11 दिसंबर को ओशो रजनीश की जयंती के बहाने रहस्य और विवादों के घेरे में रहे गुरु की प्रासंगिकता पर का जनसत्ता का बेबाक बोल
ओशो के व्यक्त्वि में एक चुंबकत्व था। नतीजतन रजनीश के माता-पिता सहित रिश्तेदारों ने शिष्यत्व ग्रहण किया। रजनीश के भाई शैलेंद्र आज यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि खुद को जानना ही साधना है। ईश्वर रूपी सत्ता से दिल का रिश्ता बनाने के पैरोकार सिद्धार्थ मुर्शिद और शैलेंद्र से जनसत्ता के कार्यकारी संपादक मुकेश भारद्वाज की बातचीत के मुख्य अंश।
सवाल : एक समय ऐसा रहा कि ओशो के आभामंडल का एक साम्राज्य स्थापित हो गया था। आज इस आश्रम में उसका एक कण दिख रहा है। ओशो की विचारधारा अक्षुण्ण रखने के अपने प्रयास को आप कैसे देखते हैं?
जवाब : पूरा प्रयास मानव के अंतर्मन में अध्यात्म की एक प्रयोगशाला खड़ी करने का है। विज्ञान की प्रयोगशाला तो आसानी से बन जाती है लेकिन अध्यात्म की प्रयोगशाला जो आपके अंदर बननी है, एक कठिन कार्य है। संतों ने इसके निर्माण के बाद निराकार को जाना तो बुद्ध ने इसे शून्य की संज्ञा दी।
सवाल : आप अध्यात्म को किस तरह से परिभाषित करेंगे?
जवाब : अध्यात्म का ज्ञान होने के लिए आपके अंदर से आवाज उठती है। एक चाह है जो आपको वशीभूत कर देती है। किताबों से फिर चाहे वह वेद हों, गीता हो, रामायण हो या कोई और धार्मिक ग्रंथ, व्यक्ति में प्यास पैदा होती है और यह एक निजी अनुभव है। ठीक वैसे ही जैसे गुड़ के स्वाद का ज्ञान उसे खाने वाले को ही होता है।
सवाल : ओशो को स्वीकारने और खारिज करने के द्वंद्व को आप कैसे देखते हैं?
जवाब : ओशो के बाद संस्था में खंडन और मंडन की प्रवृत्ति की इति हो गई है। हम न तो किसी के खंडन के लिए हैं और न ही अपने महिमामंडन के लिए। अपना विस्तार उतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना अपने जितने भी प्रयास हैं उनका परिणाम हासिल करने का। जो भी लोग हमारे संपर्क में आ रहे हैं अगर उनमें से कुछ भी ओशो के बताए परम आनंद को हासिल कर लेते हैं तो वह हमारी उपलब्धि है।
सवाल : धर्म, परंपरा और ज्ञान ओशो के विचार के अहम हिस्से थे, आप इसे कैसे कहेंगे?
जवाब : धर्म और धार्मिकता में यही अंतर है कि जब परंपरा मर जाती है तो धार्मिकता पैदा होती है और फिर उसी को आगे बढ़ाया जाता है। पुराने धमर्गुरु एकदम मरणासन्न होने पर ही अपना ज्ञान आगे देते थे वह भी किसी एक शिष्य को। इससे ज्ञान सीमित होता चला गया। हम इसके प्रचलन में भरोसा रखते हैं। लिहाजा इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों को दिया जाता है।
सवाल : अब आपका लक्ष्य क्या है? जवाब : हम इस लक्ष्य को लेकर चलते हैं कि उस सर्वशक्तिमान सत्ता से दिमाग का नहीं बल्कि दिल का नाता स्थापित किया जाए। गुरु की तरह हम किसी को भी उसके द्वार तक ले जा सकते हैं। अगला मार्ग तो उसे खुद तय करना है।
सवाल : ओशो समर्थकों का यह दुख है कि जनमानस ने उन्हें ठीक से समझा नहीं। आप इसकी क्या वजह मानते हैं?
