाछाप डॉक्टर) से अपने हाथ की मरहम-पट्टी करवा रहा है। नोटबंदी का फैसला आरिफ के लिए ऐसी परेशानियों और मुसीबतें लेकर आया कि वह देखते ही देखते लोगों को नौकरी और वेतन देने वाले से नौकरी मांगने और वेतन लेने वाला बन गया। हमने जब उससे बात की तो वह अपने हालात बताने में झिझक रहा था। आखिरकार उसका गम छलक उठा। उसने बताया:
“पहले मैं 40 से 50 रुपए हजार महीना कमा लेता था। मेरे पास 6-7 लोग काम करते थे, जो मेरे कारखाने से 15 हजार रुपए महीने तक कमाते थे। आज हालत यह है कि मैं खुद एक कारखाने में 10 हजार रुपए महीने पर काम कर रहा हूं। एमबीए कर रही मेरी बेटी की शिक्षा बीच में ही छूट गई। बारहवीं में पढ़ने वाले बेटे की पढ़ाई भी प्रभावित हुई। इस सबके लिए सिर्फ और सिर्फ नोटबंदी जिम्मेदार है। उन दिनों मैं दिन में बैंकों की लाइन में लगता, नकद निकालकर अपने साथ काम करने वालों को वेतन देने का इंतजाम करता। कर्मचारियों के बैंक खाते थे नहीं, कोई चेक लेने को तैयार नहीं था। कच्चा माल भी सिर्फ और सिर्फ नकद में मिल रहा था। जिन लोगों से पैसे लेने थे, उनकी हालत नकद देने की थी नहीं, सब चेक दे रहे थे। इस सबका असर यह हुआ कि धीरे-धीरे काम बंद हो गया। कुछ महीनों तक तो जमा और बचत में से खाया, लेकिन जब वह भी खत्म हो गई तो फिर मजबूरी में कारखाना बंद करके बच्चों के पेट के लिए एक छोटी सी नौकरी करना पड़ी।” आरिफ के कारखाने में बिजली का कमर्शियल कनेक्शन लगा हुआ है। उसे उम्मीद है कि अच्छे दिन फिर आएंगे और वह फिर से अपना कारखाना शुरु कर पाएगा। इसलिए उसने अभी तक पॉवर कनेक्शन नहीं हटवाया है। बिजली का बिल चुकाने के लिए उसने अपने कारखाने की जगह किसी और को पांच हजार रुपए महीने पर किराए पर दे दी है। आरिफ अकेला नहीं है जिसकी जिंदगी नोटबंदी से बेहाल हो गई है। मुरादाबाद में आरिफ जैसों की फौज है। ऐसे बेशुमार लोग हैं जो कल तक खुशहाल जिंदगी गुजार रहे थे, लेकिन आज वह किसी तरह जैसे-तैसे वक्त गुजार रहे हैं। कुछ तो ऐसे हैं जिन्होंने कारखाने बंद करके फलों के ठेले लगाना शुरु कर दिए हैं, कुछ छिप-छिपकर रिक्शा चला रहे हैं और कुछ छोटी-मोटी नौकरियां कर रहे हैं। ये सारे वे लोग हैं जो समाज में अपनी असली हालत भी संकोच और सम्मान की खातिर बता भी नहीं सकते। आर्थिक रूप से तो इन लोगों की हालत खराब हुई ही है, लेकिन हौसला टूटने से ये लोग पूरी तरह बिखर चुके हैं।
मोहम्मद अकबर का ‘अकबर हैंडीक्राफ्ट्स’ के नाम से अपना कारखाना था। लेकिन नोटबंदी के बाद हालात ने ऐसी करवट ली कि उन्हें अपना कारखाना बंद करना पड़ा और आज वे ‘जैनब ओवरसीज़’ नाम की कंपनी में 12 हजार रुपए महीने की नौकरी करते हैं। “कल तक मेरे कारखाने में 20 से ज्यादा लोग काम करते थे और कोई भी 12 हजार रुपए से कम वेतन वाला नहीं था, लेकिन अब मैं खुद नौकरी कर रहा हूं। अभी मेरे पास बैंक से मैसेज आया है कि मैंने जो ओवरड्राफ्ट लिया था, उसका ब्याज ही 42 हजार रुपए जमा कराना है। जब मेरा काम अच्छा चल रहा था, तो बैंक ने मुझे ओवरड्राफ्ट की सुविधा दी थी। लेकिन नोटबंदी के बाद मैं खुद सड़क पर आ गया हूं।” यह बताते हुए अकबर दुखी हो जाते हैं और कहते हैं कि उनके यहां काम करने वाले बहुत से लोग काम की तलाश में नेपाल की राजधानी काठमांडु चले गए हैं। अकबर के मुताबिक नोटबंदी के बाद सारा काम चेक से होने लगा और नकदी का काम ही खत्म हो गया, जिसके चलते काम