नई दिल्ली (अजयेंद्रनाथ त्रिवेदी)। पलाश में जब कल्ले फूटते हैं तो लगता है जैसे शीत से जड़ पड़ी हुई, दुबकी-सहमी सी पड़ी पृथ्वी के मुख पर लाली निखर आई हो। सुबह के आठ बजे हैं। कोलकाता में पार्क स्ट्रीट से धर्मतला मैदान होते हुए विबादि (विनय बादल-दिनेश बाग) की ओर मेरी बस तेजी से चली जा रही है। बसंत के आगमन की मुनादी करती बौराई हवा तो पिछले एक सप्ताह से यहां-वहां, न जाने कहां-कहां घूम आई थी। पर, उसकी छुअन से पेड़ों के रुखसार गुलाबी हो उठे हैं यह तो हमने उस समय ही देखा जब हमारी लगभग खाली-सी बस रेड रोड चौराहे को पार करती हुई ईडन गार्डन की ओर बढ़ रही थी। नीरस पेड़ों को निर्वसन करती बासंती हवा सरस पेड़ों के फुल्ल-कुसुमित किरीटों पर चंवर झुला रही थी। नाटे-ठिगने पेड़ों से लेकर ऊंचा मस्तक किए खडे पेड़ तक इस बासंती सनक के शिकार हो रहे हैं। पूरी शीत ऋतु जिन्होंने सीधा तन कर बिताई थी वे पेड़ भी बसंत की मादकता में झूम रहे थे। मैं देख रहा हूं, परिदृश्य बदल रहा है। प्रकृति अंगड़ाई ले रही है। प्रकृति, लगता है उन्मन हो उठी है। इस उन्मनता की मुनादी कर रहे हैं दहकते पलाश और साथ दे रहे हैं प्रफुल्ल सेमल। वर्षा के बाद से ही ये वृक्ष अपनी अभिव्यक्ति के लिए बेकरार थे। कहते हैं, मनुष्य का स्वभाव तीन प्रकार की वृत्तियों का संघात है।
सात्त्विक, राजसिक और तामसिक। सात्त्विक वृत्तियां देवत्व की ओर ले जाती हैं। इन वृत्तियों से मानवता की रक्षा होती है। पर, मानवता को तो राजसिक वृत्तियां ही गढ़तीं है। उद्दाम प्रेम, उत्कट अभिलाषा, प्रबल जिजीविषा, दृढ़ इच्छाशक्ति, संवेदनात्मक अनुराग जैसी वृत्तियां ही मानवता को धारण करतीं हैं। इनका पोषण राजसिक वृत्तियों से ही होता है। लाल रंग राजसिक वृत्ति का सूचक है। बसंत की इस उन्मनता में रागात्मक वृत्तियां उभार पर हैं। वनराजियों में धीरे-धीरे छाती जा रही सुर्खी भावुक मन को उड़ाए लिए जा रही है। सात्त्विक वृत्तियों को अगर किसी से चुनौती मिलती है तो वे राजसिक वृत्तियां ही हैं। अगर पृथ्वी पर जीवन का शृंगार होना है तो सात्त्विक वृत्तियां किसी काम की नहीं। श्वेतवर्ण सात्त्विक भाव बहुधा निष्क्रियता को ही प्रोत्साहित करता है। साक्षी भाव से देखना तोष दे तो सकता है पर वह जीवन में प्रवाह नहीं ला सकता। जीवन का सुंदर पक्ष तटस्थ शक्तियों का विलास नहीं है। जीवन की शोभा या इसकी महत्ता सक्रिय सहभागिता से ही संभव है। इसी से पृथ्वी वसुंधरा बनती है। संतुष्ट भाव से तट पर बैठा रहनेवाला तापस और फेंटा बांध कर दो-दो हाथ करने को उतावले मल्ल में कौन अनुकरणीय है, बताने की आवश्यकता नहीं है। हारने और हार-हार कर जीतने की चेष्टा में लगे रहने का जज्बा ही जीवन का दूसरा नाम है। दहकते पलाश जीवन में उस जज्बे का आवाहन करते हुए प्रतीत होते हैं।
