नई दिल्ली, (ज्यां द्रेज (अर्थशास्त्री) बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए)। गुजरात के इस गांव में नोटबंदी का असर नहीं है. बीते दो सप्ताह के दौरान 500 और 1000 के पुराने नोट के चलन को बंद करने के फ़ैसले पर काफ़ी कुछ कहा गया है. इतना कहा जा चुका है कि कुछ नई बात कहना मुश्किल है. बावजूद इसके इस मुद्दे पर अभी काफ़ी कंफ़्यूजन बना हुआ है. उदाहरण के लिए 'ब्लैक मनी' टर्म को ही लीजिए. इसका इस्तेमाल दो बहुत अलग अलग चीज़ों के लिए होता है. अर्थशास्त्र में 'ब्लैक मनी' का मतलब ग़ैर क़ानूनी आमदनी से है. वैसी आमदनी जिस पर कर नहीं चुकाया गया हो, ब्लैक मनी कहलाता है. इसमें गांजा-चरस बेचने से होने वाली आमदनी भी शामिल है और रिश्वत में लिया गया पैसा भी.
जहां तक लोगों की बात है, उनके लिए 'ब्लैक मनी' का मतलब सूटकेस या बेसमेंट में छुपाकर रखा गया नोटों का बंडल है, जिसका इस्तेमाल ग़ैर क़ानूनी कामों में होता है. ये दोनों कांसेप्ट एकदम अलग हैं और इन दोनों के अंतर को नहीं समझ पाना भी विमुद्रीकरण (डीमॉनिटाइजेशन) की बहस को लेकर ग़लतफहमियों को जन्म देता है. बहरहाल, केवल विमुद्रीकरण (डीमॉनिटाइजेशन) से ग़ैर क़ानूनी आमदनी बंद नहीं हो सकती. इससे केवल ग़ैर क़ानूनी ढंग से जमा बैंक नोट को निशाना बनाया जा सकता है, लेकिन ऐसे नोट शायद बहुत ज़्यादा नहीं होंगे. क्योंकि ऐसी आमदनी वाले लोग सूटकेस में पैसा रखने से बेहतर उपाय जानते हैं. वे इन पैसों को खर्च कर देते हैं, निवेश करते हैं, दूसरों को कर्ज़ दे देते हैं या फिर दूसरे तरीकों से उसे बदल लेते हैं. वे इन पैसों से ज़मीन जायदाद खरीदते हैं, शाही अंदाज़ में शादी करते हैं, दुबई जाकर ख़रीददारी करते हैं या फिर राजनेताओं का समर्थन करते हैं.
निस्संदेह, इन लोगों के पास किसी वक़्त ऐसा कुछ पैसा पास भी रहता होगा, लेकिन 'ब्लैक मनी' के नाम पर ऐसे बचे हुए पैसों की पीछे पड़ना वैसा ही जैसा कि खुले नल के नीचे ज़मीन पर पोछा लगाना. इसे 'ब्लैक इकॉनमी' पर निर्णायक क़दम बताना तो बड़े भ्रम में पड़ना है. इस ओर कई मशहूर अर्थशास्त्रियों ने संकेत दिया है, लेकिन सरकार ने उनपर कोई ध्यान नहीं दिया है. पैसों की सबसे ज़्यादा जमाखोरी राजनीतिक पार्टियां करती हैं. चुनाव अभियान को देखते हुए ये करना उनके लिए ज़रूरी भी होता है. तो ऐसे में नोटबंदी के इस फ़ैसले के जरिए विपक्षी राजनीतिक पार्टियां असली निशाना हो सकती हैं. सत्तारूढ़ पार्टी को सत्ता में होने के कारण इस कदम से कम नुकसान होगा. मैं राजनीतिक पार्टियों के अंदर पारदर्शिता का पूरी तरह हिमायती हूं लेकिन ऐसा करने का यह सबसे सही तरीका नहीं है. नोटबंदी के फ़ैसले को बढ़चढ़ कर बताने वाली सरकार इसके नुक़सान को कमतर बताने की कोशिश कर रही है. कुछ नुकसान तो साफ़ दिखाई दे रहे हैं- लंबी कतारों में लोग समय जाया कर रहे हैं, गैर संगठित क्षेत्रों में पैसों की कमी हो गई है, मज़दूरों का काम छिन गया है और कई लोगों की मौत भी हुई है.
