पिछड़ेपन और गरीबी झेलते रहने के बावजूद बिहार के बारे में यह आम धारणा है वहां के लोग राजनीतिक रूप से जागरूक, मेहनतकश और शैक्षणिक रूप से विलक्षण होते हैं। भारतीय संविधान में लोकतंत्र की जो परिभाषा वर्णित है, उसका भी बिहार के लोग (कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका) अक्षरशः पालन करते हैं। गौरवशाली अतीत वाले बिहार की दशा तेजी से बिगड़ रही है। यहां संविधानसम्मत लोकतंत्र की अवधारणा बदलने की कोशिशें जारी हैं, जो घातक हो सकती है। यूं कहें बिहार के शक्ति केन्द्र (अधिकारी और नेता) अपने हिसाब से लोकतंत्र की परिभाषा गढ़ रहे हैं, जिसमें जनता की भागीदारी ना के बराबर है। आमतौर पर पूरे देश से इस तरह की खबरें मिलती हैं कि नेताओं-अधिकारियों के कारण जनता त्रस्त है। समस्याएं बढ़ रही हैं व नेता-अधिकारी की दुरभि संधि से जनता खून की आंसू रो रही है। इसके निदान का कोई ठोस फार्मूला भी नहीं दिखता। जनता के पास भी कोई अनूठी जादूई छड़ी नहीं है, जिसे घुमाकर वह अपने अनुकूल हालात बना ले। जिस बिहार ने देश को सर्वाधिक मजदूर, प्रतिभाशाली वैज्ञानिक, प्रशासनिक सेवा के अधिकारी, विलक्षण बुद्धि वाले छात्र और अन्नोत्पादक किसान दिए हैं, वहां की दशा इतनी बिगड़ेगी, उम्मीद नहीं थी। इसके लिए सिर्फ नेता ही नहीं बल्कि जनसेवा को संकल्पित अधिकारी भी दोषी हैं।
सर्वप्रथम बिहार की सियासत की चर्चा करते हैं। यहां इसी वर्ष अक्टूबर में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। चुनाव की तैयारी सत्तारूढ़ दल जदयू (साथ में राजद, कांग्रेस व अन्य) और प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा द्वारा की जा रही है। बिहार में जदयू नीत सरकार के सीएम नीतीश कुमार की कार्यशैली और जनता के प्रति उनकी संवेदनशीलता को काबिल-ए-तारीफ है। इसी से उन्हें भरोसा है कि पुनः जनता सरकार बनाने का मौका देगी। उम्मीद भी है, क्योंकि इस बार नीतीश के साथ लालू प्रसाद का राजद और कांग्रेस भी है। वहीं मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा अकेले सत्ता पाने की जुगत में है। भाजपा को यहां पीएम नरेन्द्र मोदी का आसरा है। हालांकि भाजपा के साथ रामविलास पासवान की लोजपा समेत एकाध और छोटे-मोटे दल भी हैं, जिनका खास वजूद नहीं है। यूं कहें कि नरेन्द्र मोदी के अलावा बिहार भाजपा व उसके कुछ सहयोगियों के पास कुछ नहीं है। हां, यह जरूर है कि पिछले दिनों जीतन राम मांझी को सीएम से हटाकर खुद सीएम बने नीतीश के खिलाफ मांझी दलित-पीड़ित वर्ग के बीच जदयू गठबंधन के खिलाफ अभियान चला सकते हैं। लेकिन यह असरदार नहीं होगा। क्योंकि मांझी ने अपने कार्यकाल कुछ भी उल्लेखनीय नहीं किया है, जिसे बताकर वह अपनी पीठ थपथपा सकें, जबकि नीतीश के कार्य आज भी दिख रहे हैं। नीतीश ने अपने पहले कार्यकाल में ही अच्छी छाप बना ली थी। गांवों व गलियों को मुख्य मार्ग से जोड़ने व पूरे राज्य में सड़कों की जाल बिछाने का श्रेय नीतीश को ही मिलता है। लोगों को उनसे उम्मीद भी हैं कि वे आगे भी बेहतर करेंगे।
