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मीडिया के दमन का कानून लाकर क्या छिपाना चाहती हैं वसुंधरा राजे, पीयूसीएल देगा कोर्ट में चुनौती

यह भी पढ़ेंः कोर्ट को भी एफआईआर के लिए सरकार से पूछना होगा? 
नई दिल्ली। आखिर ऐसा क्या है जिसके खुल जाने के डर से राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार ऐसा विधेयक लेकर आ रही है जिसके पास होने के बाद राजस्थान के विधायकों, मंत्रियों, सांसदों और अफसरों के खिलाफ पुलिस या अदालत में शिकायत करना और उनकी जांच कराना मुश्किल हो जाएगा? या फिर सरकार किसी मीडिया हाऊस से हिसाब बराबर करना चाहती है, जो किसी भी मामले की खबर छापने या दिखाने पर जेल भेजने का प्रावधान किया जा रहा है? क्या वसुंधरा सरकार अदालतों को भी अपने अधीन ही करना चाहती है, जो ऐसी व्यवस्था की जा रही है कि किसी भी मामले की रिपोर्ट अब अदालत के दखल से भी नहीं दर्ज हो पाएगी? आईपीसी और सीआरपीसी की धाराओं के किए गए बदलाव की सूचना विधानसभा के जरिए बाहर आई, जहां सोमवार से शुरू हो रहे विधानसभा सत्र में इस अध्यादेश को पेश किया जाएगा। 6 सितंबर 2017 को इस अध्यादेश को तैयार करने से पहले सरकार ने विपक्षी नेताओं, विशेषज्ञों और जनता की राय लेने की भी जरूरत नहीं समझी। इसे कानून या किसी और विभाग की वेबसाइट पर भी नहीं डाला गया जिससे लोगों को इस बारे में पता चल पाता। इससे साफ हो जाता है कि विधानसभा में पूर्ण बहुमत के बल पर बीजेपी इसे चुपचाप पास करा लेना चाहती थी और मीडिया या लोगों को इसकी भनक भी लगने नहीं देना चाहती थी। विधेयक के पक्ष में तर्क दिया जा रहा है कि इसे ईमानदार अफसरों और नेताओं को बचाने के लिए लाया जाएगा।इसके साथ यह भी कहा जा रहा है कि 2013 में यूपीए द्वारा लाए गए भ्रष्टाचार निरोधक कानून में इन बातों को रखा गया था। हालांकि यह बात सच है कि इस तरह की बातें उस कानून में थीं, लेकिन वसुंधरा राजे सरकार उससे बहुत आगे चली गई है और ऐसे प्रावधानों को शामिल कर लिया गया है जिससे मीडिया का बुरी तरह दमन किया जा सकता है। इस बिल के प्रावधानों के अनुसार सांसदों-विधायकों, जजों और अफसरों को लगभग इम्युनिटी मिल जाएगी। इन लोगों के खिलाफ सरकार की मंजूरी के बिना कोई केस दर्ज नहीं कराया जा सकेगा। अगर सरकार इजाजत नहीं देती, तो 6 महीने यानी 180 दिनों के बाद सिर्फ अदालत के आदेश से ही किसी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई जा सकती है। एक तरह से देखा जाए तो अब कोर्ट भी सरकार से पहले कोई कदम नहीं उठा सकता और इससे सरकार की मर्जी के सर्वोपरि हो जाने का खतरा है। जब तक एफआईआर नहीं होती, प्रेस में इसकी खबर भी नहीं छप सकती और इसका उल्लंघन करने पर या प्रकाशित रिपोर्ट में उनका नाम लेने भर से पत्रकारों को दो साल सजा भी हो सकती है। यह सारे प्रावधान सेवानिवृत अफसरों पर भी लागू होंगे। इस अध्यादेश की खबर लीक होने के बाद मीडिया और सिविल सोसायटी के लोगों में काफी आक्रोश है। वे इस बात से चकित हैं कि सरकार ऐसा कोई कदम उठाने के बारे में सोच भी कैसे सकती है। वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने ट्वीट कर इस अध्यादेश की तुलना रिपब्लिक ऑफ नार्थ कोरिया से की है। प्रेस को भेजे एक पत्र में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने कहा है कि इस पूरे वाकये से पता चलता है कि राज भवन ने जानबूझकर इस अध्यादेश से जुड़ी जानकारी लोगों तक पहुंचने नहीं दी और अध्यादेश से संबंधित प्रावधानों को वेबसाइट पर अपडेट नहीं किया। पीयूसीएल ने यह मांग की है इस अध्यादेश को वापस लिया जाए और राजस्थान विधानसभा में इसे पास नहीं किया जाए। संगठन ने यह भी पूछा है कि आखिर कोर्ट का शक्ति को कम कर सरकार क्या छिपाने की कोशिश कर रही है? उन्होंने यह तय किया है कि वे इस गैर-कानूनी अध्यादेश के खिलाफ कोर्ट में अर्जी भी दाखिल करेंगे। साभार नवजीवन  
क्या कोर्ट को भी एफआईआर के लिए सरकार से पूछना होगा? 
