भाषा सिंह |
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने आपको मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करके अपनी रिवायत तोड़ी है, अभी तक पार्टी मुख्यमंत्री पद के नाम की घोषणा नहीं करती थी ?
राजनीति में कुछ भी अपवाद नहीं होता। जरूरत और समय के लिहाज से अपने सिद्धांतों और लोकतंत्र को बचाने के लिए फैसले करने होते हैं। मैं इस बात का शुक्रिया अदा करती हूं कि पार्टी ने यह जिम्मेदारी मुझे सौंपी है।
उत्तर प्रदेश कांग्रेस के लिए एक मुश्किल राज्य है। यहां कांग्रेस लंबे समय से रस्ता से बाहर है। कैसे इस चुनौती से लड़ेंगी आप ?
मैं इसे लेकर बहुत उत्साहित हूं। उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा प्रांत है, लेकिन सबसे पिछड़ा हुआ भी है। जिस तरह से हमने दिल्ली को देश का सबसे आधुनिक, विकसित राज्य बनाया, इसे विश्वस्तरीय सुविधाओं से लैस किया, वैसा ही हम उत्तर प्रदेश का करना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश विकास से महरूम है। हमारा सपना है कि यह आगे बढ़े। यहां सिर्फ एक धर्म या जाति नहीं बल्कि सभी का, और जब मैं कहती हूं, सभी का तो इसका मतलब है हर तबके, हर जाति, हर वर्ग का, प्रदेश के सभी लोगों का समुचित विकास हो। बहुत दिनों बाद आपकी घर वापसी हो रही है। आपने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत उत्तर प्रदेश के कन्नौज इलाके से की थी। आपका ससुराल रहा है, लेकिन लंबे समय से आप यहां से कटी हुई हैं। साथ ही यह आपकी अब तक की छवि से बिलकुल उलट है। दिल्ली में आप कमान संभालने वाली स्वतंत्र छवि वाली प्रशासक के तौर पर रही है। नई छवि में कैसे एडजस्ट कर पा रही हैं ? देखिए, इसमें एडजस्ट करने जैसी कोई बात नहीं है। मेरा राजनीतिक कैरियर उत्तर प्रदेश से ही शुरू हुआ था। मेरे ससुर और हमारी सारी फैमिली उत्तर प्रदेश की ही है। लिहाजा, उत्तर प्रदेश मेरे लिए अजनबी नहीं है। हालांकि यह भी सही है कि बहुत बरस हो गए हैं। बहुत सी चीजें बदली हैं। लेकिन मेरा राजनीतिक दौर वहीं से शुरू हुआ।
लेकिन तब से लेकर अब तक उत्तर प्रदेश में बहुत फर्क आया है, कैसे करेंगी राजनीति, अब आपको वहां लोग दिल्ली वाली या बाहर वाली के तौर पर ही ज्यादा देखेंगे ? फर्क सिर्फ उत्तर प्रदेश में नहीं, वह हर जगह आया है। हम आज के हालात में, आज के मुद्दों पर चुनाव लड़ने जा रहे हैं। बहुत बढ़िया ढंग से चुनाव लड़ेंगे, आप लोग देखेंगे।
उत्तर प्रदेश में एक तरफ लूटतंत्र और दूसरी तरफ सांप्रदायिक उन्माद फैलाया जा रहा है, कैसे निपटेंगी इससे ?
उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था की स्थिति बहुत खराब है। दिल्ली में भी कानून व्यवस्था पहले बहुत खराब थी, हमने ठीक किया। उत्तर प्रदेश में भी करेंगे। दूसरी तरफ सत्ता पाने के लिए सांप्रदायिक वैमन्सय फैलाया जा रहा है। कांग्रेस इन सबके खिलाफ है। हमें नफरत की राजनीति बर्दाश्त ही नहीं। मुझे थोड़ा समय दीजिए, वहां जाकर कमान संभालकर रणनीति बनानी और अमल करनी है।
शीला दीक्षित की बड़ी उम्र को 'नुकसान' नहीं, 'अवसर' मानते हैं प्रशांत किशोर
जिसे ज़्यादातर लोग नुकसान की वजह मानते हैं, उसी बात को चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर एक अवसर मान रहे हैं। जी हां, हम बात कर रहे हैं उत्तर प्रदेश के लिए कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार घोषित की गईं शीला दीक्षित की 78 साल की उम्र की। प्रशांत किशोर के करीबी सूत्रों का कहना है कि दिल्ली की तीन कार्यकाल तक मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित की उम्र को उत्तर प्रदेश में 'तजुर्बे के प्रतीक' और 'भावनात्मक अपील' के रूप में इस्तेमाल करने के लिए एक खास नारा बनाया गया है - "मेरे जीवन का एक ही सपना, उत्तर प्रदेश को दिल्ली जैसा बनाना।" शीला के नाम की औपचारिक घोषणा कांग्रेस ने गुरुवार को ही की है, लेकिन उससे कई हफ्ते पहले से एक तरफ से मिल रहे संकेतों और दूसरी ओर से मिल रहे खंडनों ने घोषणा के उत्साह को काफी कम कर दिया, और इस बात को शीला खुद भी कबूल करती हैं। NDTV से बातचीत में उन्होंने कहा, "बढ़िया होता, अगर यह (मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार बनाने का फैसला) पहले तय कर लिया गया होता... लेकिन चूंकि ऐसा नहीं हुआ है, तो हमें अब जो भी वक्त बचा है, उसका बेहतरीन इस्तेमाल करना होगा...।" सूत्रों का कहना है कि शीला दीक्षित की तुलना में आधी से भी कम उम्र के 37-वर्षीय प्रशांत किशोर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान दिल्ली की मुख्यमंत्री के रूप में शीला के तीन कार्यकालों के बारे में जोरशोर से प्रचार करेंगे... वैसे, राजनेता के रूप में उनकी उपलब्धियों के अतिरिक्त प्रशांत इस ओर भी यूपी की जनता का ध्यान आकर्षित करेंगे कि शीला दीक्षित का विवाह ब्राह्मण परिवार में हुआ है, ताकि ऊंची जाति के वोटों को कांग्रेस की ओर समेटा जा सके। प्रशांत किशोर को चुनावी रणनीति विशेषज्ञ के रूप में वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव ने स्थापित किया था, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए रणनीति तैयार की थी, जिसकी मदद से भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने शानदार जीत हासिल की थी। इसके बाद प्रशांत ने बीजेपी से नाता तोड़कर पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से हाथ मिलाया था, और सीएम के रूप में उन्हें लगातार तीसरा कार्यकाल दिलाने के निमित्त बने। इसके बाद प्रशांत अब पंजाब और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के लिए कांग्रेस की रणनीति बना रहे हैं। इस तरह की ख़बरें भी आ रही थीं कि प्रशांत किशोर को कांग्रेस में मौजूद अनिर्णय और हेरार्की (पदानुक्रम) के खिलाफ जूझना पड़ रहा है, लेकिन प्रशांत के करीबियों ने इस बात का खंडन किया है कि वह प्रदेश इकाई अध्यक्ष के रूप में फिल्म अभिनेता से राजनेता बने राज बब्बर को चुने जाने के खिलाफ थे। फिल्म अभिनेता के रूप में कामयाब पारी खेलने के बाद राज बब्बर समाजवादी पार्टी के नेता बने थे, और फिर वर्ष 2008 में कांग्रेस से जुड़े और कुछ ही महीने बाद उन्होंने अपनी महत्ता साबित कर दी, जब उन्होंने समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव की पुत्रवधू और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल यादव को हराकर एक लोकसभा सीट जीत ली।
सो, अब जहां एक ओर राज बब्बर की स्टार अपील राज्यभर में भुनाई जाएगी. वहीं प्रशांत किशोर के करीबी सूत्रों का कहना है कि कांग्रेस प्रचार समिति के प्रमुख बनाए गए संजय सिंह अमेठी और आसपास के इलाकों में पार्टी कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार करने में सफल रहेंगे। संजय अमेठी के पूर्व राजपरिवार का हिस्सा हैं, और अमेठी लोकसभा सीट राहुल गांधी का चुनाव क्षेत्र है, जो पार्टी में नंबर दो, यानी उपाध्यक्ष की हैसियत से सिर्फ अपनी मां और पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी को जवाबदेह हैं। यहां एक बात यह भी ध्यान देने लायक है कि संजय सिंह को दरकिनार किया जाना नुकसानदायक भी हो सकता था, क्योंकि वह एक बार कांग्रेस को छोड़कर बीजेपी में शामिल हो चुके हैं, और वर्ष 2003 में कांग्रेस में लौटे थे। इसके बाद उन्हें वर्ष 2014 में राज्यसभा सदस्य बनवाया गया था, क्योंकि लगने लगा था कि वह फिर पार्टी को छोड़कर जाने की तैयारी कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के अलावा प्रशांत किशोर पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए भी पार्टी की रणनीति तैयार कर रहे हैं, जहां सत्तासीन बीजेपी-अकाली दल सरकार की छवि कुछ खास अच्छी नहीं रही है। लेकिन फिलहाल दिल्ली के मौजूदा मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी पंजाब में लोगों का ध्यान खींचने में ज़्यादा कामयाब रही है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान सिर्फ दो साल पुरानी पार्टी होने के बावजूद आम आदमी पार्टी ने पंजाब से चार लोकसभा सीटें जीती थीं। वैसे, यहां भी प्रशांत किशोर को एक वरिष्ठ उम्रदराज़ नेता का ही प्रचार करना पड़ रहा है। कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री पद के दावेदार माने जा रहे 74-वर्षीय कैप्टन अमरिंदर सिंह के प्रचार के लिए भी प्रशांत किशोर ने नारा बनाया है - "मेरा एक ही सपना है, पंजाब को मजबूत बनाना..."