अब सवाल उठता है कि क्या नीतीश अकेले अपने कार्यों के बल पर सत्ता पा लेंगे। जवाब नकारात्मक ही मिलेगा। क्योंकि नीतीश जिस तंत्र के सहारे आत्मविश्वास से लबरेज हैं, वह तंत्र न सिर्फ उनके खिलाफ काम कर रहा है बल्कि जनता को उनसे दूर करने की सोची-समझी चाल चल रहा है। यह समझना कठिन है कि नीतीश की हुकूमत में उनके सहयोगी नेता और अधिकारी जनविरोधी शैली को क्यों प्रतिपादित कर रहे हैं। इस अनूठे सवाल का कोई जवाब नहीं है। हां, उदाहरणस्वरूप कुछ घटनाओं की समीक्षा के उपरांत दिखने वाला लोकतंत्र का विद्रूप चेहरा अवश्य डरा रहा है। यह डर इस तरह का है कि सचेत न होने पर प्रदेश सरकार के खिलाफ जो संदेश जाएगा वह तो अलग है, संवैधानिक एक्ट में रचित लोकतंत्र की परिभाषा भी बदलेगी। प्रतीत हो रहा है किसी सोची-समझी रणनीति के तहत बिहार में लोकतंत्र की गलत परिभाषा गढ़ने की पृष्ठभूमि बन रही है। इसके लिए नीतीश कुमार भी दोषी हैं, क्योंकि उन्हीं के कार्यकाल में पिछड़े और गरीब बिहार के लोग यहां हो रहे लोकतंत्र के अवमूल्यन का साक्षी बन रहे हैं। यदि बेलाग-लपेट कहें तो बिहार में गढ़े जा रहे आधुनिक लोकतंत्र से ‘लोक’ का विलुप्त होना तय है। यहां ‘नेता-अफसर तंत्र’ का बोलबाला रहेगा। जिस तरह तेजी से ‘नेता-अफसर तंत्र’ की अवधारणा मजबूत हो रही है, उससे लगता है कि लोकतंत्र में आस्था नहीं रखने वाले अपने कुत्सित प्रयास में ना सिर्फ सफल होंगे, बल्कि उन्हीं का डंका बजेगा। फिर जनता मुकदर्शक बन खून की आंसू रोएगी और खुद ही पोंछेगी।
एक मामूली उदाहरण बिहार के जनपद सीवान का है। सीवान देश के पहले राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद की जन्म स्थली है। यहां किस तरह के काम हो रहे हैं, आप खुद ही अंदाजा लगा लेंगे। एक वाकया देखिए। जिला मुख्यालय सीवान से पश्चिम मैरवा धाम है। वहां प्रसिद्ध बाबा हरिराम ब्रह्म की मिट्टी की पिंडी है, जिसकी दुनिया भर में चर्चा है और हर वर्ष यहां लाखों श्रद्धालु आते हैं। साईं बाबा की भांति ही बाबा हरिराम ब्रह्म की पहचान भी एक धर्मनिरपेक्ष देव के रूप में हैं। करीब पांच सौ वर्षों के बाबा हरिराम के इतिहास में उनकी महिमा का बखान करने वाला ना तो कोई पुस्तक बना और ना ही ऑडियो-वीडियो। फिर भी बाबा की चर्चा दुनिया भर में है, पर उनकी महिमा कम लोग ही जानते हैं। पिछले कुछ महीनों से दिन-रात एक कर देव दर्शन फिल्म्स प्रोडक्शन (डीडीएफपी) के चेयरमैन व निर्माता उपेन्द्र पाण्डेय ने बाबा की महिमा का बखान करने वाला एक ऑडियो बनाया। उपेन्द्र पाण्डेय के इस कार्य ने उन्हें जबर्दस्त प्रसिद्धि दिलाई। पता चला कि 6 अप्रैल, 2015 को ऑडियो रिलीज होगी। इसके लिए उन्होंने सीवान के डीएम संजय सिंह को मुख्य अतिथि बनाने का प्रयास किया। बताया गया कि डीएम ने उनकी बातें सुनने और मुख्य अतिथि बनने की बात तो दूर उनसे मिलना भी मुनासिब नहीं समझा। स्वाभाविक है निर्माता हताश होंगे। सूत्रों का कहना है कि इस डीएम की शिकायतें अनेक बार शासन में की जा चुकी है, पर कोई सुनवाई नहीं। ऑडियो वाला उदाहरण तो बेहद मामूली है। लोगों का कहना है कि डीएम साहब के पास समस्याओं के निदान के लिए मिलने वालों का तांता लगा रहता है, लेकिन जनता के प्रति उनकी बेरुखी आहत करती है।
दिलचस्प यह है कि उपर्युक्त उदाहरण भले सीवान का हो, किन्तु कमोबेश बिहार के हर जिले में यही स्थिति है। अब आप खुद सोचिए क्या लोकतंत्र केवल उच्च पदस्थ अधिकारियों और नेताओं के लिए ही है या उसमें जनता की भागीदारी की भी कोई गुंजाईश है। इस तरह के उदाहरण से तो नहीं लगता कि भारतीय लोकतंत्र के स्तंभ जनता के लिए काम कर रहे हैं। इन्हीं वजहों से यह डर सता रहा है कि बिहार में जिस तरह का लोकतंत्र स्थापित करने की कोशिश हो रही है, उसका चेहरा खौफनाक है। इस तरह के हालात पर तुरंत काबू पाने की दरकार है, वरना भविष्य लोकतंत्र की अंधेरी सुरंग में घुसता चला जाएगा और हर कोई एक-दूसरे का मुंह ताकेगा।
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