राजसिक कर्म ही जीवन में रंग भरते हैं, इसे कृतार्थ करते हैं। कभी हमारे पूर्वज को एक से बहु हो उठने की चाह हुई थी। बसंत उस चाह को यथार्थ में बदलने का आलंबन बना। बसंत ही अनंग कामदेव को जगद्विजेता बनाता है। कामदेव के तरकश के पांच वाणों में से दो अशोक और आम्र वसंत के ही तो उपादान हैं। इन वाणों से कामदेव जगत को मथता रहता है। सृष्टि का पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा कामदेव की इस कारिस्तानी का सजग साक्षी है। पलाश में जब कल्ले फूटते हैं तो लगता है जैसे शीत से जड़ पड़ी हुई, दुबकी-सहमी सी पड़ी पृथ्वी के मुख पर लाली निखर आई हो। यह अनुराग की लाली है। अमराइयों में छाए बौर अगर बसंत के भोले बालपन के प्रतीक माने जाए तो पलाश पर छाई सुर्खी बसंत पर तरुणाई की विजय-पताका कही जा सकती है। साहित्यकार ही नहीं, समाजशास्त्री भी प्रेम को जीवन की ऊष्मा मानते हैं। मनोवैज्ञानिकों को भी लगता है कि प्रेम में अनेक मनोग्रंथियां बांधने और उन्हें खोलने की अमोघ शक्ति है। शास्त्रों में कहा भी गया है-प्रेमा पुमर्थो महान। यह प्रेम एक महान पुरुषार्थ है। धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों की सिद्धि में प्रेम की भूमिका से तो निरा मूर्ख भी परिचित है। कहते हैं कि चौथा पुरुषार्थ मोक्ष भी प्रेम के बिना नीरस हो जाता है। हम जिसे प्रेम कहते हैं प्यार शब्द से वह पूरी तरह व्यंजित नहीं हो सकता है। हम कहते हैं प्यार हुआ, प्यार नहीं रहा आदि, आदि। प्यार में ऐसा संभव है। लेकिन, प्रेम कोई व्यापार नहीं जो किया या कराया जा सके। या जिसे करने के लिए किसी कर्त्ता की आवश्यकता पड़े। प्रेम तो हमारा स्वरूप ही है। हम प्यार करते हैं, पर हम प्रेम हैं। हममें जिस सीमा तक मनुष्ता है हममें उस सीमा तक प्रेम है। ऐसा है तभी तो हम अपने प्रेमी के लिए अपनी जान तक न्योछावर करने में नहीं हिचकते हैं। प्रेम की उपलब्धि अहंकार शून्य हृदय ही कर सकता है। प्रेम न बाड़ी ऊपजै- इसे प्राप्त करना हो तो अपने अहं को गलाना पड़ता है। अहं को गलाने के लिए जिस ऊष्मा की आवश्यकता होती है बसंत में वह सहज ही मिल जाती है। और पलाश उस ऊष्मा श्रेष्ठ प्रदाता है।
पलाश (पलास भी) की आमद देख कर अज्ञेय ने अपनी कविता ‘आशी’ में कहा है -
कली री पलास की टिमटिमाती ज्योति मेरे आस की या कि शिखा ऊर्ध्वमुखी मेरे दीप्त प्यास की। आस और प्यास के साथ पलाश का अनुप्रासात्मक संबंध ही नहीं है। ध्यान से देखें तो इसके साथ ज्योति और शिखा का संदर्भ भी जुड़ा हुआ मिलता है। ज्योति-जिसमें अपने चारों ओर फैल जाने की और अंधकार को यथासंभव पी जाने की उत्कट अभिलाषा होती है। पलाश की कलियां इस अभिलाषा की द्योतक हैं। पलास के साथ ऊर्ध्वमुख शिखा का भी बंध है। शिखा जिसमें ऊर्ध्वारोहण करने चाह है। वह तिल-तिल कर जलती है और ऊपर-ऊपर को जाने को मचलती है। उसमें न तो विस्तार की चाह है और नहीं संसार के तिमिर को जीतने की पार्थिव अभिलाषा ही। वह तो बस अपनी भौतिक काया को विलीन करती हुई आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होना