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पूछे कोई इनसे गम के मजे जो प्यार की बातें करते हैं

आखिर क्या है आरएसएस और भाजपा की मुस्लिमपरस्ती के मायने राजीव रंजन तिवारी 
                       ऐ इश्क़ ये सब दुनिया वाले बे-कार की बातें करते हैं, पायल के गमों का इल्म नहीं झंकार की बातें करते हैं। 
हर दिल में छिपा है तीर कोई हर पांव में है जंजीर कोई,
पूछे कोई इनसे गम के मजे जो प्यार की बातें करते हैं।

प्रसिद्ध गीतकार व शायर शकील बदायुनी का यह कलाम आरएसएस और भाजपा की मुस्लिमपरस्ती की वजह बताने के लिए काफी है। भारत में जैसे लग रहा है कि आजकल घपले-घोटालों का मौसम आया हुआ है। देश के प्रधानमंत्री विदेश दौरे पर हैं। इस मौसम के आगे मानसून के मजे भी कमतर लग रहे हैं। महाराष्ट्र की भाजपा सरकार की नजरें मदरसों पर टेढ़ी हैं। प्रतिक्रिया स्वरूप मुसलमान खफा होकर आंदोलित न हो जाएं, इसलिए उन्हें पटाने के लिए आरएसएस और भाजपा दूसरी कुटनीतिक चाल चल रही है। यूं कहें कि शायद भाजपा और संघ इस रणनीति पर काम कर रहा है कि मुसलमानों को भी खुश रखें और हिन्दुओं को भी नाराज न होने दें। यही वजह है कि इस माहे रमजान में आरएसएस और भाजपा के लोग बेमेल किन्तु एक इस तरह की सियासी कलाम पेश कर रहे हैं, जिसकी कर्कस ध्वनि देश के अमनपसंद लोगों को तो अच्छी नहीं ही लग रही होगी। क्योंकि भाजपा ने देश के मुसलमानों के लिए जो कुछ भी किया है, वह पूरी दुनिया जानती है। बेशक, मुसलमान इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि चाहे आरएसएस की इफ्तार पार्टी हो अथवा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कश्मीर में ईद मनाने का अघोषित फैसला, यह सब सियासी लाभ के लिए है। भाजपा व पीएम नरेन्द्र मोदी के लिए बिहार विधानसभा चुनाव गले की फांस बना हुआ है। बिहार में इसी वर्ष अक्टूबर में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इससे पूर्व ललित मोदी और व्यापम घोटाले ने जो पार्टी की छवि को चोट पहुंचाई है, उसका डैमेज कंट्रोल करने की रणनीति के तहत ही भाजपा-संघ की नजर मुसलमानों की ओर गई है।
उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस बार कश्मीर में ईद मनाने की सोच रहे हैं। हालांकि अभी तक पीएमओ से अभी उनके इस दौरे की पुष्टि नहीं हुई है, लेकिन सूत्रों का कहना है कि पीएमओ की ओर से जम्मू कश्मीर के सीएम ऑफिस को इस तरह की सूचना भेजी गई है। चांद दिखने के आधार पर 18 या 19 जुलाई को ईद मनेगी। जम्मू-कश्मीर में पीडीपी व बीजेपी सरकार बनने के बाद यह पहला मौका होगा जब पीएम वहां जाएंगे। बता दें कि मोदी ने पिछले साल दीपावली भी कश्मीर में ही मनाई थी। 18 जुलाई का उनका दौरा जम्मू-कश्मीर का सातवां दौरा होगा। निश्चित रूप से पीएम नरेन्द्र मोदी देश के मुसलमानों को यह संदेश देना चाहते हैं कि उनके लिए देश का हर कौम बराबर है। चाहें वह हिन्दु हो या मुसलमान अथवा कोई अन्य। इतना ही नहीं राजनीति के जानकार तो यहां तक कहते हैं कि मोदी देश के मुसलमानों से मोहब्बत का दिखावा करके वर्ष 2002 में हुए गोधरा कांड से अपने दामन पर लगे अल्पसंख्यकों के खून के छींटे को साफ करने का प्रयास कर रहे हैं। यदि इस तरह की उनकी सोच है तो वे इसमें कितना सफल होंगे यह वक्त बताएगा। लेकिन मुझे नहीं लगता है कि मुसलमान मोदी को इतनी आसानी से माफ करने वाला है। एक वजह और भी आए दिन भाजपा के मंत्री व नेता मुसलमानों के खिलाफ आग उगलते रहते हैं और ये लोग मोहब्बत करने का नाटक कर रहे हैं।
