हरिद्वार। श्रीमद्गद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी हंसदेवाचार्य जी महाराज ने कहा है कि भगवान के द्वार पर भक्त की दस्तक से दसों दिशाओं में दिव्य शक्ति का संचार होता है। श्राद्ध पक्ष में जो श्रद्धालु अपने पितरों के निमित्त तीर्थ स्थल पर हरिकथा का श्रवण करते हैं तो उनकी तीन पीढि़यां पितृदोष से मुक्त होकर उत्तरोत्तर उन्नति की ओर अग्रसर होने लगती है। उक्त उद्गार उन्होंने देवभूमि परमार्थ लोक में गुरुजन स्मृति समारोह के उपलक्ष में आयोजित श्रीमद्भागवत महापुराण कथा में आशीवर्चन देते हुए व्यक्त किए।
श्रीमद्भागवत को भक्त और भगवान की कथा बताते हुए उन्होंने कहा कि धर्मशास्त्रों के श्रवण से श्रद्धालुओं में जीवन को सार्थक बनाने की सामथ्र्य का समावेश होता है और भगवान के द्वार पर जाकर जब कोई भक्त गुहार लगाता है तो कृष्ण रूपी भगवान सुदामा रूपी भक्त को उसी वक्त उपकृत कर देते हैं। श्रीमदभागवत के प्रेरक प्रंसगों का सार समझाते हुए उन्होंने कहा कि परमात्मा का आत्मारूपी अंश सभी जीवधारियों में विद्यमान होता है लेकिन श्रीहरि का प्राकट्य उसी हृदय में होता है जो मन और इन्द्रियों को साध कर उसकी साधना करता है। देवभूमि हिमालय को दैवीय शक्तियों के जागरण का केन्द्र बिन्दु बताते हुए कहा कि साक्षात श्रीहरि के दरबार में गुरू रूपी गोविन्द के सानिध्य में उन्हीं को यह सौभाग्य प्राप्त होता है जिन पर प्रभु स्वयं कृपा करते हैं। कथा के मुख्य यजमान श्रीमती सुमित्रा देवी धर्मपत्नी भीमसेन चुघ की धर्म एवं आध्यात्म के प्रति आस्था के लिए साधुवाद देते हुए कहा कि जो भगवत सेवा में स्वयं को समर्पित कर देता है उसे प्रभु की सीधी कृपा प्राप्त हो जाती है।
वृन्दावन से पधारे स्वामी श्रवणानंद जी महाराज ने महाभारत काल और राजशाही के शासन की उस व्याख्या को प्रस्तुत किया जिसमें राजा महाराजाओं की मनमानी चलती थी। वर्तमान की अतीत से तुलना करते हुए कहा कि पिछले तीनों युगों में देव तथा राक्षस योनियों में संघर्ष होता रहा है और एक ही परिवार में देवता तथा राक्षसों के जन्म लेने का वर्णन धर्म शास्त्रों से मिलता है कौरव तथा पाण्डव और कृष्ण एवं कंस के साथ ही राम और रावण जैसे उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि सत्संग एवं कुसंग व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करता है प्रत्येक मानव के अन्दर कुछ पैत्रिक गुण होते हैं तो कुछ असर संगति का भी पड़ता है। संतों को भगवान का स्वरूप बताते हुए कथा व्यास ने कहा कि अजामिल को वैश्या के साथ देखकर संतों उसके उद्धार की सोची और उसके होने वाले पुत्र का नाम नारायण रखने की सलाह दी जिससे अंतकाल में जब उसने अपने पुत्र नारायण को बुलाया तो नारायण नाम के उच्चारण मात्र से उसका उद्धार हो गया इसीलिए श्रीमज्जगद्गुरु रामानंदाचार्य स्वामी हंसदेवाचार्य जी महाराज ने श्रीहरि की इस कथा का आयोजन नारायण के धाम में कर सैकड़ों भक्तों के उद्धार का मार्ग प्रशस्त किया है। अंत में कथा यजमान तथा श्रोताओं ने संयुक्त रूप से व्यासपीठ की आरती उतारकर विश्व कल्याण की कामना की।
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