जवाब : जनमानस द्वारा ओशो को न समझने का कारण साफ है। ओशो समय से पहले अवतरित हुए। आज से 40-50 बरस बाद लोगों को उनकी बातें समझ आएंगी। इतिहास गवाह है कि गैलिलियो, सुकरात के साथ क्या हुआ। उनकी बात को किसी ने तब नहीं माना लेकिन बाद में उतनी ही शिद्दत से महसूस किया। एक और अहम कारण है। लोग उसी को समझने में भूल करते हैं जो प्रतिभाशाली होगा। क्योंकि एक लीक पर चल रहे समाज को अपनी तय मान्यताओं से इतर कुछ भी सुनना गवारा नहीं होता। यही वजह है कि अक्सर महानुभावों को समझने या परिभाषित करने में समस्या होती है। लेकिन समाज का एक ऐसा वर्ग है जो अब उसके महत्त्व को समझ रहा है।
सवाल : अपने समय में ओशो को काफी विरोध झेलना पड़ा?
जवाब : यह सच है कि ओशो को अपने समय में सब ओर से भारी विरोध झेलना पड़ा। उसका मुख्य कारण यही था कि ओशो एक नई इमारत को बुलंद कर रहे थे जिसकी नींव स्थापित करने के लिए उन्हें गड्ढा खोदने पड़े और इसलिए विरोध भी झेलना पड़ा। लेकिन अब वो इमारत खड़ी हो चुकी है। हमारा रास्ता न तो टकराव का है और न ही जबर्दस्ती का।
सवाल : तो क्या ओशो आज सर्वग्राह्य हैं, टकराव का रास्ता खत्म हुआ?
जवाब : टकराव के रास्ते पर वही चलते हैं जो असत्य का धंधा करते हैं क्योंकि सत्य की स्थापना उन्हें स्वीकार्य नहीं। ओशो की सर्वग्राह्यता इसी से जाहिर है कि उनकी पुस्तकें आज भी सबसे ज्यादा बिकती हैं। साठ भाषाओं में उनका अनुवाद हो चुका है और उनके वीडियो सोशल नेटवर्किंग साइटों पर सबसे ज्यादा देखे जाते हैं।
सवाल : ओशो के साथ जुड़े विवादों पर आपका क्या कहना है?
जवाब : विवाद तो ओशो के साथ बहुत हैं। यों विवाद तो विश्व के हर बड़े व्यक्ति के साथ जुड़ जाते हैं। न हों तो जोड़ दिए जाते हैं। यही ओशो के साथ हुआ भी। उनसे जुड़े कुछ लोगों के कारण उनके अध्यात्म अभियान को जो धक्का लगा वो आज भी हमारे रास्ते में अड़चन बनता है, लेकिन यह तब तक ही होता है जब तक कोई हमसे दूर हो। एक बार जब कोई ओशो धारा के अंदर आ जाता है उसकी तमाम गलतफहमियां घटती चली जाती हैं।
सवाल : ओशो की सोच समाज को आगे बढ़ा सकती है?
जवाब : समय आ गया है कि देश को आगे की ओर देख सकने वाली सोच के साथ आगे बढ़ाया जाए। गांधी की सोच के साथ आगे बढ़ना कठिन है। गांधी के सिद्धांत से अगर आज भी चरखा ही चलाएंगे और प्राथमिक शिक्षा ही ग्रहण करेंगे तो देश कुछ पीछे छूट जाएगा। जरूरी है कि इसे आधुनिक सोच के साथ आगे बढ़ाया जाए।
सवाल : अध्यात्म बनाम आधुनिक सोच कुछ विरोधाभास सा नहीं लगता?