अर्थव्यवस्था पर इसके गंभीर परिणाम भी जल्द महसूस किए जाएंगे. कुछ रिपोर्टों में बताया जा रहा है कि ग्रामीण बाज़ार में मंदी महूसस की जा रही है. उदाहरण के लिए, इंदिरा गांधी इंस्टीच्यूट ऑफ़ डेवलपमेंट रिसर्च की निधि अग्रवाल और सुधा नारायण के अध्ययन के मुताबिक नोटबंदी के फ़ैसले के एक सप्ताह के अंदर कई चीज़ों की आवक मंडी में काफ़ी तेज़ी से गिरावट आई है. मंडी में कपास की आवक में 30 फ़ीसदी की कमी हुई है, जबकि सोयाबीन की आवक 87 फ़ीसदी गिर गई है. पिछले साल इस समय इस तरह की गिरावट नहीं आई थी. जब किसानों के पास नकदी की कमी होगी तो खेतिहर मज़दूर और स्थानीय कामगारों की तकलीफ़ भी बढ़ेगी. मनरेगा के मज़दूरों पर भी असर पड़ेगा. पहले से ही उनको मज़दूरी काफी देरी से मिलती रही है और मौजूदा हालात में जब बैंक स्टाफ अगले कई सप्ताह तक ये काम नहीं करेंगे तो बैंक से अपनी मज़दूरी ले पाना इनके लिए और भी कठिन होगा. यही स्थिति सामाजिक सुरक्षा पेंशन, वृद्धावस्था पेंशन और बुर्जुगों को मिलने वाली पेंशन की होगी. ये पेंशन लाखों लोगों के लिए ज़िंदगी की डोर है. हाशिए पर रह रहे लोगों के लिए ये डरावनी स्थिति है. नोटबंदी से होने वाले फ़ायदे और नुक़सान दोनों अनुमानों पर आधारित हैं. लेकिन इस स्तर पर नोटबंदी का फ़ैसला अर्थव्यवस्था पर खेला गया एक बड़ा जुआ है. वैसे फिलहाल, इसके पूरे असर के बारे में अनुमान लगा पाना बेहद मुश्किल है. सबसे बेहतर स्थिति तो यही होगी कि शुरुआती झटकों के बाद अर्थव्यवस्था स्थिर हो जाए और ब्लैक मनी का बहुत बड़ा हिस्सा ख़त्म हो जाए. वहीं सबसे ख़राब स्थिति ये हो सकती है कि लंबे समय तक आर्थिक मंदी आ जाए और ग़ैर क़ानूनी गतिविधियों पर बहुत अंकुश भी नहीं लग पाए. शुरुआती आर्थिक झटके का असर तो दिख रहा है, लेकिन अगले कुछ महीनों में और भी प्रभाव दिखने शुरू होंगे. जैसे रबी फ़सल की बुआई में देरी का असर, फ़सलों की पैदावार पर भी होगा. जब काम देने वालों के पास नकदी की कमी होगी तो मजदूरों की नौकरियां जाएंगी.
यहां ये भी याद रखना जरूरी है कि मैक्रो इकॉनामिक ट्रेंड्स काफी हद तक उम्मीदों पर निर्भर होते हैं. अगर शुरुआती झटकों से उलट असर पड़ा है तो आर्थिक विकास की रफ्तार पर असर होगा. इसे दूसरे शब्दों में कहें तो, तेजी से फलती फूलती अर्थव्यवस्था में नोटबंदी का फ़ैसला, रेसिंग कार की टायर में गोली दागने जैसा फ़ैसला है. बहरहाल, इस जुए में ना केवल आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाले सूचकांक दांव पर हैं, बल्कि लोगों की जिंदगियां भी दांव पर लगा दी गई हैं. एक बूढ़ी विधवा जो अपने मामूली पेंशन के भरोसे गुजर बसर कर रही है, अगर वह कुछ सप्ताह तक अपने बैंक खाते से पैसे नहीं निकाल सकी, तो उनका क्या होगा? शहरों में दूर दराज से आने वाले मज़दूर से अगर उनसे काम लेने वाले कह दिया कि स्थिति सामान्य होने के बाद भुगतान मिलेगा तो वह खाली हाथ अपने गांव जाने को मज़बूर हो जाएगा. गांव के किसी बढ़ई को इसलिए काम नहीं मिल पाएगा क्योंकि लोग ज़्यादा ज़रूरी काम के लिए नकद पैसा बचाना चाहेंगे. नोटबंदी का यही वो घातक पहलू है जो इस फैसले को अस्वीकार्य बनाता है.
नोटबंदी के फ़ैसले की तुलना सर्ज़िकल स्ट्राइक से की जा रही है. ये ठीक तुलना है. दोनों ही मामले सांकेतिक ज़्यादा हैं, इनसे बहुत कुछ हासिल नहीं किया जा सकता और दोनों में बड़ा जोख़िम है. ऐसे सांकेतिक स्ट्राइक के बदले भ्रष्टाचार की जड़ों पर लगातार हमले की ज़रूरत है. इस दिशा में कई उपयोगी उपाय और सुझाव संसद के सदन में हैं, जिनमें व्हिसल ब्लोइंग, शिकायत निवारण, चुनाव सुधार, कर सुधार और राजनीतिक पार्टियों के चंदे के मसले शामिल हैं. लेकिन मौजूदा केंद्र सरकार, इन सुझावों में कम दिलचस्पी ले रही है. (साभार)
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