मध्यप्रदेश आधुनिक भारतीय इतिहास की सबसे अधिक प्रतिगामी प्रथाओं में से एक बाल विवाह के विरूद्ध निरंतर लड़ाई लड़ रहा है। यह राज्य भारत का सातवां ऐसा राज्य है जहां बाल विवाह अधिक प्रचलित प्रथा है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों पर आधारित एनसीपीसीआर की बाल विवाह पर जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, मध्यप्रदेश शीर्ष दस ऐसे राज्यों में शामिल है, जहां लड़कों और लड़कियों दोनों में बाल विवाह के प्रचलन का उच्च प्रतिशत है। सत्यार्थी चिल्ड्रंस फाउंडेशन के संस्थापक और नोबेल शांति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी कहते हैं ‘‘जब कोई बाल विवाह के बारे में सोचता है, तो वह छवि उस समय तक चली जाती है जब महिलाओं और लड़कियों के लिये शिक्षा सुलभ नहीं थी। अफसोस की बात है कि तकनीकी रूप से बाल विवाह का प्रचलन 21वीं शताब्दी में शुरू हुआ और इसके कम होने का कोई संकेत नहीं दिखाई पड़ता है।’’ हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि बाल विवाह सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों तक सीमित है और शहरों में इसका अस्तित्व नहीं है। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि यह़ प्रथा भारत के ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में समान रूप से बढ़ रही है। यह एक गहराती हुई समस्या है, जो वर्ग, जाति, धर्म और क्षेत्र में कटौती करते हुए तेजी से फैल रही है। जबकि आज शिक्षा तक पहुंच आसान हो गई है, और इस सामाजिक बुराई के बारे में देशभर में जागरूकता फैल रही है, यह विडम्बना है कि यह अभी भी भारत में व्यक्ति इच्छा पर प्रचलित है।
श्री सत्यार्थी कहते हैं, ‘‘बाल विवाह समाज द्वारा प्रायोजित युवा बच्चों के शारीरिक और मानसिक दुरूपयोग के सबसे बड़े रूपों में से एक है। सरकारी संस्थाओं और सिविल सोसायटी द्वारा बाल विवाह की प्रथा का जोरदार विरोध किया गया है।’’ कई अध्ययनों से पता चलता है कि गरीबी सबसे मजबूत कारकों में से एक है, जिससे मजबूर होकर लोग अपने बच्चों को कम उम्र में विवाह करने पर मजबूर करते हैं। यह सच है, खासकर लड़कियों के मामले में, जहां इनके परिवार में इसे परिवार के उत्तरदायित्व के रूप में देखा जाता है। यहां तक कि शहरी क्षेत्रों में लोगों की समग्र शिक्षा में सुधार के बावजूद आर्थिक विकल्पों की कमी इस प्रथा के प्रसार में योगदान देती है। बच्चें जिनकी जबरन शादी की गई हैं, अक्सर उनकी शिक्षा के लिये किसी भी प्रकार की शिक्षा तक पहुंच प्रदान नहीं की जाती है। शिक्षा की कमी के कारण लड़कियों और लड़कांे के बीच अज्ञानता का खतरा पैदा हो रहा है। बाल विवाह सामाजिक-आर्थिक प्रगति जिसकी एक राज्य और अंत में देश को उम्मीद होती है के लिए एक महत्वपूर्ण बाधा है। यह देश के स्वास्थ्य, शिक्षा और जनसांख्यिकी के लिये बड़ा खतरा है। ऐसे समय में जब बच्चों से खेल, अध्ययन और निश्चिंत जीवन जीने की उम्मीद की जाती है, उन्हें अपने बचपन को छोड़कर जिम्मेदारियों को उठाने के लिये मजबूर किया जा रहा है, यह बेहद असामान्य स्थिति है जो इस तरह की उम्र के लिये अनुचित है। बाल विवाह अवैध होने के अलावा कई प्रकार के जोखिमों से भी जुड़ा हुआ है। इस उम्र में प्रेग्नेंसी के साथ उत्पन्न होने वाली शारीरिक और यौन जटिलताओं से गम्भीर मनोवैज्ञानिक आघात का खतरा भी उत्पन्न होता है। बाल विवाह अधिनियम 2006 (पीसीएमए) का कमजोर कार्यान्वयन भी इन विवाह की बढ़ौत्री के लिये एक अन्य कारक है। कानून की सीमित समझ और कानून के कामकाज की बहुत कम जानकारी इस अधिनियम के दुष्परिणाम है।
श्री सत्यार्थी आगे कहते हैं, ‘‘बच्चों को खेलना और अध्ययन करना चाहिए। उन्हें शादी के लिये मजबूर नहीं करना चाहिए। हमें इस गहराती हुई समस्या के प्रति आंखें बंद नहीं करनी चाहिए। बाल विवाह की इस प्रथा के खिलाफ पूरे देश को मजबूत रूख इख्तयार करने का वक्त आ गया है। मध्यप्रदेश पहले से ही इस सामाजिक बुराई को रोकने की शुरूआत कर चुका है।’’ बाल विवाह से जुड़ी कई समस्याओं के प्रति समाज को शिक्षित किए जाने की जरूरत है। समाज को इस प्रथा के नुकसान की जानकारी होनी चाहिए। जब तक हम इस प्रतिगामी प्रथा के खिलाफ मजबूती से खड़े नहीं होंगे तब तक इस देश में बाल विावह के खतरे का अंत नहीं होगा। 21वीं सदी के भारत में बाल विवाह का कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
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