जवाब : ऐसा नहीं है कि अध्यात्म आधुनिक सोच के रास्ते में रोड़ा खड़ा करता है। हमारा प्रयास है कि वैज्ञानिक चित्त के साथ आध्यात्मिक चेतना को जागृत किया जाए। यही कारण है कि हम संन्यास और संसार का समन्वय बिठाने का प्रयास कर रहे हैं।
(http://www.jansatta.com/editors-pick/interview-questions-and-answers-with-ohso-brother-shailendra/204481/?utm_source=JansattaHP&utm_medium=referral&utm_campaign=jaroorpadhe_story)
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ओशो धारा- रजनीश से ओशो तक
11 दिसंबर को ओशो रजनीश की जयंती के बहाने रहस्य और विवादों के घेरे में रहे गुरु की प्रासंगिकता पर इस बार का बेबाक बोल
मुकेश भारद्वाज
संस्थागत धर्म को चुनौती दे अनुयायियों से कहा कि अपनी देह को लेकर संप्रभु बनो। दर्शनशास्त्र के अध्यापक ने जीवन को तुच्छ मानने वाले संतों के प्रवचन को पाखंड बताकर बुद्ध का ध्यान, कृष्ण की बांसुरी, मीरा के घुंघरू और कबीर की मस्ती के कोलाज से बने प्रेम को ही प्रार्थना बताकर एक नया दर्शन शुरू किया। किन वजहों से रजनीश को एक नए भगवान के रूप में स्थापित करने की कोशिश हुई और पुराने को खारिज करने के बाद नए रास्ते की खोज का सिरा फिर पुराने से जुड़ता दिखने लगा? 11 दिसंबर को ओशो रजनीश की जयंती के बहाने रहस्य और विवादों के घेरे में रहे गुरु की प्रासंगिकता पर इस बार का बेबाक बोल।
वे सत्य को परंपरा का हिस्सा नहीं मानते थे। दुनिया की भीड़ में खोए हर इंसान का अपना सत्य होता है और अपना अनुसंधान होता है। इसी अनुसंधान के तहत कई तरह के दर्शन स्थापित करने की कोशिश की गई, जिसमें दैहिक आजादी भी थी। एक संत दैहिक वर्जनाओं को त्यागने का उपदेश दे रहा था। वर्जनाओं के वस्त्रों से ढके इंसान को कह रहा था एक बार सामूहिकता में इन्हें उतार कर देखो और अपने अनुभवों का नया इतिहास लिखो।
दिल्ली और चंडीगढ़ को जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर एक पर ‘ओशो धारा’ का एक छोटा-सा बोर्ड शायद आपकी नजर में न आए, अगर आप रफ्तार से अपना रास्ता तय कर रहे हैं। वैसे भी मुरथल को यहां के ढाबों की दाल-मक्खनी और पराठों के लिए ज्यादा जाना जाता है। लेकिन इस बार गाड़ी उधर ही मुड़ गई। थोड़ा-सा अंदर जाकर मुख्य द्वार से निकलते ही जैसे एक अलग दुनिया शुरू हो गई। आचार्य से भगवान और भगवान से ओशो हुए रजनीश का आश्रम कैसा होगा, उसकी एक छवि सबके मन में है, जो भी उन्हें जानते हैं। लेकिन यहां वह छवि छिन्न-भिन्न होती हुई दिखाई देती है। रविवार होने की वजह से थोड़ी गहमागहमी थी। लेकिन लोग अपने आसपास से बिल्कुल विरक्त दिखाई दिए और आश्रम में मौजूद लोगों में छोटे बच्चों, युवाओं और मध्यम उम्र के लोगों की भरमार थी। सभी एक आरामदायक मुद्रा में दिखे। कुछ विदेशी भी थे। कुछ लोग सोमवार से शुरू होने वाले कोर्स के लिए अपना सामान लेकर आते हुए भी दिखाई दिए।
