नई दिल्ली (संदीप राय)। हैदराबाद यूनिवर्सिटी के शोध छात्र रोहित वेमुले की आत्महत्या के बाद दलितों के साथ भेदभाव पर एक तीखी बहस छिड़ गई है। मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने इसे दलित बनाम गैर दलित मामला मानने से इंकार किया है। लेकिन दलित और अन्य सामाजिक संगठन इसे दलितों के ख़िलाफ़ भेदभाव का ही नतीजा बता रहे हैं। वे हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति समेत मामले में शामिल रहे दूसरे लोगों पर कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी हैदराबाद विश्वविद्यालय जाकर दलित छात्रों से मुलाक़ात की। उन्होंने कुलपति और केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री पर भेदभाव के आरोप भी लगाए। लेकिन कांग्रेस के शासनकाल में दलितों के ख़िलाफ़ उत्पीड़न के मामलों की कोई बहुत अच्छी स्थिति नहीं रही है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक साल 2014 में दलितों के ख़िलाफ़ 47064 अपराध हुए। यानी औसतन हर घंटे दलितों के ख़िलाफ़ पांच से ज़्यादा (5.3) के साथ अपराध हुए। अपराधों की गंभीरता को देखें तो इस दौरान हर दिन दो दलितों की हत्या हुई और हर दिन औसतन छह दलित महिलाएं (6.17) बलात्कार की शिकार हुईं। अगर यूपीए-एक और यूपीए-दो के दस सालों के शासन के दौरान दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर नज़र दौड़ाएं, तो कांग्रेस को ख़ुद पर सोचने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, 2004 से 2013 के दरम्यान दस सालों में 6,490 दलितों की हत्याएं हुईं और 14,253 दलित महिलाओं के साथ बलात्कार हुए। ब्यूरो के आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन में दलितों के ख़िलाफ़ उत्पीड़न के दर्ज होने वाले अपराधों में लगातार बढ़ोतरी का एक समान ढर्रा दिखता है। साल 2014 में दलितों के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों में इसके पिछले साल के मुक़ाबले 19 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इससे एक साल पहले 2013 में दलितों के ख़िलाफ़ अत्याचार के मामलों में 2012 के मुक़ाबले 17 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई थी। अपराध की दर भी बढ़ी है, 2013 में यह 19.6 थी तो 2014 में यह 23.4 तक पहुंच गई। दलित हत्याओं के मामलों में भी लगातार इजाफ़ा दिखता है. नब्बे के दशक में जहां ये आंकड़ा पांच सौ के आस पास बना रहा, वहीं पिछले दशक में ये छह सौ के पार पहुंच गया और 2014 में तो यह 744 तक पहुंच गया।
एनसीआरबी ने साल 2015 के आंकड़े अभी जारी नहीं किए हैं और इस साल के जून तक इन आंकड़ों के आने की उम्मीद है। रोहित वेमुले की आत्महत्या ने शैक्षणिक संस्थानों में दलित छात्रों के साथ अलग बर्ताव को लेकर कई सवाल खड़े किए हैं। हालांकि शैक्षणिक संस्थाओं में होने वाले भेदभाव को लेकर कोई मान्य और व्यापक अध्ययन नहीं हुआ है, लेकिन समय-समय पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं। इस घटना से पहले आईआईटी मद्रास में आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल पर प्रतिबंध लगाने की घटना ने इस ओर सबका ध्यान खींचा था। कुछ साल पहले देश के अग्रणी मेडिकल संस्थानों में से एक अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भी दलित छात्रों ने भेदभाव की शिकायत की थी। देश के आईआईटी जैसे उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षक भर्ती को लेकर दलित और पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों के साथ भेदभाव को लेकर आरोप-प्रत्यारोप लगते रहे हैं। साल 2010 में दिल्ली के वर्द्धमान मेडिकल कॉलेज में सामूहिक रूप से 35 दलित छात्रों के फेल होने का मामला जब तूल पकड़ा तो अनुसूचित जाति आयोग ने एक जांच कमेटी बनाई, जिसने भेदभाव के आरोपों को सही पाया था। यह मामला सिर्फ उच्च शिक्षण संस्थानों तक ही सीमित नहीं है। प्राइमरी स्कूलों में लागू दोपहर के भोजन की योजना में भी दलित रसोइये और दलित बच्चों के साथ भेदभाव की ख़बरें सुर्खियां बनती रही हैं।
संविधान के अनुच्छेद 15, 38, 39 और 46 में जाति, धर्म, नस्ल, लिंग और जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव न किए जाने और एससी-एसटी के कमज़ोर तबकों को सुरक्षा मुहैया कराए जाने की बात कही गई है। इसके लिए क़ानूनी तौर पर प्रोटेक्शन ऑफ़ सिविल राइट्स एक्ट (1955) और एसएस/एसटी (प्रिवेंशन ऑफ़ एट्रोसिटीज़) एक्ट 1989 लागू है। एसएस/एसटी एक्ट के तहत आईपीसी के मुक़ाबले कड़ी सज़ाओं का प्रावधान है। इन क़ानूनों के तहत आने वाले मामलों की तेज़ सुनवाई के लिए कई राज्यों में विशेष अदालतें भी गठित की गई हैं। लेकिन लगता है कि दलित उत्पीड़न के मामलों में कमी की बजाय बढ़ोतरी ही हो रही है। (साभार बीबीसी हिंदी डॉट कॉम)
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