चाहती है। हां, तो मैं जिस परिदृश्य का वर्णन कर रहा था। उस दृश्य में पलाश के चूड़ांत दहकती अग्निशिखा की तरह लग रहे थे और हरकारे की तरह ग्रीष्म के आगमन की सूचना दे रहे थे। पलाश का कुसुमित हो उठना परिवेश में वय:संधि के आगमन का सूचक है। लगता है प्रकृति के कपोल गुलाबी हो उठे हैं या फिर स्वयं धरती ही अपनी शरारती मुस्कान बिखेर रही है। किसी निबंधकार ने फूलों से गदराए पलाश की उपमा सिर पर आग की डलिया लिए खड़े वृक्ष समूह से दी है। अज्ञेय इसे अपनी दीप्त प्यास की ऊर्ध्वमुखी दीपशिखा कह रहे हैं। अज्ञेय ठीक ही तो कह रहे हैं। सात्त्विक प्यास तो ऊर्ध्वमुख ही होगी न। उसमें अपनी सीमाओं के अतिक्रमण करने की उतावली भी होगी। यह प्यास जब लग गई तो लग गई। पिव-पिव लागी प्यास। रोम-रोम से उठी पुकार, सांस-सांस में बसी प्यास। यह साधारण प्यास नहीं है। इस प्यास का अनुभव सभी ज्ञानेंद्रियां तो कर ही रहीं हैं, अंत:करण भी इस प्यास से नहीं बचा है। आंखों को दर्शन की, कानों को श्रवण की नाक को घ्राण की, जिह्वा को रसपान की और त्वचा को आश्लेष की उन्मद प्यास लग रही है तो मन विगत की सुमधुर स्मृतियों से जगी प्यास से बेचैन हो रहा है और चित्त, वह तो न जाने कब से अपने अनन्य के सायुज्य की प्यास को ही जीवन समझ कर जीवंत है। फागुन-चैत के महीने में में इस डहडहे पलाश की रंगत आंखों के रास्ते मन पर छाती जा रही है। चैती बयार के स्पर्श और उसके साथ आई महुआ की मदहोश कर देनेवाली मदिर गंध के सामने किसका बस चलता है । कानों में घुल रही कोयल के काकली भी पीछे नहीं है। ऐसा लगता है ये सभी मिलकर सारी सृष्टि को मथ देने को उतावले हो रहे हैं। इस मंथन से निकला नवनीत ही नव संवत्सर का पाथेय होगा। ग्रीष्म की आंच में तपकर, पावस की फुहारों में भीग कर और शरद की चांदनी में नहा कर जो नेह आज पलाश के रंग और महुए की गंध से समलंकृत और चैती हवा की छुअन से स्निग्ध हुआ हमारे बीच बचा है, वही हमारी जीवन का सर्वस्व है। इसे बचा कर रखने की बड़ी चुनौती हमारे सामने है। शुक्र है कि महानगरीय जीवन के तुमुल कोलाहल-कलह के बीच पलाश किसी प्रकाश स्तंभ की तरह खड़ा आज भी मुस्कुरा रहा है। वह हमें आश्वस्त कर रहा है कि जब तक बसंत रहेगा, जीवन में प्रेम की बगिया खिलती रहेगी और मानवता की जीत का परचम लहराता रहेगा। (साभार जनसत्ता) - See more at: http://www.jansatta.com/sunday-magazine/palas-holi-phalguna-soul/78270/#sthash.rnArQe4C.dpuf
पलाश (पलास भी) की आमद देख कर अज्ञेय ने अपनी कविता ‘आशी’ में कहा है -
