नई दिल्ली (विवेक कौल, आर्थिक विश्लेषक)। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने के लिए एक ब्लूप्रिंट लाया जाने वाला है. अंग्रेज़ी अख़बार बिज़नेस स्टैंडर्ड में छपी इस ख़बर की अहमियत इसलिए बढ़ जाती है कि मई 2014 में मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद से भारत अर्थव्यवस्था अपने सबसे सुस्त दौर से गुज़र रही है. अप्रैल-जून 2017 के दौरान भारत के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में केवल 5.7 फ़ीसदी की वृद्धि हुई. जनवरी-मार्च 2016 में जीडीपी में 9.1 फ़ीसदी की वृद्धि हुई थी. क्या भारत की ग्रोथ की रफ़्तार बरक़रार रहेगी? इससे पहले भारतीय अर्थव्यवस्था ने मनमोहन सरकार के दौरान जनवरी-मार्च 2014 में छह फ़ीसदी (5.3 फ़ीसदी) से कम की वृद्धि देखी थी. साथ ही 5.7 प्रतिशत का सकल घरेलू उत्पाद दर तब हासिल किया गया, जब सरकार ने आम तौर से ज़्यादा ख़र्च किए हैं.
जीडीपी का गैर सरकारी हिस्सा जो अर्थव्यवस्था का करीब 90 फ़ीसद हिस्सा होता है, वो केवल 4.3 फ़ीसद की दर से बढ़ा है. विनिर्माण और निर्माण में क्रमशः 1.2 प्रतिशत और 2 प्रतिशत के साथ पूरे उद्योग में 1.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई. हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां दो फ़ीसदी से अधिक आर्थिक विकास की दर को अच्छा माना जाता है. लेकिन पश्चिम के लिए जो सच है वो भारत के लिए सही हो ज़रूरी नहीं है. अगर भारत को गरीबी से बाहर निकलना है तो जीडीपी विकास दर को 7 फ़ीसदी से ज़्यादा बनाए रखना होगा. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्री विजय जोशी ने 'इंडियाज़ लॉन्ग रोड- द सर्च फ़ॉर प्रॉस्पैरिटी' में लिखा है, "लंबी अवधि के 'चक्रवृद्धि ब्याज की ताक़त' ऐसी है कि प्रति व्यक्ति आय की दर में भी एक छोटा परिवर्तन प्रत्येक व्यक्ति की आमदनी में बड़ा अंतर ले आता है." और भारत के लिए चीज़ें कैसी दिखती हैं? आर्थिक विकास की विभिन्न दरों पर यह 2040 में कहां समाप्त होगी? जोशी लिखते हैं, "तीन फ़ीसदी सालाना के वृद्धि दर से प्रति व्यक्ति आमदनी दोगुनी हो जाएगी और आज के चीन के प्रति व्यक्ति आय के बराबर पहुंच जाएगी. 6 फ़ीसदी की वृद्धि दर पर प्रति व्यक्ति आय चार गुनी हो जाएगी, जितनी आज चिली, मलेशिया और पोलैंड में है. अगर आमदनी प्रति वर्ष 9 फ़ीसदी की दर से बढ़ी तो यह आठ गुनी हो जाएगी. और भारत के प्रति व्यक्ति आमदनी उच्च आय वाले देशों के बराबर हो जाएगी."
इससे जाहिर होता है कि क्यों हाई ग्रोथ रेट इतना महत्वपूर्ण है. इसके एक और पहलू को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि करीब सवा करोड़ भारतीय युवक प्रति वर्ष कामगारों में तब्दील हो रहे हैं. यह भारत का तथाकथित जनसाख्यिकीय विभाजन हैं. लेकिन जिस दर से विनिर्माण और निर्माण में वृद्धि हो रही है, उससे इन युवाओं के लिए रोजगार कहां से आएंगे. सेवा क्षेत्र में वृद्धि मज़बूत बनी हुई है लेकिन उद्योग से इसे समर्थन मिलना आवश्यक है. खासकर निर्माण से, यह देखते हुए कि इन युवाओं में से अधिकांश कौशल में कमज़ोर हैं. इसके पीछे बुनियादी शिक्षा की कमी सबसे बड़ा कारण है. 2016 की सालाना शिक्षा रिपोर्ट के अनुसारः कम से कम तीसरी कक्षा के उन छात्रों का अनुपात थोड़ा बढ़ा है जो पहली कक्षा के पाठ्य पढ़ने में सक्षम हैं. अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ के अनुसार लोग कैश में काला धन कभी कभार ही रखते हैं. साल 2014 में यह 40.2 फीसदी था जो 2016 में 42.5 फीसदी हो गया है. 2014 में तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले 25.4 फीसदी छात्रों को दो अंकों का घटाव आता था. ये आंकड़ां 2016 में बढ़कर 27.7% पर पहुंच गया." ये स्थिति शिक्षा के अधिकार की शुरुआत के बाद 2010 से ही बनी हुई है. ये देखते हुए कि नौकरी से जुड़ने वाले युवाओं का बड़ा हिस्सा कम हुनरमंद है. उन्हें कम हुनर वाली नौकरियों की आवश्यकता होती है, जो निर्माण और रियल स्टेट दे सकते हैं. और ये दोनों ही क्षेत्र कठिन दौर से गुजर रहे हैं.
