राहुल पांडे
नई दिल्ली। गुजरात में दिया गया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भाषण उस उतावलेपन की तरफ इशारा करता है जो गुजरात में सत्ताधारी बीजेपी महसूस कर रही है। गुजरात की हार 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी के जीतने की संभावना को नष्ट कर सकती है और इसलिए उनके पास चिंतित होने की वजहें हैं। गुजरात मॉडल की सफलता ने मोदी को लेकर एक मिथक बना दिया था और उसने 2014 के लोकसभा चुनावों में उन्हें जीतने में काफी मदद की, लेकिन आने वाले विधानसभा चुनावों में जीत के लिए शायद वह काफी नहीं होगा। मोदी और उनकी टीम ने ‘गुजराती अस्मिता’ समेत लगभग अपने सारे पत्ते खोल दिए हैं और अब उनके पास आजमाने के लिए कुछ ही नुस्खे बचे हैं क्योंकि 2017 के गुजरात चुनाव में नोटबंदी और जीएसटी बड़े मुद्दे हो सकते हैं।
गुजरात में बीजेपी का दबदबा उनके मजबूत सांगठनिक ढांचे और शहरी गुजरात में उनके जनसमर्थन की वजह से बना था, खासतौर पर अहमदाबाद, राजकोट, बड़ोदरा और सूरत जैसे मुख्य शहर इसमें शामिल थे। इन जिलों में 61 विधानसभा सीटें हैं और बीजेपी ने पिछली बार उनमें से 48 सीटें और कांग्रेस ने 12 सीटें जीती थीं। इन चार जिलों में बीजेपी को 19 फीसदी ज्यादा समर्थन हासिल हुआ 2014 में भी यही हालात बने रहे जब बीजेपी की पूरे राज्य में जबरदस्त जीत हुई। इसकी तुलना में बाकी के राज्य में 121 सीटें हैं और पिछली बार बीजेपी और कांग्रेस के बीच उनमें कड़ा मुकाबला हुआ। बीजेपी को 67 और कांग्रेस को 459 सीटें मिलीं। 2012 में इन दोनों पार्टियों के वोट में सिर्फ 4 फीसदी का अंतर था। उस वक्त से अब तक वह अंतर काफी कम हो चुका है, पंचायत चुनाव में कांग्रेस का अच्छा प्रदर्शन इसका उदाहरण है।
यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि इस बार बीजेपी को ग्रामीण क्षेत्रों में और ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा क्योंकि विजय रूपानी और आनंदीबेन पटेल मुख्यमंत्री के तौर पर कोई खास असरदार साबित नहीं हुए। बीजेपी को जिस चीज ने सबसे ज्यादा चिंता में डाल रखा है वह राज्य के शहरी हिस्सों में बदला हुआ राजनीतिक मूड है, अहमदाबाद और सूरत में तो जीएसटी और नोटबंदी की वजह से मध्यवर्गीय जनसमर्थन को भारी धक्का लगा है। व्यापारियों का एक बहुत बड़ा तबका आंदोलन के लिए सड़कों पर उतर चुका है और बीजेपी का परेशान होना जायज है। राज्य की आबादी का 15 फीसदी हिस्सा पटेलों का है और यह बीजेपी का मुख्य जनाधार है। 2012 में 70 फीसदी पटेलों ने बीजेपी को वोट किया था। हालांकि केशुभाई पटेल की गुजरात परिवर्तन पार्टी ने 2012 में बीजेपी का खेल बिगाड़ने की धमकी दी थी, लेकिन उन्हें सिर्फ 3.63 फीसदी वोट और 2 सीट ही मिल पाए। 167 सीटों पर उन्होंने उम्मीदवार खड़े किए थे जिनमें 159 सीटों पर उनकी जमानत जब्त हो गई।
लेकिन पाटीदार आंदोलन केशुभाई पटेल से ज्यादा बड़ा खतरा है। यह तब शुरू हुआ था जब चुनाव की कोई आहट नहीं थी और जो मुद्दे उठाए गए थे वे जनता को सही लगे। हार्दिक पटेल का जिस तरह से दमन हुआ उसने पाटीदार आंदोलन को एक ऐसी स्थिति में ला दिया जिसकी वजह से पटेलों की बहुत बड़ी आबादी अब बीजेपी को अपनी स्वाभाविक पार्टी के तौर पर नहीं देखती। यह सारी बातें पहले से अपेक्षित हैं और बीजेपी ने अपने चुनावी गणित में इन बातों का ध्यान रखा होगा। 2017 के चुनावों में बीजेपी के मुद्दे नहीं चलेंगे और इसे लेकर बीजेपी को परेशान होना चाहिए। पिछले तीन चुनावों को मैंने नजदीक से देखा है और उस आधार पर कहा जा सकता है कि ऐसा पहली बार है जब बीजेपी को विकास के सवाल पर घेरा गया है। बीजेपी ने हमेशा से सांप्रदायिक आधार पर चुनावों में गोलबंदी की कोशिश की है और उस पर विकास की चॉकलेटी चादर चढ़ाई है। इसकी वजह से बीजेपी का शहरी और ग्रामीण जनाधार बना रहा और वह खुलकर सांप्रदायिक दिखने से भी बचती रही।