प्रधानसेवक मोदी के मुसलमानों से रिश्ते एक ऐसी राजनीतिक चर्चा है जिस पर पिछले एक साल से काफ़ी कुछ कहा जा चुका है। चाहे वह दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम का मोदी को अपने बेटे की दस्तारबंदी में न बुलाने की बात हो या फिर मोदी-समर्थक मुस्लिम उद्योगपति ज़फर सरेशवाला को हैदराबाद की राष्ट्रीय उर्दू यूनिवर्सिटी का चांसलर बनाने पर होने वाली बहस। जबकि मोदी और मुसलमान दो ऐसे राजनीतिक ध्रुव हैं, जिनके बीच बिना विवाद के कोई बातचीत संभव नहीं है। शबे बारात पर उमैर इल्यासी की कयादत में 30 मुसलमानों के एक प्रतिनिधिमंडल का नरेंद्र मोदी से मिलना भी इसी श्रृंखला से है। बताते हैं कि मोदी ने इस प्रतिनिधिमंडल को दोस्ताना लहजे में आश्वस्त किया कि मैं आधी रात को भी आपकी सेवा में हाज़िर हूं। इस मुलाकात के बाद इस तरह कोई ठोस बातें सामने नहीं आयीं, जो राजनीतिक तौर पर सही कहे जाने वाले ऐसे बयान जो नरेंद्र मोदी और उनके मंत्री पिछले एक वर्ष से देते रहे है, अखबारी सुर्खियां बने। मसलन, मोदी का यह कहना कि वे ऐसी राजनीति में विश्वास नहीं करते जो समाज को बांटती हो। वे भारत के 125 करोड़ लोगों के सेवक हैं। बहुसंख्यकों व अल्पसंख्यकों की राजनीति से देश को बहुत क्षति हुई है। अब किसी को भी नुकसान पहुंचे, ऐसी कोई बात बर्दाश्त नहीं की जाएगी, आदि-आदि। मोदी की उक्त बातें धरातल पर कितनी हकीकत से पेश होगी, इसका इंतजार देश का सियासी विश्लेषक वर्ग बड़ी बेशब्री से कर रहा है।
यद्यपि इस बहस के दो सीधे पक्ष सामने आये है। कुछ बुद्धीजीवी इस मुलाक़ात को सकारात्मक बता रहे है जबकि हिंदू कट्टरवाद बेलगाम होता सा दिख रहा है। इस प्रकार मुसलमान मोदी के साथ चलें या क्या करें वे खुद भी असमंजस में हैं। इसके बरक्स एक ऐसा तबका भी है जो सेकुलर बनाम सांप्रदायिकता के चश्मे से इस मुलाक़ात को देख रहा है। अब जरा चर्चा भाजपा के अभिभावक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की कर लेते हैं। मुसलमानों समेत कथित रूप से गैर हिन्दु धर्मावालम्बियों से लड़ने, उनके खिलाफ अभियान चलाने, हिन्दुओं को भड़काने व विद्वेष फैलाने के लिए प्रशिक्षित करने वाले इस संगठन द्वारा पिछले दिनों पहली बार दी इफ्तार पार्टी का आयोजन किया गया। आरएसएस के मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की ओर से पिछले दिनों आयोजित हुई इस इफ्तार में देश भर से आए मुसलमानों के साथ-साथ 70 मुस्लिम देशों के राजदूतों ने शिरकत की। पार्लियामेंट एनेक्सी में आयोजित इस कार्यक्रम के जरिए संघ भी मोदी की तरह मुस्लिमों को अपने करीब लाने की कोशिश में दिखा। संघ के इंद्रेश कुमार ने कहा कि किसी भी धर्म के लोगों को दूसरे धर्म व भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। इंद्रेश ने तो अरबी में कुरान की कुछ आयतों और पैगम्बर मोहम्मद साहब की कुछ बातों का हवाला देते हुए कहा कि इस्लाम का मतलब अमन व सलामती है। अब सवाल यह उठ रहा है कि आरएसएस और भाजपा द्वारा देश में दशकों पहले अल्पसंख्यकों व अमनविरोधी जिस पौधे को लगाया गया था, अब फल देने को तैयार है। एक कहावत है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। इसे देशवासियों की गलतफहमी कहें या अज्ञानता कि पिछले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी की बातों से गुमराह होकर भाजपा को पूर्ण बहुमत से ज्यादा सीटें दिला दीं। भ्रष्टाचार व महंगाई समेत जिन-जिन नारों के बल पर मोदी सत्ता में आए, वे नारे आज भी पहले की तरह ही मुंह बाए खड़े हैं।
दरअसल, भाजपा या इससे जुड़े लोग जब भी मुसलमानों के हित की बात करते हैं तो पता नहीं क्यों उसमें से किसी साजिश की बू आती है। यदि किसी को सभी धर्मों को एक समान देखना है, सबके लिए काम करना है तो बिहार के सीवान से चार बार सांसद रहे चर्चित नेता डा.मो.शहाबुद्दीन से सीख लेनी चाहिए। यद्यपि शहाबुद्दीन जेल में हैं, बावजूद इसके उनकी लोकप्रियता का डंका किस तरह पूरे बिहार में बजता है, कोई जाकर देख सकता है। हर कौम के लोग उनके मुरीद हैं। बहरहाल, दबी जुबान से यह कहा जा रहा है कि मुसलमानों को निकट लाने की जो आरएसएस व बीजेपी की कोशिश है, वह बिहार चुनाव के लिए है। अब देखना है कि मुसलमान संघ-भाजपा को कितना पसंद करता है। (सभी फाइल फोटो)
               (लेखक देश के चर्चित स्तंभकार, राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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