कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के सवालों को मजाक में उड़ाना यह सिद्ध करता है कि इस सरकार में सियासत से अवसान की ओर अग्रसर है शूचिता
राजीव रंजन तिवारी
आज की सियासत में भाषाई छिछालेदर के बीच या तो शूचिता (जिसे अंग्रेजी में प्यूरिटी कहते हैं) कहीं राह भटक गई है अथवा राजनीतिक धुरंधरों को अब उसे आत्मसात करने की जरूरत महसूस नहीं हो रही है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि मौजूदा काल शूचिता की सियासत के अवसान का है। लगता है, इसी दौर में इस सुन्दर शब्द को सियासत की शब्दावली से डिलीट कर दिया जाएगा। शूचिता पर सवाल कोई यूं ही नहीं करता। मैं भी नहीं। दुखद हालात विवश करते रहे हैं। देश की दशा जिस दिशा की ओर अग्रसर है, वह बेशक सुखद नहीं है। हां, कुछ लोगों को इसी में मजा आ रहा होगा, यह मैं नहीं कह सकता, पर ये ठीक नहीं है। आप समझ ही गए होंगे हमारा भाव क्या है। क्या यह नहीं लगता कि यदि आज नरेन्द्र मोदी की जगह कोई दूसरा प्रधानमंत्री होता तो अबतक या तो इस्तीफा दे दिया होता अथवा राष्ट्रव्यापी इतना जबरदस्त आंदोलन होता कि उन्हें विवश होकर कुर्सी छोड़नी पड़ती। निश्चित रूप से इससे शूचिता मजबूत होती, शूचितापूर्ण सियासत के प्रति लोगों के मन में आदर का भाव पैदा होता, लेकिन अब...? यह सिर्फ अनुत्तरित सवाल जैसा ही है। लगता है कि इसका जवाब मिलेगा भी नहीं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर विपक्षी दल कांग्रेस के आला नेता राहुल गांधी द्वारा आधिकारिक रूप से भ्रष्टाचार का आरोप लगाना कोई मामूली बात नहीं है। वह भी तब जब राहुल गांधी खुद अपने नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों को मंचों से यह कहते रहते हैं-‘नरेन्द्र मोदी जी हमारे देश के प्रधानमंत्री हैं। उनके खिलाफ मुर्दाबाद का नारा नहीं लगना चाहिए।’ जैसा कि अन्य दलों (भाजपा सहित) के नेता अपने प्रतिद्वंद्वी नेता के खिलाफ अनाप-शनाप आरोप लगाते रहते हैं और कुछ दिनों तक मीडिया की सुर्खियों में रहने का सुख भोगकर शांत हो जाते हैं, यह उससे अलग का मसला है। यही समझने वाली बात है। यह किसी गली-मोहल्ले के नेता ने अपने पड़ोसी नेता के ऊपर कोई आरोप नहीं लगाया है। यह आरोप राहुल गांधी द्वारा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर प्रमाण सहित लगाया गया है। आपको बता दें कि कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने पिछले दिनों गुजरात की एक सभा में कहा था कि सहारा ने मोदीजी को करोड़ों रुपये दिए। 6 महीने में 9 बार पैसे दिए गए। सहारा के लोगों ने अपनी डायरी में लिखा कि हमने नरेंद्र मोदीजी को पैसे दिए हैं। ढाई साल से मोदी पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई? सहारा की डायरी की जांच हो। मोदीजी की जांच हो। राहुल ने कहा कि 22 नवंबर 2014 को सहारा कंपनी पर छापा पड़ा। आयकर विभाग के अनुसार 12 नवंबर को ढाई करोड़ रुपया मोदी जी को दिया गया। 29 नवंबर 2014 पांच करोड़ रुपया मोदी जी को दिया गया। राहुल ने कहा कि आयकर विभाग के दस्तावेज के अनुसार बिरला समूह ने मोदी को उस समय 12 करोड़ रुपये का भुगतान किया जब मोदी मुख्यमंत्री थे। ये थे राहुल गांधी द्वारा लगाए गए आरोप। उक्त आरोपों को गंभीरता से लेने, उसका सटीक और सधे अंदाज में जवाब देने के बजाय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी का मजाक उड़ाना यह सिद्ध करता है कि वे शायद अपने पद की मर्यादा को नजरंदाज कर रहे हैं। लोगों के बीच हंसना या लोगों को हंसाना ठीक है, पर गंभीर मुद्दों पर तो गंभीरता दिखाया ही जाना चाहिए। बनारस में मोदी ने राहुल पर हमला करते हुए कहा है कि 2009 में तो पता ही नहीं चलता था कि इस पैकेट में क्या है, अब बोलना शुरु किया है तो पता चला है कि भूकंप की संभावना है ही नहीं। नोट बंद करने के बाद मुझे नहीं पता था कि देश के कुछ नेता हिम्मत के साथ बेईमानों के साथ खड़े हो जाएंगे। पाकिस्तान को घुसपैठिए भेजने हों तो क्या करता है, फ़ायरिंग। ये लोग भी बेईमानों को कवर दे रहे हैं। अब समझा कि ये हल्ला किसकी भलाई के लिए हो रहा है। जबकि पीएम द्वारा अपना मजाक