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भारतीय समाज, समलैंगिगता और अलीगढ़

निर्देशक: हंसल मेहता, प्रोडक्शन: इरोज एंटरटेनमेंट, कर्मा पिक्चर्स, कलाकार: मनोज वाजपेयी, राज कुमार राव, डिलनाज ईरानी, आशीष विधार्थी, रेटिंग: 3.5-5 
मुम्बई। फिल्म अलीगढ़ में बेहद संजीदगी से यह सवाल प्रभावशाली ढंग से उठाया गया है कि क्या होमोसेक्सुअलिटी अपराध है? बॉलीवुड में गिनती के ऐसे निर्देशक हैं, जिनके लिए बॉक्स ऑफिस की कमाई मायने नहीं रखती। वो करोड़ क्लब से परे ऑफबीट फिल्म बनाने का माद्दा रखते हैं। यकीनन ऐसी फिल्मों का मार्केट बड़ा नहीं है। बावजूद इसके वो जोखिम लेते हैं और अपने मिजाज की फिल्में बनाते हैं। इसीलिए वो भीड़ में सबसे अलग हैं। उन्हीं चंद निर्देशकों में से हैं हंसल मेहता, जो जोखिम लेने से जरा भी हिचकिचाते। उदाहरण के तौर पर उनकी दोनों पिछली फिल्मों शाहिद और सिटी लाइफ को ही देखिए। दोनों फिल्मों की तारीफ तो बहुत हुई। फिल्म को अवॉर्ड भी कई मिले, लेकिन थिएटर में दर्शक नहीं मिले। अब एक बार फिर हंसल अपने मिजाज की एक और फिल्म अलीगढ़ लेकर दर्शकों के सामने हाजिर हुए हैं। हंसल की यह फिल्म कुछ साल पहले अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में हुई एक घटना पर आधारित है। हंसल की इस फिल्म को रिलीज से पहले बुसान फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया, जहां हर किसी ने इस फिल्म को जमकर सराहा, तो वहीं मुंबई के अलावा लंदन फिल्म फेस्टिवल में भी इस फिल्म को दिखाया गया। वहां भी फिल्म ने तारीफ बटोरी। अब यह फिलम भारतीय दर्शकों के सामने है। देखते हैं कि अलीगढ़ दर्शकों की कसौटी पर खरी उतरती है या नहीं। प्रोफेसर डॉक्टर एस.आर. सिरस (मनोज बाजपेयी) अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मराठी के प्रोफेसर हैं। यूनिवर्सिटी प्रशासन ने डॉ.सिरस को करीब 6 साल पहले एक रिक्शा वाले युवक के साथ यौन संबंध बनाने के आरोप में सस्पेंड कर दिया। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी प्रशासन ने एक लोकल टीवी चैनल के दो लोगों द्वारा प्रोफेसर सिरस के बेडरूम में किए एक स्टिंग ऑपरेशन के आधार पर उन्हें सस्पेंड करके अगले सात दिनों में स्टाफ क्वॉटर खाली करने का आदेश जारी किया। दिल्ली में एक प्रमुख अंग्रेजी न्यूजपेपर की रिर्पोटिंग हेड नमिता (डेलनाज ईरानी) इस पूरी खबर पर नजर रखे हुए हैं। नमिता अपने न्यूजपेपर के यंग रिपोर्टर दीपू सेबेस्टियन (राजकुमार राव) के साथ एक फोटोग्राफर को इस न्यूज की जांच पड़ताल करने के लिए अलीगढ़ भेजती है। अलीगढ़ आने के बाद दीपू कुछ मुश्किलों के बाद अंतत: डॉ. सिरस तक पहुंचने और उनका विश्वास जीतने में कामयाब होता है। इसी बीच दिल्ली में समलैंगिंग के अधिकारों के लिए काम करने और धारा 377 में बदलाव के लिए संघर्ष कर रहे एक एनजीओ के लोग प्रो. सिरस को अप्रोच करते हैं। प्रो. सिरस का केस इलाहाबाद हाई कोर्ट में पहुंचता है, जहां सिरस और एनजीओ की ओर से पेश ऐडवोकेट आनंद ग्रोवर ( आशीष विधार्थी) इस केस में प्रो. सिरस की ओर से पैरवी करते हैं। हाईकोर्ट पप्रो. सिरस को बेगुनाह मानकर यूनिवर्सिटी प्रशासन को 64 साल के प्रो. सिरस को बहाल करने का आदेश देती है। इसके बाद कहानी में नया मोड़ आता है, जो झकझोर देता है। इस फिल्म में बेहद संजीदगी से यह सवाल प्रभावशाली ढंग से उठाया गया है कि क्या होमोसेक्सुअलिटी अपराध है और ऐसा करने वाले का समाज द्वारा तिरस्कृत करना सही है? फिल्म में मनोज बाजपेयी ने बेहतरीन अभिनय करके अपने उन आलोचकों को करारा जवाब दिया है, जो उनकी पिछली एक-आध फिल्म फ्लॉप होने के बाद उनके कॅरियर पर सवाल उठा रहे थे। प्रो. सिरस के किरदार की बारीकी को हरेक फ्रेम में आसानी से देखा जा सकता है। यूनिवर्सिटी द्वारा सस्पेंड होने के बाद अपने फ्लैट में अकेला और डरा-डरा रहने वाले प्रो. सिरस के किरदार में मनोज ने लाजवाब अभिनय किया है। एक साउथ इंडियन जर्नलिस्ट के किरदार को राज कुमार राव ने प्रभावशाली ढंग से निभाया है। एडवोकेट ग्रोवर के रोल में आशीष विद्यार्थी ने अपने रोल में ऐसी छाप छोड़ी है कि दर्शक उनके किरदार की चर्चा करते हैं। हंसल ने फिल्म के कई सीन्स को अलीगढ़ की रियल लोकेशन पर बखूबी शूट किए हैं। वहीं बतौर डायरेक्टर हंसल ने प्रोफेसर के अकेलेपन को बेहद संजीदगी से पेश किया है। बेशक इंटरवल से पहले कहानी की रफ्तार सुस्त है, लेकिन ऐसे गंभीर सब्जेक्ट पर बनने वाली फिल्म को एक अलग ट्रैक पर ही शूट किया जाता है, जिसमें हंसल पूरी तरह से कामयाब रहे हैं। हंसल ने फिल्म के लगभग सभी किरदारों से अच्छा काम लिया और कहानी की डिमांड के मुताबिक उन्हें अच्छी फुटेज भी दी है। ऑफबीट फिल्मों में गीत-संगीत की गुंजाइश कम ही रहती है। ऐसी फिल्मों में बैकग्राउंड म्यूजिक की अहमियत अहम होती है। अलीगढ़ का बैकग्राउंड म्यूजिक दिलो-दिमाग में प्रभाव छोड़ता है। कहानी की डिमांड के मुताबिक फिल्म में लता मंगेशकर के गाए गानों को जगह दी है, जो प्रभावशाली है। यदि आप ऑफबीट और रियल लाइफ से जुड़ी घटनाओं पर बनी उम्दा फिल्मों के शौकीन हैं, तो फिल्म आपके लिए है। मनोज वाजपेयी के फैन निराश नहीं होंगे। उन्होंने अपने उम्दा अभिनय से प्रोफेसर के किरदार को जीवंत बना दिया है। फिल्म में न मसाला है, न एक्शन, ना ही हीरो-हिरोइन के बीच का कोई रोमांस... लेकिन फिल्म बोर नहीं करती।
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Item Reviewed: भारतीय समाज, समलैंगिगता और अलीगढ़ Rating: 5 Reviewed By: newsforall.in