देश के चर्चित पत्रकार रवीश कुमार के फेसबुक वाल से साभार लेकर द वायर हिन्दी यह रिपोर्ट प्रकाशित की है। लिखा गया है कि जयपुर से हर्षा कुमारी सिंह ने एनडीटीवी ख़बर पर एक रिपोर्ट फाइल की है. ख़बर न्यूज़ वर्ल्ड इंडिया ने भी इस बारे में लिखा है. मैंने विधेयक का प्रावधान तो नहीं पढ़ा है लेकिन मीडिया में आ रही ये ख़बरें डरे हुए प्रेस को और भी डराने वाली हैं. राजस्थान में वसुंधरा सरकार सोमवार से शुरू हो रहे विधानसभा के सत्र में एक ऐसा विधेयक लाने जा रही है जो सांसद, विधायक, जज और अफसरों को कानूनी कार्रवाई से कवच प्रदान करेगी. जजों के ख़िलाफ़ तो वैसे भी कोई न तो पब्लिक में और न ही मीडिया में बोलता है मगर जजों को इसमें जोड़ कर एक किस्म की व्यापकता का अहसास कराया जा रहा है. ये बिल पास हुआ तो बग़ैर सरकार की अनुमति के अफसरों के ख़िलाफ़ कोई एफआईआर नहीं होगी. 180 दिनों तक अनुमति नहीं मिलेगी तो कोर्ट के आदेश से एफआईआर होगी. 180 दिन लगाकर सरकार उन सबूतों के साथ क्या करेगी, यह बताने की ज़रूरत नहीं है. मतलब आपको इंतज़ार करना पड़ेगा कि सरकार 180 दिन के भीतर सारे सबूत मिटा दे, अपने अफसर को बचा ले और अनुमति भी न दे तब आप अदालत जाएंगे कि इस बचे खुचे मामले में कोई एफआईआर हो सकती है हुज़ूर? घोटाले की ख़बरों को बाहर आने से हर हाल में रोका जाए, इसका इंतज़ाम किया जा रहा है ताकि पब्लिक को बताया जा सका कि हमारी सरकार में तो घोटाला हुआ ही नहीं. फिर एफआईआर की व्यवस्था को ही मिटा देनी चाहिए. यही सुरक्षा या कवच आम नागरिकों को भी दे दीजिए. हर्षा ने लिखा है कि इस बिल के अनुसार किसी जज या अफसर की किसी कार्रवाई के ख़िलाफ़, जो कि उसने अपनी ड्यूटी के दौरान की हो, आप कोर्ट के ज़रिए भी एफआईआर नहीं करा सकते हैं. ऐसे मामलों में सरकार की मंज़ूरी लेनी होगी. प्रावधान देखकर ही और स्पष्टता आएगी लेकिन अगर ऐसा है तो क्या अदालत भी एफआईआर के लिए 180 दिनों तक इंतज़ार करेगी? क्या उसे भी पहले सरकार से पूछना होगा कि एफआईआर के आदेश दे या नहीं? क्या इसके ज़रिए लोकतंत्र के उन कार्यकर्ताओं को बांधा जा रहा है जो घोटालों का उजागर करते हुए कोर्ट चले जाते हैं और एफआईआर का आदेश तक ले आते हैं? इस प्रावधान का क्या तुक है कि जब तक एफआईआर नहीं होगी तब तक प्रेस में रिपोर्ट नहीं कर सकते हैं और ऐसे किसी मामले में नाम लिया तो दो साल की सज़ा