कली री पलास की टिमटिमाती ज्योति मेरे आस की या कि शिखा ऊर्ध्वमुखी मेरे दीप्त प्यास की। आस और प्यास के साथ पलाश का अनुप्रासात्मक संबंध ही नहीं है। ध्यान से देखें तो इसके साथ ज्योति और शिखा का संदर्भ भी जुड़ा हुआ मिलता है। ज्योति-जिसमें अपने चारों ओर फैल जाने की और अंधकार को यथासंभव पी जाने की उत्कट अभिलाषा होती है। पलाश की कलियां इस अभिलाषा की द्योतक हैं। पलास के साथ ऊर्ध्वमुख शिखा का भी बंध है। शिखा जिसमें ऊर्ध्वारोहण करने चाह है। वह तिल-तिल कर जलती है और ऊपर-ऊपर को जाने को मचलती है। उसमें न तो विस्तार की चाह है और नहीं संसार के तिमिर को जीतने की पार्थिव अभिलाषा ही। वह तो बस अपनी भौतिक काया को विलीन करती हुई आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होना चाहती है। हां, तो मैं जिस परिदृश्य का वर्णन कर रहा था। उस दृश्य में पलाश के चूड़ांत दहकती अग्निशिखा की तरह लग रहे थे और हरकारे की तरह ग्रीष्म के आगमन की सूचना दे रहे थे। पलाश का कुसुमित हो उठना परिवेश में वय:संधि के आगमन का सूचक है। लगता है प्रकृति के कपोल गुलाबी हो उठे हैं या फिर स्वयं धरती ही अपनी शरारती मुस्कान बिखेर रही है। किसी निबंधकार ने फूलों से गदराए पलाश की उपमा सिर पर आग की डलिया लिए खड़े वृक्ष समूह से दी है। अज्ञेय इसे अपनी दीप्त प्यास की ऊर्ध्वमुखी दीपशिखा कह रहे हैं। अज्ञेय ठीक ही तो कह रहे हैं। सात्त्विक प्यास तो ऊर्ध्वमुख ही होगी न। उसमें अपनी सीमाओं के अतिक्रमण करने की उतावली भी होगी। यह प्यास जब लग गई तो लग गई। पिव-पिव लागी प्यास। रोम-रोम से उठी पुकार, सांस-सांस में बसी प्यास। यह साधारण प्यास नहीं है। इस प्यास का अनुभव सभी ज्ञानेंद्रियां तो कर ही रहीं हैं, अंत:करण भी इस प्यास से नहीं बचा है। आंखों को दर्शन की, कानों को श्रवण की नाक को घ्राण की, जिह्वा को रसपान की और त्वचा को आश्लेष की उन्मद प्यास लग रही है तो मन विगत की सुमधुर स्मृतियों से जगी प्यास से बेचैन हो रहा है और चित्त, वह तो न जाने कब से अपने अनन्य के सायुज्य की प्यास को ही जीवन समझ कर जीवंत है। फागुन-चैत के महीने में में इस डहडहे पलाश की रंगत आंखों के रास्ते मन पर छाती जा रही है। चैती बयार के स्पर्श और उसके साथ आई महुआ की मदहोश कर देनेवाली मदिर गंध के सामने किसका बस चलता है । कानों में घुल रही कोयल के काकली भी पीछे नहीं है। ऐसा लगता है ये सभी मिलकर सारी सृष्टि को मथ देने को उतावले हो रहे हैं। इस मंथन से निकला नवनीत ही नव संवत्सर का पाथेय होगा। ग्रीष्म की आंच में तपकर, पावस की फुहारों में भीग कर और शरद की चांदनी में नहा कर जो नेह आज पलाश के रंग और महुए की गंध से समलंकृत और चैती हवा की छुअन से स्निग्ध हुआ हमारे बीच बचा है, वही हमारी जीवन का सर्वस्व है। इसे बचा कर रखने की बड़ी चुनौती हमारे सामने है। शुक्र है कि महानगरीय जीवन के तुमुल कोलाहल-कलह के बीच पलाश किसी प्रकाश स्तंभ की तरह खड़ा आज भी मुस्कुरा रहा है। वह हमें आश्वस्त कर रहा है कि जब तक बसंत रहेगा, जीवन में प्रेम की बगिया खिलती रहेगी और मानवता की जीत का परचम लहराता रहेगा। (साभार जनसत्ता) - See more at: http://www.jansatta.com/sunday-magazine/palas-holi-phalguna-soul/78270/#sthash.rnArQe4C.dpuf
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