धंधे बंद हो गए, क्योंकि छोटा काम करने वालों को तो सिर्फ और सिर्फ नकद में ही लेनदेन करना होता है क्योंकि उनके पास तो बैंक अकाउंट होते ही नहीं है। इसी तरह नोमान हैं, जिन्हें अपनी दो बहनों की शादी की शादी करनी है। वह भी एक साल पहले तक एक कारखाना चलाते थे, जो उनके पिता ने स्थापित किया था। लेकिन आज उन्हें हर चीज़ के लिए समझौता करना पड़ रहा है। वे कहते हैं कि, “घर चलाने के लिए जहां से दो पैसे की कमाई होती है, वह कर लेता हूं। सबसे ज्यादा फिक्र मुझे अपनी दो बहनों की है क्योंकि मां-बाप के इंतिकाल के बाद उनकी जिम्मेदारी मेरे ऊपर ही है। हमें गुमान नहीं था कि ऐसे दिन भी देखने पड़ेंगे। हमारी खुशहाल जिंदगी को किसी की नजर लग गई।”
हाजी अकबर अपना कारखाना भी चलाते हैं और माल को एक्सपोर्ट भी करते हैं। उनका कहना है कि, “मुरादाबाद का मजदूर तबका, कारखानों के मालिक, एक्सपोर्टर्स और आम आदमी, सब के सब नोटबंदी के बाद से इतने परेशान हैं कि उन्हें समझ नहीं आ रहा कि उनका और उनके बच्चों का भविष्य क्या होगा।” वे कहते हैं कि यह वही मुरादाबाद है जहां से देश को हर साल 700-800 करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा मिलती थी, लेकिन आज यह सब ठप हो गया है। मुरादाबाद में बनने वाले पीतल के सामान का 40 फीसदी देश में बिकता है और 60 फीसदी विदेशों को निर्यात किया जाता रहा है, लेकिन दोनों ही बुरी तरह प्रभावित हुए हैं, क्योंकि छोटे कारखाने बंद हो गए हैं, कैश मार्केट में है नहीं, और जब माल ही समय पर तैयार नहीं होगा तो एक्सपोर्ट के ऑर्डर भी कैंसिल हो रहे हैं। कुल मिलाकर नोटबंदी ने मुरादाबाद की पूरी अर्थव्यवस्था और सामाजिक जीवन को तहस-नहस कर दिया है। नोटबंदी के समय तनाव भरे दिन याद करके हाजी अशरफ बताते हैं, “मैंने चार महीने तक एक लड़के को सिर्फ इसलिए वेतन दिया कि वह दिन भर बैंकों की लाइन में लगे और पैसे निकाल सके, जिससे मैं समय पर अपने कर्मचारियों को वेतन दे सकूं। यह काम इतना मुश्किल था कि उस लड़के की अकसर बैंक अफसरों और कर्मचारियों से झड़प तक होती थी।” हाजी अशरफ बताते हैं कि मुरादाबाद में करीब 20 हजार छोटे-बड़े कारखाने होंगे, जिनमें से 20 फीसदी से ज्यादा नोटबंदी के कारण बंद हो गए हैं। नोटबंदी के फैसले से क्षुब्ध मुरादाबाद व्यापार मंडल के अध्यक्ष अजय अग्रवाल कहते हैं कि, “नोटबंदी से कालाधन तो नहीं सामने आया, हां यह जरूर हुआ कि आम आदमी और व्यापारी बिरादरी पूरी तरह बरबाद हो गई। नकद की कमी बाजारों में साफ नजर आती है। आज व्यापारी हाथ पर हाथ धरे बैठा है। नोटबंदी की वजह से 50 फीसदी कारोबार तबाह हो गया।” मुरादाबाद में जो रौनक नजर आती थी वह अब कहीं नहीं दिखती। पूरे माहौल में एक मायूसी और निराशा है। जो लोग कल तक दूसरों को रोजगार दे रहे थे, आज खुद रोजगार की तलाश में भटक रहे हैं। जब छोटी इकाइयां बंद हो रही हैं तो कैसे कोई युवा, सरकार के स्टार्ट अप इंडिया कार्यक्रम से कोई उम्मीद कर सकता है। नोटबंदी के दौरान कई लोगों ने अपने प्रियजनों को खोया है, लेकिन आरिफ, अकबर और बेशुमार दूसरे लोगों की आंखों में जो गम और मायूसी है वह साफ बताती है कि ये लोग रोज़ सिसक-सिसक कर मर रहे हैं। और इसके लिए सिर्फ और सिर्फ नोटबंदी का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का फैसला जिम्मेदार है। साभार नवजीवन
नोटबंदीः कितना महंगा पड़ा यह पागलपन?
