ग्लोबल हंगर इंडेक्स यानी दुनिया भर में भूखे लोगों की तादाद मापने वाला तरीका। इस इंडेक्स के ताज़ा आंकड़ों ने एक बार फिर भारत में पोषण और कुपोषण की समस्या को हमारे सामने ला खड़ा किया है। हालांकि इस मोर्चे पर सुधार के संकेत तो मिले हैं, लेकिन कुल मिलाकर हमारी यानी भारत की स्थिति इस मामले में और नीचे चली गई है। कुल 119 देशों की सूची में हमारा नंबर 100वां है, जो कि हमारे पड़ोसी नेपाल और बांग्लादेश से भी गया गुजरा है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में हमारा स्कोर 31.4 होने का मतलब है कि हम ‘अत्यंत गंभीर’ मोड़ पर पहुंच गए हैं और इस मामले में तुरंत ध्यान देने और सही कदम उठाने की जरूरत है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स की ये रैंकिंग ऐसे समय में आई है जब सरकार पोषण नीति लाने वाली है। ये नीति, राष्ट्रीय पोषण मिशन के उस पत्र के आधार पर बनाई जा रही है,जिसे नीति आयोग ने तैयार किया है। पोषण के मोर्चे पर कई क्षेत्रों को शामिल कर कुपोषण की समस्या से छुटकारा दिलाने की रणनीति भले ही सही दिशा में हो, लेकिन क्या इसके लिए पर्याप्त पैसा और संसाधन मुहैया कराए जाएंगे? और, क्या आईसीडीएस जैसे महत्वपूर्म कार्यक्रमों को और बेहतर और सशक्त बनाया जाएगा?
यह बेहद दुख और चिंता की बात है कि जब भूखमरी की बात होती है या कुपोषण का मुद्दा उठता है तो बहस सिर्फ आंगनबाड़ी केंद्रों को हटाकर डिब्बाबंद भोजन (पैकेज्ड फूड) या सीधे कैश ट्रांसफर के प्रस्ताव पर आकर खत्म हो जाती है। ऐसे प्रस्ताव वाणिज्यिक हितों के लिए ज्यादा होते हैं, न कि कुपोषण का शिकार महिलाओं, बच्चों या समुदायों के लिए। ऐसे प्रस्ताव, उस असली मुद्दे से भी ध्यान भटका देते हैं, जो दरअसल भोजन, जीवनयापन और प्राकृतिक संसाधनों के असमान वितरण से जुड़ा है। अच्छी बात ये है कि इस साल की जीएचआई यानी ग्लोबल हंगर रिपोर्ट की थीम ‘भूख की असमानता’ है। रिपोर्ट में इस तथ्य को एकदम सटीक तरीके से पेश किया गया है कि, “असमानता के नजरिए से भूख का मुद्दा देखने से ऐसी आबादी की तरफ ध्यान जाता है, जो हर स्तर पर पीछे रह गई है। जब हम भूख के खिलाफ लड़ाई शुरु करें तो, हमारा ध्यान उन इलाकों की आबादी पर होना चाहिए जो पीछे रह गए हैं और इसमें वहां के संसाधनों का कैसे इस्तेमाल हो सकता है।” दरअसल पोषण में असमानता दो देशों के बीच ही नहीं होती है, बल्कि एक ही देश के अलग-अलग हिस्सों में भी हो सकती है। भारत में भी, जहां-तहां न सिर्फ धन-संपदा और आमदनी की असमानताएं हैं, बल्कि स्वास्थ्य सेवाओँ और भोजन तक पहुंच में भी भारी असमानताएं हैं। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस 4, 2015-16) के आंकड़े संकेत देते हैं कि नीतियां बनाते समय ऐसी असमानताओं को को ध्यान में रखने की क्यों जरूरत है। हालांकि 5 साल से कम उम्र के बच्चों का कद यानी लंबाई न बढ़ने की दर 48 फीसदी से घटकर 38 फीसदी पर आ गई है, लेकिन अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक श्रेणियों में इस मुद्दे पर असमानता अब भी बहुत ज्यादा है। इसीलिए ऐसे बच्चे जिनकी मांओं ने कोई शिक्षा नहीं ली है, उनके कद न बढ़ने का फीसदी 51 है, जबकि सेकेंडरी शिक्षा तक पढ़ी लिखी मांओं के बच्चों के कद न बढ़ने का फीसदी 31 है।
इसी तरह अनुसूचित जातियों के 44 फीसदी बच्चे कद में कम होते हैं, जबकि सामान्य श्रेणी में यह संख्या 31 फीसदी है। धन-संपदा के मामले में भी जबरदस्त असमानता है। कम पैसे वाले परिवारों के 51 फीसदी बच्चों का कद कम रह जाता है जबकि ठीक-ठाक पैसे वालों में यह तादा 22 फीसदी है। इसके अलावा क्षेत्रीय असमानताओं की भी इसमें भूमिका होती है। मसलन, बिहार में यह संख्या 48.3 फीसदी है तो केरल में महज 19.7 प्रतिशत। कम वजन के बच्चों के मामले में भी आंकड़े ऐसा ही कुछ बताते हैं। इस सबसे एक बात तो साफ हो जाती है कि ऐसे बहुत से क्षेत्र और मामले हैं जिन पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है, तभी कुपोषण की समस्या से कुछ हद तक छुटकारा मिल सकता है। बेहद खराब साफ-सफाई यानी सैनिटेशन, स्वास्थ्य सेवाओं और सुविधाओं की कमी, मांओं की अशिक्षा और उनका खराब स्वास्थ्य, कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनका समाधान होना ही चाहिए, क्योंकि ये सारे मुद्दे कुपोषण से लड़ाई में अहम भूमिक निभाते हैं। आंकड़े बताते हैं कि आधे से भी कम यानी 48.4 फीसदी घरों में साफ-सफाई की व्यवस्था है, 43.8 फीसदी घरों में ही साफ ईंधन मुहैया है। इस सर्वे में शामिल महिलाओँ में से सिर्फ एक तिहाई यानी 35.7 फीसदी ही ऐसी हैं जिन्होंने कुछ साल स्कूली पढ़ाई की है। इसके अलावा 27 फीसदी महिलाएं ऐसी हैं, जिनका विवाह 18 बरस की उम्र से पहले ही कर दिया गया। ये वे तथ्य हैं, जिनसे बच्चों के कुपोषण का खतरा पैदा होता है। एक और चौंकाने वाला तथ्य यह है कि देश में 6 से 23 माह की उम्र तक के सिर्फ 9.6 फीसदी बच्चों को ही जरूरत के मुताबिक भोजन मिल पाता है। तमिलनाडु में ऐसे बच्चों का प्रतिशत 30.7 है तो राजस्थान में सिर्फ 3.4 फीसदी। ऐसे में भूखमरी और कुपोषण की समस्या के समाधान के लिए नीति निर्धारित करते समय, इस बात को जरूर ध्यान में रखना होगा कि आखिर हम आज तक इस समस्या से छुटकारा क्यों नहीं पा सके। और यह भी सोचना होगा कि तमाम वादों और दावों के बावजूद बच्चों के लिए पर्याप्त मात्रा और गुणवत्ता वाले भोजन को मुहैया कराना भी अभी तक संभव नहीं हो सका है। साभार नवजीवन
राजीव रंजन तिवारी (संपर्कः 8922002003)
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