नई दिल्ली। मोदी सरकार का एक साल पूरा होने पर भाजपा देश भर में 200 रैलियां निकाल रही है। इसकी शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मथुरा में एक जनसभा के साथ की। इनमें पार्टी सरकार की साल भर की उपलब्धियों के बारे में बताएगी। मोदी सरकार के एक साल पूरा होने पर तारीफ से ज्यादा आलोचना के स्वर प्रखर हो रहे हैं। पार्टी को लगता है सरकार की छवि पर जनविरोधी होने के जो दाग लग रहे हैं इन रैलियों द्वारा उन्हें मिटाया जा सकेगा। पार्टी ने चुनाव पूर्व कार्यक्रमों की तर्ज पर व्यापक स्तर पर लोगों तक पहुंच बनाने की कवायद में 200 रैलियों और 5,000 जनसभाओं का आयोजन करने की योजना बनाई है। मोदी के एक साल में हुई उपलब्धियों और नाकामियों पर आम जनता के अलावा विश्लेषकों की भी राय बंटी हुई है। अच्छे दिन लाने के नारे के साथ मोदी सरकार पिछले साल स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में आई थी। वादों के मुताबिक सरकार से उम्मीदें भी भारी लगाई गईं। भूले हुए वादों में एक अहम वादा था देश के आर्थिक विकास और नई नौकरियों का। इकोनॉमिक थिंक टैंक आरपीजी के प्रमुख डीएच पाइ पानंदिकर मानते हैं, "मोदी से भारी उम्मीदें थीं जो कि 30 सालों में पहली बार बहुमत से प्रधानमंत्री पद पर आने वाले राजनेता हैं, उम्मीद थी कि वे बड़े और तीव्रगामी परिवर्तन लाएंगे। ऐसा अब तक नहीं हुआ है।"
चंडीगढ़ की मुनिंद्रा सूपिया कहती हैं, "हम अभी तक उन अच्छे दिनों का इंतजार कर रहे हैं। सरकार नौकरियों की संभावनाएं लाने पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रही है।" हालांकि ऊपरी सतह पर आर्थिक स्थिति खराब नहीं दिखती है। पिछले वित्तीय वर्ष में जीडीपी में 6.9 फीसदी विकास हुआ है जिसके अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुताबिक इस साल 7.5 फीसदी तक पहुंचने की उम्मीद की जा रही है, यानि चीन से भी ज्यादा। मुद्रास्फीति जो कि मोदी की प्राथमिकताओं में से एक है, 5 फीसदी से कम रही। आलोचकों का मानना है कि गणना के आधिकारिक तरीके बदलने के कारण पिछले साल की जीडीपी में 2 फीसदी की उछाल रही। उनका मानना है कि मुद्रास्फीति में स्थिरता की बड़ी वजह तेल और गैस की कीमतों के अलावा अंतरराष्ट्रीय बाजार में अन्य सामग्री के दामों में आई गिरावट है।
मोदी ने 12 महीनों में 18 देशों की यात्रा की जिनमें फ्रांस, जर्मनी और अमेरिका भी शामिल हैं। लेकिन करीबी पड़ोसी पाकिस्तान के साथ भारत के संबंधों में कोई सुधार नहीं हुआ है। हालांकि प्रधानमंत्री पद संभालते समय पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को दावत देकर उन्होंने अच्छे संबंधों की उम्मीद जगाई थी लेकिन ऐसा हुआ नहीं। लेकिन उनके कूटनीतिक प्रयासों ने बांग्लादेश और म्यांमार के साथ संबंधों को बेहतर बनाया और चीन के साथ आर्थिक संबंध भी मजबूत होते दिखाई दे रहे हैं। आलोचकों का यह भी मानना है कि गुजरात दंगों के दाग पीछे छोड़ कर प्रधानमंत्री पद संभालने वाले नरेंद्र मोदी अभी तक मुसलमानों और अल्पसंख्यकों का विश्वास नहीं जीत पाए हैं। हाल में अपने कई भाषणों में उन्होंने कहा कि "समय बदल रहा है"। उन्होंने लोगों से धैर्य रखने को कहा। उनकी उम्मीद है कि अगले साल इस समय तक वे भारत को यह कहने की स्थिति में होंगे कि अच्छे दिन आ गए।
उम्मीदों की दीवार से टकराती कोशिशें
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार का पहला नई पहलकदमियों का साल रहा है। देश को आधुनिकता के रास्ते पर ले जाना उतना आसान नहीं लग रहा है जितना नरेंद्र मोदी ने सोचा था। राजनेताओं की छवि और राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने की क्षमता में लोगों की धारणा अहम भूमिका निभाती है। पिछले साल संसदीय चुनाव जीतने के लिए मोदी ने राजनीति, बौद्धिक और मार्केटिंग हुनर का इस्तेमाल किया था। अब एक साल बाद उनकी सरकार को उन्हीं कसौटियों पर तौला जाएगा। जब लोगों ने उच्च पदों पर व्यापक भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता के आरोपों के साये में कांग्रेस पार्टी का दस साल का कार्यकाल समाप्त किया तो उनको मोदी और उनकी सरकार से बहुत उम्मीदें थीं। खासकर युवा लोगों को जिन्हें विकास में हिस्सेदारी और अच्छी कमाई वाली नौकरी की तलाश थी। उद्योग जगत को सरकार से प्रोत्साहन की उम्मीद थी तो महिलाओं को सुरक्षा की आस थी। ये सब देश में अच्छे दिन लाने के सपने का हिस्सा था।
