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बुरा मान लो होली है....जोगीरा सा रा रा रा

नई दिल्ली। होली रंगों का त्योहार है. वसंत की बहार है. लेकिन होली में रंगों का धमाल और भांग की मस्ती तभी चढ़ती है जब साथ में जोगीरा की तान हो. गांव घरों में जब ढोल मंजीरे के साथ होली खेलने वालों की टोली निकलती है तो लोग जोगीरा की तान पर झूमते गाते हैं. दरअसल होली खुलकर और खिलकर कहने की परंपरा है. यही वजह है कि जोगीरे की तान में आपको सामाजिक विडम्बनाओं और विद्रूपताओं का तंज़ दिखता है. होली की मस्ती के साथ वह आसपास के समाज पर चोट करता हुआ नज़र आता है. आचार्य रामपलट दास जनकवि हैं. उनके लिखे जोगीरे हम आपको होली के मौके पर पेश कर रहे हैं. जोगीरे होते क्या हैं इसके बारे में आचार्य रामपलट कहते हैं, ''कोई ऑथेंटिक जानकारी तो नहीं है पर शायद इसकी उत्पत्ति जोगियों की हठ-साधना, वैराग्य और उलटबाँसियों का मज़ाक उड़ाने के लिए हुई हो. मूलतः समूह गान है. प्रश्नोत्तर शैली में एक समूह सवाल पूछता है तो दूसरा उसका जवाब देता है जो प्रायः चौंकाऊ होता है. प्रश्न और उत्तर शैली में निरगुन को समझाने के लिए गूढ़ अर्थयुक्त उलटबाँसियों का सहारा लेने वाले काव्य की प्रतिक्रिया में इन्हें रोजमर्रा की घटनाओं से जोड़कर रचा गया है. वो कहते हैं कि परम्परागत जोगीरा काम-कुंठा का विरेचन है एक तरह से काम-अंगों, काम-प्रतीकों की भरमार है उसमें. सम्भ्रान्त और प्रभु वर्ग को जोगीरा के बहाने गरियाने और उनपर अपना गुस्सा निकालने का यह अपना ही तरीका है. एक तरह का विरेचन भी है जोगीरा. आचार्य रामपलट दास ने ये जोगीरे हमें फ़ेसबुक के माध्यम से भेजे हैं. रामपलट दास के इन जोगीरों में आप मौजूदा समय में किसानों के संकट को देख सकते हैं. सत्ता वर्ग और आम लोगों के बीच की खाई को दर्शाने वाला तंज आपको ऊपर नज़र आया होगा. जोगीरे की इस तान में आज के समय में गरीब और निम्न आय वर्ग के लोगों का संकट झलक रहा है, तो दूसरी तरफ़ बेहद संपन्न तबके पर भी रामपलट दास ने चोट की है. लगातार विकास के चकाचक दावों के बीच आम आदमी कहां, उसकी मुश्किलें क्यों कम नहीं हो रही हैं. यही सवाल पूछा है आचार्य रामपलट दास ने. पिछले आम चुनाव के दौरान विरोध करने वाले लोगों को पाकिस्तान भेजने के दावे भी ख़ूब किए गए थे. इन दिनों से जिस तरह से राष्ट्रवाद और भारत माता की जय का दौर चल रहा है, उसमें इस जोगीरे के बोल आपको सोचने पर मज़बूर कर देंगे. (साभार बीबीसी हिन्दी)
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