मोहन गुरुस्वामी
2011 के प्यू रिसर्च सर्वे के अनुसार 1955 या उससे पहले पैदा हुए 95% अमेरिकी लोगों का कहना था कि वे ठीक से याद कर बता सकते हैं कि वे उस समय कहां थे या क्या कर रहे थे, जब केनेडी की हत्या हुई थी। किसी घटना का गहरा आघात हमारी यादों में उस दिन को स्पष्टता से उकेर देता है। इंदिरा गांधी की 31 अक्टूबर, 1984 को हुई हत्या ऐसा ही एक और दिन है। हम में से ज्यादातर लोग जो उस समय थे, उस दिन की छोटी से छोटी बात को याद कर सकते हैं। आज भी मैं उस दिन की हर घटना और बातचीत को याद कर सकता हूं। पिछले साल 8 नवंबर को लागू हुई नोटबंदी का दिन भी ऐसा ही दिन बन गया है जो ज्यादातर लोगों के दिलोदिमाग में जिंदा है। मैं कुछ दोस्तों के साथ सिकंदराबाद में अपने घर पर बैठा हुआ था, जब मैंने सुना कि प्रधानमंत्री देश को संबोधित करने जा रहे हैं।मैं और मेरे दोस्त टीवी के आसपास इकट्ठे हो गए और हमने नरेंद्र मोदी को नोटबंदी की घोषणा करते हुए सुना। उन्होंने कहा, “भाईयों और बहनों, कालाधन और भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए हमने तय किया है कि वर्तमान में चल रहे 500 और 1000 रुपये के नोट आज 8 नवंबर 2016 की आधी रात से वैध नहीं रहेंगे।” मेरे पास जितने भी 500 और 1000 रुपये के नोट थे, वे उस दिन मेरी जेब में थे। नोट ज्यादा तो नहीं थे, लेकिन यह बात परेशान कर रही थी कि वे अब किसी काम के नहीं रह गए हैं। मुझे यह भी पता चला कि अब अपने बचत खाते से मैं हर हफ्ते सिर्फ 4000 रुपये निकाल सकता हूं। अचानक से मैंने खुद को न सिर्फ नंगा और निरीह, बल्कि बुरी तरह से अपमानित महसूस किया।
लगातार किए गए शोध से यह सामने आया है कि प्रत्येक वर्ष अघोषित आय के लगभग आधे धन का निवेश संपत्ति में किया जाता है और लगभग 44-46% का निवेश सोने और आभूषणों में और बाकी को अवैध रूप से विदेश भेज दिया जाता है। सिर्फ 4-6 % ही नकद के रूप में रखा जाता है। उस रात हमारे साथ खाने पर मौजूद एक व्यक्ति ऐसे भी थे, जिनके बारे में हमें पता था कि उनके पास बहुत पैसा है। लेकिन वह थोड़ा सा भी परेशान नहीं नजर आ रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि क्या आपको इससे नुकसान होगा? उन्होंने कहा, “आपसे जरा भी ज्यादा नहीं।” फिर उन्होंने कहा, ‘’कुछ चीजें मैं कभी नहीं भूलूंगा। वैसे लोग जिनके पास बहुत सारा दो नंबर का पैसा है,वे मूर्ख बन कर कभी अमीर नहीं बनते। जिस धन पर आयकर का भुगतान नहीं किया गया होता है, उसे हमेशा देश की वित्तीय व्यवस्था की पहुंच से बाहर रखा जाता है।‘’ मुझे पता था कि यह बात सही थी क्योंकि लगातार किए गए शोध से यह सामने आया है कि प्रत्येक वर्ष अघोषित आय के लगभग आधे धन का निवेश संपत्ति में किया जाता है और लगभग 44-46% का निवेश सोने और आभूषणों में और बाकी को अवैध रूप से विदेश भेज दिया जाता है। सिर्फ 4-6 % ही नकद के रूप में रखा जाता है। सरकार ने अचानक से नोटबंदी कर व्यवस्था में मौजूद नकद का लगभग 87% या 15.44 लाख करोड़ रुपये को सोख लिया। प्रधानमंत्री ने देश को ‘काले धन’ से निजात दिलाने के लिए जब नोटबंदी का ऐलान किया तो सारे देश ने इसका स्वागत किया। यहां काले धन से उनका तात्पर्य वैसी आमदनी और वित्तीय लेन-देन से था जिसके लिए देश को टैक्स का भुगतान नहीं किया गया था। नोटबंदी के लिए सरकार ने एक और वजह यह बताई कि वह नकली नोटों के जाल और आतंकवाद के वित्तपोषण के तंत्र को तोड़ना चाहती थी।