यह पिछले 15 वर्षों में पहली बार है जब बीजेपी बिना नरेन्द्र मोदी की कमान के चुनाव लड़ रही है और फिर भी वह उम्मीद करेगी कि वह उनके नाम पर समर्थन जुटाने में कामयाब हो जाए। यह जितना दिखता है उससे ज्यादा मुश्किल होने वाला है। कांग्रेस के खिलाफ प्रधानमंत्री का चीखना भी इस बात को दिखाता है कि बीजेपी को इस बात से मतलब नहीं है कि राज्य का नेतृत्व समाधान नहीं, बल्कि समस्या है। गुजरात मॉडल की डुगडुगी विकास के दावे की वजह से बजी थी और सच्चाई यह है कि पिछले 5 साल में राज्य में कुछ भी नहीं हुआ है। नरेन्द्र मोदी 2012 का चुनाव जीतने के बाद ही 2014 के लोकसभा चुनाव के अभियान में लग गए थे और नया नेतृत्व कोई नई चीज राज्य में करने में असफल रहा है और इससे बीजेपी को दिक्कतें होने लगी हैं। प्रधानमंत्री द्वारा की गई कांग्रेस की आलोचना 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार में उनके दिए गए भाषणों से ही लिया गया है। लोग इसे पहले भी सुन चुके हैं और उन्होंने यह भी देखा है कैसे प्रधानमंत्री अपने वादों को पूरा नहीं कर पाए। उन्हें नए तरीकों की जरूरत है लेकिन जब लोग दबाव में होते हैं और नए विचार भी नहीं आते।
प्रधानमंत्री और अमित शाह जानते हैं कि गुजरात की जीत उनके लिए कितनी जरूरी है। 2017 में गुजरात में हार का मतलब यह होगा कि 2019 की उनकी महत्वाकांक्षाओं को धक्का लग जाएगा। इतना ही नहीं उनकी पार्टी में भी इससे बगावत के दरवाजे खुल सकते हैं। जीत का शायद उतना बड़ा मतलब नहीं होगा लेकिन हार उन्हें राजनीतिक रूप से नष्ट कर देगी। नरेन्द्र मोदी अपने गृह राज्य को बचाने के लिए अपना आजमाया हुआ पुराना हथियार इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है लेकिन यह काफी नहीं होगा। वह हमेशा से आक्रामक रहे हैं और इस खेल में माहिर हैं। रक्षात्मक मुद्रा अपनाना उनके बस की बात नहीं है, लेकिन यह सोचकर वे बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं कि आक्रामकता सबसे उम्दा बचाव है। साभार नवजीवन
गुजरात चुनाव को लेकर नर्वस हैं पीएम नरेन्द्र दामोदर दास मोदी!
'गुजरात गौरव यात्रा' के समापान पर प्रधानमंत्री मोदी सोमवार को गांधीनगर में थे. गुजरात चुनावों की तारीखों के ऐलान से पहले ये बीजेपी के कैम्पेन का एक तरह से आगाज़ था. वे कांग्रेस पर तल्ख दिखे. उन्होंने कहा, "जब जब गुजरात का चुनाव आता है, कांग्रेस को बुख़ार ज़्यादा आता है, तकलीफ़ ज़्यादा होती है." गुजरात में बीजेपी पिछले दो दशकों से सत्ता में है और विपक्ष की राजनीति में कांग्रेस का ग्राफ़ ऊपर-नीचे जाता रहा है. इस बार के विधानसभा चुनावों को कांग्रेस अपने राजनीतिक वनवास से वापसी के मौके के तौर पर देख रही है. गुजरात के मौजूदा हालात पर बीबीसी हिंदी के संवाददाता कुलदीप मिश्रा ने वरिष्ठ पत्रकार अजय उमट से इस बारे में बातचीत की. उमट ने कहा कि गांधीनगर की रैली में मोदी का जो लहज़ा था वो काफी आक्रामक था. उन्होंने पहली बार गुजरात में विकासवाद बनाम वंशवाद पर बात की. उन्होंने राहुल गांधी, सोनिया गांधी, जवाहरलाल नेहरू पर जमकर टिप्पणी की. उन्होंने कहा कि कांग्रेस तो पैदाइश से ही गुजरात के विकास के विरोध में है. गुजरात में पहली बार ऐसा हुआ है कि भाजपा ने अपना एजेंडा बदला है. सबसे पहले तो उनके चुनाव का जो कैंपेन था वो शुरू हुआ था कि