तीन दशक के सहबंध शासन के बाद बीजेपी को मिले पूर्ण बहुमत से लोगों में यह उम्मीद जगी कि सरकार तेज फैसले लेगी, विकास की बाधाओं को दूर करेगी और देश के चेहरे को बदल देगी। प्रधानमंत्री का पहला साल और बातों के अलावा भारत को खबरों में तो बनाए रखा लेकिन वे नतीजे नहीं दिए हैं जिनकी भारत को और स्वयं मोदी को उम्मीद थी। सरकार के एक साल के लेखा जोखा का आधार उसका प्रदर्शन, वायदों को पूरा करना, भविष्य की नींव रखने के फैसले करना और विकास को आत्मनिर्भर बनाना होता है। स्वच्छ भारत अभियान हो या बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान, देश के लिए जरूरी कार्यक्रमों की पहल करने के मामले में मोदी चैंपियन साबित हुए हैं, लेकिन इन कार्यक्रमों को लागू करने के लिए स्वतंत्र संरचनाओं के गठन जैसा कुछ ठोस दिखाई नहीं देता। निश्चित तौर पर दिल्ली से अपरिचित रहे मोदी को पैर जमाने में कुछ वक्त लगा लेकिन शासन के उनके स्टाइल ने दोस्त से ज्यादा दुश्मन बनाए हैं। पीएमओ को ताकतवर बनाने से शासन के केंद्रीकरण का संकेत गया है और मंत्रियों की स्वतंत्र भूमिका घटी है।
मोदी सरकार ने पिछले एक साल में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कई सारे महत्वपूर्ण फैसले लिए हैं। मेक इन इंडिया के उनके अभियान ने विदेशी निवेशकों में भारत के लिए दिलचस्पी पैदा की है। इसी भरोसे का नतीजा है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने विकास दर का अनुमान बढ़ाकर 7.5 फीसदी कर दिया है। लेकिन नए रोजगार पैदा करने के लिए भारत को इंवेस्टरफ्रेंडली होना होगा. हालांकि वे भारत आने के लिए कतरा में लगे हैं, लेकिन पैसा लगाने से पहले वे निवेश का भरोसेमंद ढांचा चाहते हैं। दूसरी ओर भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर किसानों में मोदी की लोकप्रियता घटी है। समर्थकों के बीच भी सरकार भरोसा खोती दिख रही है। मोदी का एक साल का उनका अनुभव रहा है कि शासन करना उतना आसान नहीं।
अच्छे दिन आए क्या?
सारी भविष्यवाणियों को झुठला कर पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आने वाली नरेंद्र मोदी की सरकार के एक साल पूरा होने पर सोशल मीडिया पर सरगर्मियां जोर पकड़ रही हैं। मोदी समर्थक और विरोधी अपने अपने मत रख रहे हैं। प्रधानमंत्री के रूप में एक साल में मोदी ने जो 18 विदेश यात्राएं की हैं उनपर भी मिली जुली प्रतिक्रिया है। कुछ लोग अपने कमेंट्स में चुटकी लेते हुए मोदी को भारत यात्रा करने की भी सलाह देते हैं तो कुछ उन्हें विदेश मंत्री कह कर पुकारते हैं। वहीं उनके समर्थक उनकी विदेश यात्राओं को 'मेक इन इंडिया' कैम्पेन और देश के विकास की दिशा में अहम कदम बताते हैं। लेकिन घूम फिर कर सवाल 'अच्छे दिन' पर जरूर आता है। महिलाओं की सुरक्षा, किसानों की आत्महत्या के मामले और सिर चढ़ती महंगाई जनता के लिए अहम मुद्दे हैं, इस दिशा में इस एक साल में कोई बेहतरी हुई नहीं दिखाई देती।
शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में बड़े परिवर्तन लाने के वादों पर भी सवाल उठ रहे हैं। इस बीच भारत में किसानों की स्थिति और उनके अधिकारों का सवाल राजनीति का प्रमुख मुद्दा बन गया है। विवाद के केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार का भूमि अधिग्रहण विधेयक है जिसे भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दल आर्थिक विकास के लिए जरूरी और गरीबों के हित में बता रहे हैं। इसके विपरीत कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियां उसे किसान विरोधी बताकर उसका जबर्दस्त विरोध कर रही हैं। विरोधियों का कहना है कि मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण बिल द्वारा बड़े उद्योगपतियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को फायदा पहुंचाना चाहती है। नरेंद्र मोदी ने अपनी विदेश यात्राओं के दौरान बड़े राजनीतिज्ञों साथ तो सेल्फी खींची ही, स्कूलों और कॉलेजों में भी इससे पीछे नहीं रहे। उनके सेल्फी प्रेम पर भी मिली जुली प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैंय़ कुछ इसे मोदी का टेक्नोलॉजी प्रेमी प्रधानमंत्री होना बताते हैं तो कुछ इसे मोदी का आत्म प्रेम बताते हैं। 26 जनवरी को उनके द्वारा पहने गए कस्टमाइज्ड सूट की भी खासी खिल्ली उड़ी। दस लाख रूपये की कीमत वाले बताए जा रहे इस सूट पर धागों से उनका नाम बुना हुआ था। हाल में चीन व दक्षिण कोरिया की यात्रा के दौरान मोदी की उस टिप्पणी की आलोचना हुई जिसमें उन्होंने कहा था कि उनके सत्ता में आने से पूर्व भारतीय अपने को भारतीय बताने पर शर्मिंदा महसूस करते थे। सोशल मीडिया पर #ModiInsultsIndia का हैशटैग शुरू किया गया और बहुत से लोगों ने कहा कि उन्हें भारतीय होने पर गर्व है। मोदी को उनके कई विरोधी अपनी तारीफें खुद करने वाला राजनेता मानते हैं। (साभार)
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