निस्संदेह, 1000 रुपये के नकली नोटों के साथ वास्तव में समस्या थी। 2014-2015 में 22% की दर से बढ़कर इनकी संख्या 6 लाख पहुंच गई। 2015-2016 में पकड़े गए नकली नोटों में 100 के 35%, 500 के 415 और बाकी 1000 के नोट थे। इस तथ्य को जहन में रखें कि इस साल अप्रैल में 500 के 1646 करोड़ और 100 के 1642 करोड़ नोट चलन में थे। इससे पता चलता है कि इसके मुकाबले नकली नोट बहुत कम संख्या में थे और व्यवस्था को कुछ खास नुकसान भी नहीं पहुंचा रहे थे। उच्च मूल्य के नोटों को व्यवस्थित ढंग से बदलने के लिए बेहतर तरीका ढूंढा जा सकता था। अब आरबीआई ने रिपोर्ट दी है कि पिछले साल की तुलना में वित्त वर्ष 2017 में नकली नोटों की पहचान 20.4 प्रतिशत अधिक रही है। वृद्धि के बावजूद नकली नोटों का कुल मूल्य 42 करोड़ रुपए के बराबर रहा। तो क्या यह बात मुसीबत मोल लेने लायक थी? यह साफ है कि सरकार ऐसे किसी बड़े ‘सुधार’ के लिए तैयार नहीं थी। जब नोटों की कमी हो गई तो आरबीआई और बैंकों के पास दूसरे मूल्य के इतने नोट नहीं थे जिनसे किसी तरह भी कमी को दूर किया जाए। पूरा राष्ट्र की वित्तीय व्यवस्था चरमरा चुकी थी, इसकी वजह से उन करोड़ों लोगों को तकलीफ झेलनी पड़ी जो रोज कमाते-खाते थे। यह साफ है कि सरकार ऐसे किसी बड़े ‘सुधार’ के लिए तैयार नहीं थी। जब नोटों की कमी हो गई तो आरबीआई और बैंकों के पास दूसरे मूल्य के इतने नोट नहीं थे जिनसे किसी तरह भी कमी को दूर किया जाए। पूरा राष्ट्र की वित्तीय व्यवस्था चरमरा चुकी थी, इसकी वजह से उन करोड़ों लोगों को तकलीफ झेलनी पड़ी जो रोज कमाते-खाते थे या जल्द खराब हो जाने वाले सामानों का व्यापार करते थे। किसानों को भी काफी परेशानी उठानी पड़ी जिन्हें खाद्य पदार्थों, फलों और सब्जियों की रोपाई-कटाई के लिए निवेश करना था।
उच्च मूल्य के नोटों की जगह नए नोट लाने में आरबीआई को कई महीने लग गए। तब तक हाहाकार जारी रहा। इस लंबे हाहाकार का आर्थिक नुकसान तो होना ही था। राजनेता से भी ज्यादा एक बड़े अर्थशास्त्री के रूप में पहचाने जाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने यह हिसाब लगाया था कि इससे देश का जीडीपी 2 फीसदी तक गिर जाएगा। अब वे सही साबित हो चुके हैं। जीडीपी के आधिकारिक आंकड़े इसे पुख्ता कर रहे हैं। नए 500 और 2000 के नोटों में खर्चे हुए लगभग 36 हजार करोड़ के अलावा, जीडीपी में हुए नुकसान की कीमत 3 लाख करोड़ रुपए होंगे। अब ये पैसे कभी भी वापस नहीं आएंगे। यह पूरी तरह एक पागलपन था। अब देखिए कि इससे कितना बड़ा नुकसान हुआ। भारत में तकरीबन 45 करोड़ लोगों की श्रम शक्ति है। इनमें से सिर्फ 7 फीसदी संगठित क्षेत्र में हैं। संगठित क्षेत्र में 3 करोड़ 5 लाख लोगों में से 2 करोड़ 40 लाख लोग सरकार या सरकार द्वारा संचालित कंपनियों में काम करते हैं, बचे हुए लोग निजी क्षेत्र में कार्यरत हैं। 41.5 करोड़ लोगों को असंगठित क्षेत्र में रोजगार मिला हुआ है जिसमें लगभग आधे लोग कृषि में लगे हुए हैं, और 10-10 फीसदी निर्माण क्षेत्र, लघु उद्योग और खुदरा व्यापार में काम करते हैं। यह मुख्य रूप से रोज कमाने-खाने वाले लोग हैं और इनकी आय सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम भत्ते से भी कम है। भले ही देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह नहीं रुकी हो, लेकिन करोड़ों घरों में नोटबंदी के तुरंत बाद चुल्हा नहीं जल रहा था। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि रोजाना मजदूरी कमाने वालों को काम के पूरे क्या, आधे पैसे भी नहीं मिल रहे थे। और जब उन्हें पुराने नोटों में पैसे मिले भी और वे बैंक में घुस भी गए तो बैंक के पास उन्हें बदलने के लिए नए नोट नहीं थे।
सरकार ने 500 और 1000 के नोटों में मौजूद जिस कथित ‘काले धन’ को खत्म करने की ठानी थी, वे नोट दरअसल रोजमर्रा के लेन-देन में इस्तेमाल होने वाले पैसे थे। सरकार जिस पैसे को ढूंढ़ रही थी, वह व्यापारियों, नेताओं और नौकरशाहों के पास जमा उस पैसे का एक छोटा हिस्सा था। लेकिन उसे सामने लाने की घोषित बेचैनी में सरकार ने पूरी जनता को मुश्किल में डाल दिया। और जरा इसे देखिए, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (पिछले साल लगभग 44 करोड़ डॉलर) का कम से कम 55 फीसदी हिस्सा भारतीयों का पैसा है जो टैक्स चोरी से घूम-फिर कर अर्थव्यवस्था में शामिल हो गया। क्या सरकार अब इन ईसीबी से पूछेगी कि उस पैसे का स्त्रोत क्या है? ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि बहुत सारा नकद ‘काला धन’ बैंकों में वापस नहीं आएगा। उन्हें उम्मीद थी कि तकरीबन एक तिहाई नोट वापस नहीं आएंगे जो लगभग 4 लाख करोड़ रुपए होते। उस पैसे से सरकारी बैंकों के नुकसान की भरपाई की जा सकती थी जो बैंकों द्वारा दिए गए कर्ज की वजह से हुआ था। अक्टूबर में जारी आरबीआई की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक, 98.96 फीसदी 500 और 1000 के पुराने नोट बैंकों में वापस आ गए। इस आर्थिक हादसे का पूर्वानुमान लगाने में असफल प्रधानमंत्री ने एक नया गीत गाना शुरू कर दिया। उन्होंने चीखना शुरू किया कि वे गरीबों की एक बहुत बड़ी आबादी के लिए लड़ रहे हैं जिन्हें उच्च वर्ग के द्वारा दशकों के लूटा गया है। उन्होंने उच्च वर्गों का चरित्र हनन किया और एक वर्ग-युद्ध की पहली गोली चला दी। सौभाग्य या दुर्भाग्य से उनके सबसे बड़े समर्थक वे लोग हैं जिनके पास सबसे ज्यादा ‘काला धन’है। नोटबंदी के बाद के दिनों में मोदी सरकार एक अप्रत्याशित लाभ का हवाला देने लगी। ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि बहुत सारा नकद ‘काला धन’ बैंकों में वापस नहीं आएगा। उन्हें उम्मीद थी कि तकरीबन एक तिहाई नोट वापस नहीं आएंगे जो लगभग 4 लाख करोड़ रुपए होते। उस पैसे से सरकारी बैंकों के नुकसान की भरपाई की जा सकती थी जो बैंकों द्वारा दिए गए कर्ज की वजह से हुआ था। अक्टूबर में जारी आरबीआई की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक, 98.96 फीसदी 500 और 1000 के पुराने नोट बैंकों में वापस आ गए। प्रतिबंधित नोटों में तकरीबन 15.28 लाख रुपए के नोट आरबीआई को मिल गए। 15.44 लाख रुपए के अवैध नोट 8 नवंबर 2016 तक बाजार में थे। इससे साफ है कि नोटबंदी का पूरा उद्देश्य ही असफल हो गया और यह पूरा कदम अर्थव्यवस्था के साथ एक भीषण छेड़छाड़ से कम नहीं था। साभार नवजीवन
राजीव रंजन तिवारी (संपर्कः 8922002003)
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