गुजरात में कांग्रेस नहीं चाहिए. फिर बाद में जब लोगों ने कहा कि ये नकारात्मक कैंपेन है तो उसके बाद 'गरजे गुजरात' कैंपेन आया. उसके बाद उसका भी ट्वीटर पर काफी मज़ाक होने लगा तो फिर भाजपा ने 'अड़ीखम गुजरात' कहा. आज नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में जो आगे किया वो विकासवाद बनाम वंशवाद था. इस मुद्दे पर आक्रामक रहे लेकिन जीएसटी की बात आते ही बचाव मुद्रा में आ गए. उनका कहना था कि जीएसटी को लेकर सिर्फ भाजपा या भारत सरकार को बदनाम नहीं करना चाहिए. कांग्रेस की सरकार भी इसमें शामिल है. उन्होंने अपने व्यापारियों को साथ लेने की कोशिश की और कहा कि जीएसचटी आपको तंग करने के लिए नहीं है. जीएसटी हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था के विकास के लिए है. प्रधानमंत्री ने कहा कि कांग्रेस को गुजरात, सरदार पटेल और जनसंघ पसंद नहीं था. तो एक तरह से गुजरात बनाम कांग्रेस की बहस बनाने की कोशिश की? मोदी ने जवाहरलाल नेहरू की भर्त्सना की और कहा कि कांग्रेस ने सरदार पटेल के साथ अन्याय किया, मणिबेन पटेल के साथ अन्याय किया, मोरारजी देसाई के साथ अन्याय किया, बाबूभाई जसभाई पटेल के साथ अन्याय किया. यहां तक कि वो कहते गए कि माधव सिंह सोलंकी जो गुजरात के पू्र्व मुख्यमंत्री रह चुके हैं और जिनकी वजह से कांग्रेस को सबसे ज़्यादा 149 सीट मिली थीं, उनसे भी सोनिया गांधी ने बोफोर्स वाले मामले में इस्तीफ़ा ले लिया. ये सब कह कर मोदी जी ने ये बताने की कोशिश की कि गुजरात का कोई भी नेता होता है तो उसके साथ कांग्रेस अन्याय करती है. साथ ही गुजरात का कोई भी विकास प्रोजेक्ट हो चाहे वो नर्मदा प्रोजेक्ट हो या डैम बनाने की कोशिश हो, कांग्रेस की केंद्र सरकार इजाज़त नहीं देती थी इसलिए कांग्रेस गुजरात विरोधी है. तथ्यात्मक तौर पर क्या ये यकीन के काबिल है गुजरात की जनता के लिए कि कांग्रेस एक तरफ है और गुजरात एक तरफ? सोशल मीडिया में जिस तरह से भाजपा का मखौल उड़ रहा है तो कहीं ना कहीं सत्ता विरोधी रुझान गुजरात में दिख रहा है. प्रधानमंत्री जिस तरह एक महीने में 3 बार एक राज्य में आए हैं और 22-23 को फिर से आने वाले हैं तो ये कह सकते हैं कि भाजपा को भी ये चुनाव चुनौती भरा लग रहा है. इसलिए भाजपा कोई कसर छोड़ना नहीं चाहती. कई लोग कह रहे हैं कि योगी आदित्यनाथ या जो भाजपा के दूसरे नेता गुजरात में प्रचार के लिए पहुंच रहे हैं, उन्हें वहां अपेक्षित भीड़ नहीं मिल रही. सही बात है. जब नरेंद्र मोदी और अमित शाह की सभा होती है तो भाजपा का पूरा संगठन लग जाता है. जैसे आज भी गांधीनगर और अहमदाबाद के बीच जो घाटगाम था, वहां काफी भीड़ थी. लेकिन योगी आदित्यनाथ का जो रोड शो था दक्षिण गुजरात में, उसे कोई खास प्रतिक्रिया नहीं मिली. यही हाल राजनाथ सिंह और बाकी नेताओं का है. बीच में एक बात उठी थी कि हार्दिक पटेल और कांग्रेस में तालमेल हो गया है. एक बात साफ है कि हार्दिक पटेल भाजपा के खिलाफ अपने स्टैंड पर टिके हुए हैं और वो भाजपा को हराने में कांग्रेस की मदद भी करना चाहते हैं. ऐसा सभी आब्ज़र्व कर रहे हैं. एक इंटरव्यू में मैंने हार्दिक पटेल से इस बारे में पूछा भी था कि अगर उनके संगठन के लोग कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ना चाहें तो उनका रुख क्या होगा. इस पर हार्दिक का जवाब था कि वे इसका समर्थन करेंगे. जहां तक मेरी जानकारी है, हार्दिक के लोगों ने 20 टिकट मांगे हैं. लग रहा है कि 9-12 टिकट पर समझौता हो जाएगा. साभार बीबीसी
राजीव रंजन तिवारी (संपर्कः 8922002003)
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