अहमदाबाद। 16 मई की दोपहर दिल्ली में गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने आईं। पिछली जुलाई में जब आरक्षण की मांग को लेकर पटेलों का हिंसक आंदोलन गुजरात में भड़का था, 74 वर्षीया आनंदीबेन तभी से अपनी कुर्सी बचाने की लड़ाई में उलझ गई थीं। हालात से निबटने के उनके तरीके पर पार्टी के भीतर गहरा असंतोष था और उन्हें हटाने की मांग तेज होती जा रही थी। बीजेपी के भीतर उनके सर्वाधिक कटु आलोचक पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने मुख्यमंत्री बदलने की मांग तेज कर दी थी वे इस बात से परेशान थे कि अप्रैल में राज्य में भेजे गए एक तथ्यान्वेषी दल ने पाया था कि पार्टी का चुनावी आधार काफी तेजी से घट रहा है। इस अध्ययन ने मुख्यमंत्री के नेतृत्व पर भी सवालिया निशान लगा दिया था। इसीलिए मामला अगर-मगर का था ही नहीं। बात बस इतनी-सी थी कि आनंदीबेन कब जाती हैं। प्रधानमंत्री के साथ आधे घंटे तक चली बैठक के अंत में आनंदीबेन ने आग्रह किया था कि उनकी विदाई सम्मानजनक होनी चाहिए। उन्होंने अपने 75वें जन्मदिवस पर यानी 21 नवंबर को मुख्यमंत्री पद छोडऩे का प्रस्ताव रखा. मोदी ने इस इच्छा पर अपनी मुहर लगा दी, बावजूद इसके कि अमित शाह की ही तरह आनंदीबेन भी पार्टी के भीतर मोदी के सबसे विश्वस्त सहयोगियों में एक रही हैं। जुलाई आते ही उना उबल पड़ा। अचानक एक वीडियो वायरल हो गया, जिसमें गोहत्या के कथित आरोप में कुछ दलितों को नंगा करके पीटते हुए शिवसैनिकों को दिखाया गया। इस पर राज्य भर में दलित समुदाय भड़क उठा। विपक्ष के नेताओं का उना में जमघट लगने लगा और दलितों का प्रदर्शन रुकने के बजाए और फैलने लगा। तब जाकर 28 जुलाई को मोदी ने एक फैसला किया। उन्होंने आनंदीबेन को जो जीवनदान दिया था, उसे वापस ले लिया।
एक संदेशवाहक ने आनंदीबेन को सूचित किया कि दलित आंदोलन के बाद यह जरूरी हो गया है कि प्रधानमंत्री की ओर से किसी कार्रवाई का संदेश जनता में जाए। उसने मुख्यमंत्री को बताया कि मोदी चाहते हैं कि वे स्वेच्छा से अपनी कुर्सी छोड़ दें। आनंदीबेन इस प्रस्ताव को ठुकरा नहीं पाईं। उन्होंने 31 जुलाई को एक सार्वजनिक समारोह में राज्य की सभी सड़कों से टोल टैक्स हटाने की घोषणा कर दी। अगले दिन 1 अगस्त को उन्होंने राज्य के कर्मचारियों के लिए सातवें वेतन आयोग का ऐलान कर डाला। उसके बाद पटेल आंदोलनकारियों के खिलाफ पिछले साल पुलिस द्वारा लगाए गए 430 मुकदमों में से 391 वापस ले लिए। उन्होंने 2 अगस्त को मेडिकल और डेंटल कॉलेजों में गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों से आने वाली लड़कियों के लिए शिक्षा मुफ्त कर दी। इन तमाम घोषणाओं के बाद उन्होंने फेसबुक पर एक नोट लिखकर और एक वीडियो पोस्ट के माध्यम से अपना इस्तीफा सार्वजनिक कर दिया शायद पहली बार किसी मुख्यमंत्री ने इस तरह इस्तीफा दिया होगा। आनंदीबेन का जाना बीजेपी की तमाम दिक्कतों में से महज एक को हल करता है। उनकी सरकार के खिलाफ बने माहौल को इसने दुरुस्त किया है ताकि उनका उत्तराधिकारी कोरे कागज पर अपनी शुरुआत कर सके। दिक्कत यह है कि गुजरात विधानसभा चुनावों में डेढ़ साल से भी कम वक्त बचा है। बीजेपी का उत्तर प्रदेश के लिए तैयार मिशन 2017 पिछले साल ही चुनौतीपूर्ण जान पड़ रहा था। अब एक और संकट आन पड़ा है। प्रधानमंत्री मोदी की अपनी जमीन खतरे में है। इसी जमीन पर उन्होंने अपनी सियासी प्रतिष्ठा कायम की थी और गुजरात मॉडल की नींव रखी थी। गुजरात में बीजेपी की हार पार्टी और प्रधानमंत्री का हौसला तोडऩे वाली होगी। इतना तो तय है कि इससे उनका प्रभामंडल पर्याप्त क्षतिग्रस्त होगा, जो 2019 के लोकसभा चुनाव को जीतने के लिए एक अनिवार्य शर्त है।
विकास के गुजरात मॉडल को 13 साल का झूठा प्रचार करार देने वाले कांग्रेस के राज्यसभा सांसद अहमद पटेल कहते हैं कि गुजरात की मुख्यमंत्री का इस्तीफा 2017 के चुनाव में बीजेपी की तयशुदा हार का संकेत है। आनंदीबेन का जाना जमीनी वास्तविकताओं को नहीं बदल सकता। जानकार बताते हैं कि कानून-व्यवस्था से लेकर राजकाज तक अधिकतर क्षेत्र उनके राज में कमजोर पड़ गए। उनके पास एक बड़ा मौका था, लेकिन वे अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाईं क्योंकि उनके भीतर करिश्मे का अभाव था। उनके मुख्यमंत्री बनने के एक साल बाद भ्रष्टाचार के आरोप मुखर हो गए। सबसे ताजा मामला एक अप्रामाणिक ऑडियो क्लिप का है जिसमें बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता पार्टी के विधायक से कहते हैं कि मुख्यमंत्री ने एक जमीन का सौदा करवाया है जिसमें कई लोगों के पास काफी पैसा गया है। जैसे-जैसे निजी आरोपों की झड़ी लगती गई, नवाचारी योजनाओं के जरिए अर्जित उनकी लोकप्रियता पर बट्टा लगता गया।
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