उड़ाने पर राहुल गांधी ने बहराइच में कहा कि उन्होंने (मोदी) उनके (राहुल) सवाल का मजाक उड़ाया है। मैंने मोदी जी से 2-3 सवाल पूछे थे, भ्रष्टाचार के बारे में। पीएम सवाल के जवाब तो नहीं दिए मगर जो सवाल पूछ रहा था उसका मजाक उड़ाया। आप मेरा जितना मजाक उड़ाना चाहते हो उड़ाओ, पर देश के युवाओं के सवालों के जवाब दो। मैं ग़ालिब के शब्दों में कहता हूं ‘हर एक बात पे कहते हो के तू क्या है, तुम ही कहो ये अंदाज-ए-गुफ्तगू क्या है’। देखने लायक तो आजकल सोशल साइट्स है। फेसबुक, ट्वीटर और व्हाट्स एप्प पर लगातार मोदी विरोधियों की संख्या बढ़ रही है। हालांकि कुछ लोग के आरोपों को भी नकार रहे हैं। दिल्ली कांग्रेस आईटी सेल के संयोजक विशाल कुन्द्रा ने एक ट्वीट किया-‘लो, भक्तों के पापा भी अब भ्रष्टाचारी हो गए।’ इस पर खासा बवाल दिखा। पीएम मोदी के एक कट्टर समर्थक अरुण कुमार पाण्डेय मोदी भक्तों के लिए इसे गाली समझ बैठे, सो उन्होंने फेसबुक पर लिखा भी-‘इस तरह के पोस्ट शेयर नहीं होने चाहिए।’ पाण्डेय ने सही कहा, सभ्यता और संस्कृति की मर्यादा का ख्याल रखना हितकारी है। यह दुखद है कि राहुल गांधी द्वारा लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों पर गंभीरता से कुछ कहने के बजाय पीएम द्वारा उनके बोलने के अंदाज का मजाक उड़ाया गया। मतलब ये कि मोदी खुद को बड़ा वक्ता मानते हैं। आपको बता दें कि बापू महात्मा गांधी बहुत अच्छे वक्ता नहीं थे। बहुत कम बोलते थे और धीरे-धीरे बोलते थे। हुंकार नहीं भरते थे और फुफकार नहीं मारते थे। अपनी आत्मकथा उन्होंने बोलने पर लिखा है कि एक बार मैं वेंटनर गया था। वहां मजमुदार भी थे। वहां के एक अन्नाहार घर में हम दोनों रहते थे। वहां अन्नाहार को प्रोत्साहन देने के लिए एक सभा की गई। उसमें हम दोनों को बोलने का निमंत्रण मिला। दोनों ने उसे स्वीकार किया। मैंने जान लिया था कि लिखा हुआ भाषण पढ़ने में कोई दोष नहीं माना जाता। मैं देखता था कि अपने विचारों को सिलसिले से और संक्षेप में प्रकट करने के लिए बहुत से लोग लिखा हुआ पढ़ते थे। मैंने अपना भाषण लिख लिया। बोलने की हिम्मत नहीं थी। जब मैं पढ़ने के लिए खड़ा हुआ तो पढ़ न सका। आंखों के सामने अंधेरा छा गया और मेरे हाथ-पैर कांपने लगे। मजमुदार का भाषण तो अच्छा हुआ। श्रोतागण उनकी बातों का स्वागत तालियों की गड़गड़ाहट से करते थे। मैं शर्माया और बोलने की अपनी असमर्थता के लिए दुखी हुआ। अपने इस शर्मीले स्वभाव के कारण मेरी फजीहत तो हुई पर कोई नुकसान नहीं हुआ बल्कि मैं देख सकता हूं कि मुझे फायदा हुआ। उक्त तथ्य देश के चर्चित पत्रकार रवीश कुमार ने अपने एक आलेख में उद्धृत किया है। मतलब ये कि अच्छी बात है कि पीएम मोदी अच्छे वक्ता हैं, पर कोई खराब वक्ता हो, तो वह बुरा भी नहीं है। इसलिए उसके बोलने-चालने की बातों का मजाक उड़ाना ठीक नहीं है। हमने चर्चा सियासत में शूचिता से शुरू की थी। इस दरम्यान मौजूदा हालात को देख यह प्रतीत हो रहा है कि राजनीति में शुचिता और पवित्रता के सवाल अब हवा हो गए हैं। लोग अपने ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। आप हमसे अधिक भ्रष्ट हैं, यह कहकर अपने पाप कम करने की कोशिशें की जा रही हैं। समाज इस नजारे को भौंचक होकर देख रहा है। देश की राष्ट्रीय राजनीति से लेकर कमोबेश हर राज्य में ऐसी कहानियां पल रही हैं और राजनीति व नौकरशाही दोनों इसे विवश खड़े देख रहे हैं। भ्रष्टाचार की तरफ देखने का हमारा दृष्टिकोण चयनित है। सवाल यह भी उठने लगा है कि सार्वजनिक जीवन में अब शुचिता और नैतिकता की अपेक्षा करना बेमानी है। जनता भी यह मानकर चलती है कि काम होगा तो भ्रष्टाचार भी होगा, सब चलता है, कौन पाक-साफ है, बिना लिए-दिए आजकल कहां काम होता है। जनता की यह वेदना एक हारे हुए देश की पीड़ा है। जिसे लगने लगा है कि अब कुछ नहीं हो सकता। बहरहाल, देखना है कि ढलान की ओर राजनीतिक शूचिता कहां जाकर ठहरती है। वैसे उम्मीद कम है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक और स्तंभकार हैं, इनसे फोन नं. 08922002003 पर संपर्क किया जा सकता है)
नाइस
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