पूर्वांचल बनेगा सियासी मुद्दा
छोटे राज्यों के गठन को लेकर सियासी पार्टियों का अपना अलग-अलग नजरिया हो सकता है लेकिन देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल के गठन को लेकर मांग तेज हो गई है। साल 2012 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले अलग पूर्वांचल राज्य के गठन की मांग तेज होने लगी थी और पूर्वांचल के विकास को सियासी मुद्दा बनाया गया था। आज एक बार फिर पूर्वांचल राज्य के गठन की मांग जोर पकड़ने लगी। भाजपा और बसपा सीधे तौर पर तो नहीं लेकिन अलग राज्य के गठन की पक्षधर है वहीं समाजवादी पार्टी नहीं चाहती कि अलग राज्य का गठन हो। बुंदेलखंड के बाद पूर्वांचल उत्तर प्रदेश का सबसे पिछड़ा इलाका है। इसकी वजह जातिगत समीकरण के साथ-साथ विशाल जनसंख्या है। पूर्वांचल के प्रमुख मुद्दों में नागरिक बुनियादी सुविधाओं की कमी उचित ग्रामीण शिक्षा और रोजगार, कानून-व्यवस्था प्रमुख चिंता का कारण है। लेकिन भाजपा इस इलाके को लेकर खासा गंभीर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बनारस से लोकसभा चुनाव लड़कर इस इलाके के विकास को लेकर प्रतिबद्धता जताई। इतना ही नहीं, गाजीपुर के सांसद मनोज सिन्हा को केंद्र में रेल राज्य मंत्री बनाया तो देवरिया के सांसद कलराज मिश्र को कैबिनेट मंत्री बनाकर इलाके में विकास की एक किरण जगाई। वहीं कैबिनेट विस्तार में चंदौली के सांसद महेंद्र नाथ पांडेय और मिर्जापुर की सांसद अनुप्रिया पटेल को केंद्र में मंत्री बनाकर यह संदेश देने की कोशिश की इस क्षेत्र के विकास के लिए केंद्र सरकार कितनी गंभीर है। लेकिन सरकार के दावों के बावजूद यह क्षेत्र विकास से कोसों दूर है। कई सरकारें आई और चली गईं लेकिन पूर्वांचल का पिछड़ापन जस का तस रहा। अलग पूर्वांचल राज्य के गठन की मांग की लड़ाई लंबे समय से होती रही है लेकिन संगठित रूप से लड़ाई नहीं हो पाने के कारण पूर्वांचल का मुद्दा हमेशा नेपथ्य में चला गया। छोटी-छोटी सामाजिक लड़ाइयां लड़ी गईं। जब जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री थे उस समय गाजीपुर के सांसद विश्वनाथ प्रसाद गहमरी ने पूर्वांचल के पिछड़ेपन की चर्चा की थी। उस समय नेहरू ने पूर्वांचल के आर्थिक व सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए पटेल आयोग का गठन किया। इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट भी सरकार को सौंपी लेकिन उस रिपोर्ट का क्या हुआ आजतक पता ही नहीं चला। साठ के दशक में जब आंध्र प्रदेश को अलग राज्य बनाए जाने की मांग तेज हुई उस समय भी पूर्वांचल को अलग राज्य को लेकर अभियान चलाया गया। लेकिन यह आंदोलन जोर नहीं पकड़ सका।
आंध्र प्रदेश अलग हो गया, आंध्र प्रदेश से अलग होकर तेलंगाना बन गया लेकिन पूर्वांचल की मांग ज्यो की त्यों धरी रह गई। 1982-83 में विजय दुबे ने इस आंदोलन को पूर्वांचल मुक्ति मोर्चा के बैनर तले शुरू किया। उस समय कई लोग इस आंदोलन से जुड़े लेकिन समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव पूर्वांचल के विरोधी रहे और आंदोलन के नेताओं को पद का लालच देकर अलग करते रहे। सतरुद्ध प्रकाश से लेकर प्रभुनारायण सिंह, हरिकेवल प्रसाद आदि का नाम शामिल है। छोटे-छोटे समूहों में बंटे होने के कारण पूर्वांचल के बंटवारे का कोई बड़ा मुद्दा नहीं उठ सका। अब एक राजनीतिक दल पूर्वांचल पीपुल्स पार्टी का गठन कर इस आंदोलन को जीवित किया जा रहा है। पूर्वांचल के कई जनपदों में पार्टी के सदस्य सक्रिय हैं और अलग राज्य को लेकर अभियान शुरू कर चुके हैं। पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव विनोद सिंह आउटलुक से कहते हैं कि राजनीतिक दलों ने विकास के नाम पर पूर्वांचल के साथ केवल धोखा किया है। किसी भी पार्टी ने यहां के विकास के बारे में नहीं सोचा। यही कारण है कि आज पूर्वांचल की गिनती देश के पिछड़े इलाके में होने लगी है। सिंह कहते हैं कि आंदोलन को बड़ा स्वरूप देने के लिए अब राजनीतिक पार्टी का गठन किया गया और आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी उम्मीदवार भी खड़ा करेगी। पूर्वांचल के विकास की उपेक्षा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गोरखपुर की खाद फैक्ट्री से लेकर कई चीनी मिलें बंद हो गईं। आजमगढ़, मऊ, गाजीपुर, बनारस के बुनकर बदहाली के कगार पर आ गए। भदोही के कालीन उद्योग पर बुरा प्रभाव पड़ा। बड़ी संख्या में लोग रोजगार की तलाश में पलायन करने लगे। आज भी देश की आर्थिक नगरी मुंबई में पूर्वांचल के लोगों का कब्जा है। यह सब इसलिए कि पूर्वांचल के विकास को लेकर कभी किसी सरकार ने ठोस कदम नहीं उठाया। केंद्रीय योजनाओं के तहत बुनकरों के लिए विशेष पैकेज की घोषणा की गई। प्रदेश सरकार ने बंद पड़ी चीनी मिलों को खोलने की पहल की। लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ नहीं हुआ। आज पूर्वांचल के किसान से लेकर बुनकर तक हताशा, कर्ज, बीमारी की चपेट में आ गए हैं। चुनाव सिर पर हैं इसलिए पूर्वांचल के विशेष पैकेजों की घोषणा से लेकर तमाम तरह के वादे किए जा रहे हैं लेकिन किसी सियासी दल ने पूर्वांचल के प्रति अपनी गंभीरता नहीं दिखाई। जब-जब राज्यों के बंटवारे की बात हुई तो बसपा प्रमुख मायावती ने कहा कि अलग राज्य बनाया जाना चाहिए लेकिन समाजवादी पार्टी ने विरोध किया। वहीं भाजपा ने भी छोटे राज्यों का समर्थन किया ताकि विकास के लिए किए जा रहे वायदे पूरे किए जा सकें।
पूर्वांचल राज्य की मांग सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी भी करती आ रही है इसलिए पार्टी ने भाजपा के साथ गठबंधन कर विधानसभा चुनाव भी लड़ने की तैयारी शुरू कर दी है ताकि पूर्वांचल की मांग और तेज हो सके। पार्टी अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर कहते हैं कि जब तक पूर्वांचल अलग राज्य नहीं बनेगा तब तक यहां का विकास नहीं हो सकता। पूर्वांचल को लेकर अब हर तबके से लोग सामने आ रहे हैं। बनारस के डीएवी कॉलेज के प्रोफेसर सतीश कुमार सिंह कहते हैं कि पूर्वांचल के विकास का सपना तभी पूरा होगा जब अलग राज्य का दर्जा मिलेगा। वहीं पूर्वांचल पीपुल्स पार्टी के हजारों कार्यकर्ताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर अलग राज्य बनाने की पहल करने की मांग की है। पार्टी के कार्यकर्ता पूर्वांचल के इलाकों में घर-घर जाकर अलग राज्य को लेकर हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं। पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव विनोद सिंह कहते हैं कि जो भी दल अलग पूर्वांचल राज्य की बात करेगा उसको पार्टी समर्थन देगी। पूर्वांचल के सियासी हालात को देखते हुए एक बात तो तय मानी जा रही है कि यहां के विकास को लेकर राजनीतिक पार्टियां बड़े-बड़े वादे करेगी और चुनावी मुद्दा बनाएगी। क्योंकि पूर्वांचल में एक बड़ा वोट बैंक है और यहां वर्तमान में समाजवादी पार्टी का दबदबा है। साल 2012 के चुनाव से पहले बसपा का इस इलाके में दबदबा रहा है। भाजपा भी एक समय पूर्वांचल में अपनी जड़े जमा चुकी है। ऐसे में पूर्वांचल के विकास को मुद्दा बनाकर सियासी दल विधानसभा चुनाव में भुनाने की कोशिश जरूर करेंगे।
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