आश्रम में जगह-जगह लगीं ओशो की तस्वीरें धुंधली पड़ रही हैं। ओशो के साथ अमेरिका के आरेगान में रोल्स रायस कारों के काफिले की तस्वीरें, विश्व में पहले जैविक हमले के आरोप, अध्यात्म के नाम पर एक रियासत खड़ी करने वाले गुरु के शिष्यों का आश्रम ऐसा सामान्य-सा होगा – यह सोचा नहीं था। खासतौर पर तब जबकि बातचीत में पता चला कि इस आश्रम में रह रहे ओशो के भाई शैलेंद्र और यहां के संचालक सिद्धार्थ मुर्शिद अभी भी विदेशों में प्रवचन के लिए जाते रहते हैं। आज की भागदौड़ की तेज जिंदगी में अध्यात्म और व्यावहारिकता में तालमेल बिठाने का बीड़ा जो ओशो धारा चला रहे रजनीश के अनुयायियों ने उठाया है, उसकी कामयाबी पर स्थितियां कुछ दमदार नहीं लगीं। लेकिन उनका हौसला गजब था। सिस्सीफस की तर्ज पर प्रयास करते रहने वाली जिजीविषा भी प्रचुर मात्रा में दिखाई पड़ी। एक व्यवहारकुशल मेजबान की तरह मीरा ने यह महसूस भी नहीं होने दिया कि यहां कोई अजनबी है।
राष्ट्रीय राजमार्ग से सटे इस आश्रम में जरा-सी दूरी तय करने के बाद रफ्तार का जैसे अंत-सा हो गया। माहौल में एक शांति बनी थी जिसे किसी अनुयायी का बच्चा कभी-कभार अपनी आवाज से चीर देता था। भगवा चोगे में अनुयायी आपको थोड़ी उत्सुक निगाह से देख कर हल्के अभिवादन के बाद आगे बढ़ जाते हैं। यह सब ओशो की उस छवि के विपरीत था जो बजरिए विकीपीडिया और गूगल के आपने अपने दिमाग में बिठाई है।
अपने जीवनकाल में रजनीश ने जो ‘कल्ट फालोइंग’ शुरू की, सोशल नेटवर्क से ऐसा लगता है जैसे उसका पूरी तरह खात्मा हो गया है। लेकिन यहां आने के बाद किसी को ऐसा कोई एहसास नहीं होता। यह जरूर है कि रजनीश ने जो विशालकाय संस्था खड़ी की थी यहां उसका एक कण मात्र ही है। लेकिन है। अगर किसी को ऐसा लगता था कि रजनीश का इतिहास में नाम उनके साथ ही समाप्त हो गया तो यहां उनका अस्तित्व बचाए रखने की कोशिश साफ दिखाई देती है। बेशक इसकी हस्ती के आकार पर सवाल उठाया सकता है।
अध्यात्म के मार्ग से लेकर मोक्ष तक पहुंचने का या फिर जीवनकाल में परमानंद की अनुभूति के लिए रजनीश ने जो मार्ग चुना था, उनके अनुयायी यहां उसी के समांतर एक मार्ग का निर्माण कर रहे हैं। बस राह में पहले जैसे गति-अवरोधक नहीं हैं। कहानी कहने का अंदाज भी नया है। रजनीश के समतुल्य होकर अपनी बात कहने की कुव्वत तो शायद ही किसी में हो। उनके जीवनकाल में उनके सान्निध्य में काम कर चुकीं मां प्रिया का कहना है, ‘एक अद्भुत तेजपुंज का सा अस्तित्व था ओशो का। आपके पास उनसे वशीभूत होने के सिवा कोई चारा नहीं था’। यों यह संयोग है कि रजनीश पर लगे अनगिनत आरोपों में एक यह भी है कि वे सबको अपने सम्मोहन में जकड़ लेते थे। आधुनिक युग में ‘हिप्नोटिज्म (वशीकरण)’ का आरोप तो कइयों पर लगा है, पर रजनीश जैसी गंभीरता से किसी पर भी नहीं।
पेशे से डॉक्टर लोकराज शर्मा ने अध्यात्म को कभी गंभीरता से नहीं लिया। आश्रम में उनका आगमन भी एक डॉक्टर की हैसियत से ही हुआ। लेकिन यहां आ जाने के बाद उनका कहना है कि उनके जीवन में एक नए युग की शुरुआत हो गई। ‘ऐसा लगा कि जैसे जीवन के झंझावात में फंसी मेरी नाव को सहज किनारा मिल गया हो’। यों आश्रम के संचालक सिद्धार्थ भी कॉरपोरेट जगत में अपनी भारी-भरकम नौकरी छोड़ कर अध्यात्म के मार्ग पर अग्रसर हुए हैं। उनका कहना है कि एक बार यहां रम जाने के बाद मुंबई जैसे महानगर को विदा कहने का जरा भी अफसोस महसूस नहीं हुआ।
कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम कह कर उससे मुक्त होने की बात की थी तो ओशो रजनीश जीवन की उत्सवधर्मिता को ही धर्म मानते थे। और अस्सी के दशक में बहुत से लोगों पर ओशो का यह धर्म अफीम की तरह असर करने लगा था। लोग घर-बार छोड़कर उनके आश्रम आ रहे थे, अपनी संपत्तियों को उनके नाम कर रहे थे। जिस हिसाब से उनके अनुयायियों की तादाद बढ़ रही थी वह समाज, राजनीति और धर्म के परंपरागत ठेकेदारों को खौफ में भी डाल रही थी। उनके अनुयायी समाज में एक समानांतर सत्ता स्थापित करने की ओर बढ़ रहे थे। इसके साथ ही उनके अनुयायियों पर लोगों को सामूहिक तौर पर जहर देने के भी आरोप लगे और अमेरिकी प्रशासन उनके खिलाफ हरकत में आया।
एक खास समुदाय के रूप में ओशो को मानने या नहीं मानने से बड़ा सवाल है कि आखिर परंपरागत धर्म हमें कहां पर जकड़ देता है कि अगर एक संत आकर संवाद की बात करने लगता है तो वह नया लगने लगता है। खास तरह की दैहिक प्रक्रिया जो संसार के चलने का चक्र है को जब सारे धर्म वर्जनाओं में कैद कर देते हैं तो ओशो उसी में समाधि लगाने की बात करते हैं। वो चंचल मन को रोकने की मुखालफत करते हुए अपने शिष्यों से कह रहे थे कि इसे निकलने का रास्ता दोगे तो दिमाग खुद ब खुद शांत हो जाएगा। जीवन के आस्वादों को त्यागने के बजाय उसका स्वाद लो। स्वाद के प्रति मन को जागृत करोगे तभी उस स्वाद से ऊपर उठ पाओगे। शिष्यों को महसूस हुआ कि ये हमारी विचार करने की क्षमता को जागृत कर रहे हैं, हमें सोचने से, स्वाद लेने से रोक नहीं रहे हैं। और वे आजादी, खुशी, उत्सव, संभोग जैसी बातों से सम्मोहित होते जाते हैं। दर्शनशास्त्र के अध्यापक ने जीवन और धर्म का अपना नया दर्शन तैयार किया। उन्हें लगा कि अभी तक धर्म को जीवन विरोधी बना दिया गया है। साधारण जीवन को क्षुद्र, तुच्छ और माया कह कर खारिज करने के खिलाफ ही उन्होंने अपनी नई अवधारणा गढ़ी।
ओशो के प्रति लोगों की रूमानियत और उन पर समाज और शासन के हमलों की एक ही वजह थी कि उन्होंने संस्थागत धर्म के खिलाफ हल्ला बोल दिया था। भगवाधारी साधुओं को पाखंडी बता गृहस्थ धर्म के संसार की वकालत की और जीवन अस्तित्व को ही ईश्वर का प्रतीक बताया। इस तरह की स्वच्छंदता को समाज और शासन का परंपरावादी ढांचा पचा नहीं पाया और इनके अनुयायियों पर भी सवाल उठने लगे और हंसी, आजादी, स्वार्थहीनता और शरीर की संप्रुभता खोज रही ‘ओशो धारा’ सिकुड़ती चली गई। लेकिन संस्थागत धर्म की वर्जनाओं के खिलाफ उन्होंने जो मुक्ति संग्राम छेड़ा वह इतिहास का अहम हिस्सा तो बन ही गया।
इसके बावजूद एक सच यह भी है कि धर्म के जिस पारंपरिक ढांचे और रूढ़ अर्थ के दायरे से ओशो ने धर्म को बाहर निकालने का दावा किया, उनका पंथ भी उससे कितना बाहर और अलग रह सका। आखिर किन वजहों से उनके अनुयायी और उनके पंथ के कारवां को आगे बढ़ाने वाले कमोबेश या प्रकारांतर से उसी भावबोध के शिकार हुए, जिन पर ओशो ने कभी सवाल उठाए या फिर उनकी विवेचना करके दुनिया के लिए उन्हें अनुपयोगी बताया था। किन वजहों से रजनीश को एक नए भगवान के रूप में स्थापित करने की कोशिश हुई और पुराने को खारिज करने के बाद नए रास्ते की खोज का सिरा फिर पुराने से जुड़ता लगे तो उसे कैसे देखेंगे! (http://www.jansatta.com/blog/bebak-bol-blog-on-osho-jubilee/204477/?utm_source=JansattaHP&utm_medium=referral&utm_campaign=update_story) साभार-जनसत्ता
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