हो सकती है. एक नागरिक के तौर पर आप सोचिए, इसके बाद आपकी क्या भूमिका रह जाती है? क्या सरकार का भजन करना ही आपका राष्ट्रीय और राजकीय कर्तव्य होगा? ऐसे कानून के बाद प्रेस या पब्लिक पोस्ट की क्या हैसियत रह जाएगी? आप क्या कहानी लिखेंगे कि फलां विभाग के फलां अफसर ने ऐसी गड़बड़ी की है, क्योंकि आप लिख देंगे कि समाज कल्याण विभाग के सचिव का नाम आ रहा है तो यह भी एक तरह से नाम लेना ही हो गया. धीरे-धीरे वैसे ही प्रेस पर नियंत्रण कायम होता जा रहा है. पूरा सिस्टम ढह चुका है. आप सिस्टम को लेकर सवाल नहीं करते हैं. इस नियंत्रण का नतीजा यह है कि अब ख़बरों में ख़बर ढूंढनी पड़ती है. दुर्घटना की ख़बरों के अलावा किसी ख़बर की विश्वसनीयता रह नहीं गई है. ये प्रेस से ज़्यादा नागरिकों की आज़ादी पर हमला है. प्रेस तो अपनी आज़ादी गंवा कर एडजस्ट हो ही चुका है. मालिकों और संपादकों की मौज है. जनता मारी जा रही है. वो कराह रही है मगर मीडिया में आवाज़ नहीं है. सरकारें ख़ुद से तो घोटाला पकड़ती नहीं हैं. प्रेस और नागरिक संगठनों के ज़रिये ही मामले सामने आते हैं. वे किसी अधिकारी की भूमिका को लेकर लगातार दबाव बनाते हैं तब जाकर सरकार एक ईंच हिलती है. क्या सरकारें मानने लगी हैं कि अधिकारी ग़लत नहीं हो सकते हैं. इस तरह के कानून खुलेआम बन रहे हैं. मालूम नहीं कि इस कानून की आलोचना की इजाज़त है या नहीं. किसी भी सरकार का मूल्यांकन फ्लाईओवर या हाईवे से नहीं होना चाहिए. सबसे पहले इस बात से होनी चाहिए कि उसके दौर में मीडिया या लोक संगठनों को बोलने लिखने की कितनी आज़ादी थी. अगर आज़ादी ही नहीं थी कि आप किस सूचना के आधार पर किसी सरकार का मूल्यांकन करेंगे? यही विधेयक अगर विपक्ष की कोई सरकार लाती तब भक्त लोग क्या कहते, तब बीजेपी के ही प्रवक्ता किस तरह के बयान दे रहे होते? अगर इसी तरह से अपनी आज़ादी गंवाते रहनी है तो मैं आपके भले के लिए एक उपाय बताता हूं. आप अख़बार ख़रीदना और चैनल देखना बंद कर दीजिए. मैं सात साल से चैनल नहीं देखता. बिल्कुल न के बराबर देखता हूं. ऐसा करने से आपका महीने का हज़ार रुपये बचत करेंगे. मीडिया का बड़ा हिस्सा कबाड़ हो चुका है, कृपया आप अपनी चुप्पी का कचरा डालकर इस कबाड़ को पहाड़ में मत बदलिए. साभार द वायर हिन्दी
राजीव रंजन तिवारी (संपर्कः 8922002003)
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