इसमें जो मददगार नहीं बन पा रही हैं, वो जटिल श्रम कानून और बिज़नेस करने में आसानी की कमी है. इससे ये पता चलता है कि कपड़ा उद्योग में भी छोटे पैमाने पर काम करने और नई नौकरियां पैदा करने की क्षमता है. 'बिज़नेस करने में सरलता- भारतीय राज्यों का उद्यम सर्वेक्षण' नाम से आई नीति आयोग की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि कपड़ा उद्योग में कार्यरत 85 फ़ीसदी कंपनियां आठ से कम श्रमिक रखती हैं. व्यापक स्तर पर, भारतीय विनिर्माण कंपनियों में से 85 फ़ीसदी छोटी हैं और इनमें 50 से कम कर्मचारी हैं. सरकार का मानना है कि उसने श्रम कानूनों में सुधार करने के लिए काफी काम किए हैं और अब बड़े स्तर पर काम देने वाले उद्योग चलाना अब कारोबार जगत की ज़िम्मेदारी है. लेकिन जैसा कि डेटा बताते हैं यह वास्तव में नहीं हो रहा है. भारत की इंडस्ट्री श्रम आधारित उद्योग की जगह पूंजी आधारित इंडस्ट्री को तरजीह देती है. इससे अधिक, सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 15 फ़ीसदी का योगदान करने वाले कृषि क्षेत्र में आधे कामगर लगे हुए हैं. इस वित्तीय वर्ष के पहले पांच महीनों (अप्रैल-अगस्त 2017) के दौरान निर्यात 2013 और 2014 से भी कम हुआ है. इन सभी वजहों से ये पता चलता है कि भारत में भारी संख़्या में बेरोजगारी है. 2015-2016 के आंकड़े ये सुझाव देते हैं कि प्रति वर्ष नौकरी तलाशने वाले पांच में से केवल तीन लोगों को नौकरी मिलती है. ग्रामीण इलाकों में तो यह और भी दयनीय है. वहां दो में केवल एक व्यक्ति ही रोज़गार पाने के काबिल हो पाता है.
नोटबंदी के नकारात्मक असर से असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली कई कंपनियों में नौकरियों की हालत तो और भी ख़राब हैं, क्योंकि यहां कई कंपनियां बंद हो चुकी हैं. वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी), जिसे अच्छा और सरल माना जाता था, को लागू करना भी मददगार साबित नहीं हुआ. भारत के लिए दूसरी बड़ी चिंता सरकारी स्वामित्व वाले बैंक रहे हैं. 21 में से 17 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पास (31 मार्च 2017 के अनुसार) 10 फ़ीसदी से अधिक बैड लोन हैं. इसका मतलब ये है कि बैंकों द्वारा दिए जा रहे प्रत्येक 100 रुपये के कर्ज़ में से 10 रुपये वापस नहीं आ रहे. बैड लोन उसे कहते हैं जिसमें 90 दिनों से अधिक देनदारी बकाया होती है. इंडियन ओवरसीज़ बैंक में बैड लोन 25 फ़ीसदी है. ये बैड लोन मुख्य रूप से उद्योगों को उधार देने पर बढ़ते हैं जहां कुल बैड लोन 22.3 प्रतिशत है. सरकार ने इन बैंकों को सुचारू रूप से कार्यरत बनाने के लिए डेढ़ लाख करोड़ की पूंजी लगाई है. बैंकों में बढ़ते बैड लोन और बेसल-III मानदंडों को जारी करने के साथ, इन बैंकों को आने वाले वर्षों में कायम रहने के लिए अरबों रुपयों की जरूरत होगी.
सरकार के पास स्पष्ट रूप से ये पैसे नहीं हैं और ये निजीकरण या इन बैंकों में से कुछ को बंद करने के लिए भी अनिच्छुक है. इसके अलावा, इन बैड लोन्स का ख़राब असर यह रहा है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक अब उद्योगों को उधार देने के भी इच्छुक नहीं हैं. निष्कर्ष यह है कि, भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ अब कई संरचनात्माक मुद्दे हैं. यदि प्रति वर्ष दीर्घकालिक वृद्धि दर 7 से 8 प्रतिशत बनाए रखना है तो इन मुद्दों को युद्ध स्तर पर उठाया जाना चाहिए.
(विवेक कौल 'इंडियाज़ बिग गवर्नमेंट - द इंट्र्यूसिव स्टेट एंड हाउ इट इज़ हर्टिंग अस' के लेखक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.) साभार बीबीसी
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