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उत्तर प्रदेश में विकसित नहीं हो पा रहा फिल्म उद्योग

अवनीश मिश्र, फैजाबाद। सूबे में फिल्म निर्माण को उद्योग का दर्जा दिये जाने के करीब दो दशक बाद भी यहां न तो फिल्म निर्माण की गतिविधियां सक्रिय हो सकीं और न ही कहीं फिल्म सिटी ही विकसित हुई, जिससे न चाहकर भी सूबे के कलाकारों को अन्य सूबे में जाकर अपनी किस्मत आजमानी पड़ रही है। साथ ही प्रदेश के राजकोष में जमा होने वाले राजस्व का भी नुकसान हो रहा है। इसके पीछे कहीं न कहीं फिल्म नीति का अनुपालन न होना व संबंधित मंत्रियों की उदासीनता विशेष रूप से जिम्मेदार ठहरायी जा सकती है।गौरतलब हो कि करीब दो दशक पूर्व तत्कालीन भाजपा सरकार ने सूबे में फिल्म निर्माण को उद्योग का दर्जा दे दिया था। जिसके तहत सूबे में फिल्म निर्माण करने वाले निर्माताओं को हर सम्भव सुविधाएं प्रदान करने का प्रावधान है। 75 फीसदी से अधिक शूटिंग सूबे में करने पर फिल्म को कुछ सप्ताह तक मनोरंजन कर से मुक्त करने की घोषणा गयी थी। साथ ही सूबे की सरकार ने लखनऊ व वाराणसी में फिल्म सिटी स्थापित करने की बात कही थी। मगर यह विडम्बना ही है कि अभी तक न तो सूबे में फिल्मों का निर्माण भली-भांति शुरु हो सका और न ही कहीं फिल्म सिटी ही स्थापित हो सकी। सूबे के फिल्मी कलाकारों की माने तो फिल्म नीति का अनुपालन न हो पाने से यहां फिल्म निर्माण के लिए स्वस्थ माहौल ही नहीं बन पा रहा है। जबकि सूबे में दर्जनों ऐसे स्थल हैं जहां फिल्मों की शूटिंग अच्छे माहौल में की जा सकती है। साथ ही तमाम ऐसे स्थान हैं जहां देश के दक्षिणी राज्यों की तरह फिल्म सिटी विकसित की जा सकती है। लेकिन इसे सूबे का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि इस ओर न तो सरकार का ध्यान जा रहा है और न ही यहां के बड़े निर्माताओं व कलाकारों का जो अन्य प्रदेशों में अपना झण्डा बुलन्द किये हैं। कहने को तो 2003-2007 तक प्रदेश की तत्कालीन मुलायम सिंह यादव की सरकार में फिल्म विकास परिषद का गठन किया गया था और फिल्म बन्धु को इस दिशा में प्रोत्साहन देने हेतु कार्य भी सौंपा गया था, लेकिन वह क्रियाशील नहीं बन पाया। उसके बाद सूबे में बसपा की सरकार पूर्ण बहुमत से आयी। भाजपा व सपा सरकार ने कमोवेश इस दिशा में निर्माताओं को जो प्रोत्साहन दिया भी था उसे बसपा शासनकाल में ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। लोगों का तो कहना है कि बसपा शासन का सम्पूर्ण कार्यकाल पार्कों व मूर्तियों के निर्माण में ही बीत गया।सूबे में जब से फिल्म निर्माण को उद्योग का दर्जा मिला है और फिल्म नीति बनी है, तब से बमुश्किल दर्जन भर फिल्मों का निर्माण ही यहां हुआ है। मिसाल के तौर पर बृज भाषा की फिल्म ‘बृज का बिरजू’ हिन्दी की ‘घातक’, ‘पिपरवा पर के बरम’, ‘बंटी-बबली’, ‘गदर’, ‘शहर’, ‘ बुलेट राजा’ ‘डेढ़ इश्किया’ आदि फिल्मों का नाम लिया जा सकता है। ‘गदर’ की तो ज्यादातर शूटिंग जिले के रूदौली व लखनऊ में हुई थी। इसी तरह फिल्म ‘बन्टी-बबली’ के कुछ दृश्यों की शूटिंग लखनउ व कानपुर में भी हुई थी, जिनमें दोनों महानगरों के रेलवे स्टेशन को प्रमुखता के साथ दिखाया गया है। गत वर्ष बनी ‘ इशक’ फिल्म के काफी दृश्यों की शूटिंग वाराणसी व अलीगढ़ में हुई। इसी तरह अभी हाल में निर्मित एक्शन फिल्म ‘बुलेट राजा’ की करीब 75 फीसदी तथा ‘डेढ़ इश्किया’ की करीब नब्बे फीसदी शूटिंग सूबे में हुई। सपा सरकार ने इन दोनों फिल्मों को एक-एक करोड़ रुपया अनुदान के रूप में देने की घोषणा भी किया था, लेकिन सैफई महोत्सव के दौरान फिल्मी कलाकारों पर उड़ाये गये करोड़ांे रुपयों को लेकर विपक्ष व मीडिया में किरकिरी होने के बाद सरकार ने अपना फैसला बदल दिया। इतना ही नहीं लखनध् स्थित बेव मल्टीप्लेक्स में शुक्रवार को ‘डेढ़ इश्किया’ के प्रीमियर में शामिल होने की संस्तुति देने के बाद मुख्यमंत्री ने उसे भी रद्द कर दिया था।फिल्मी कलाकारों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में फिल्म निर्माण की अपार संभावनाएं हैं। यहां इस क्षेत्र में काम करने वाले प्रतिभाओं की भी कमी नहीं है। लेकिन शासन-प्रशासन का समुचित सहयोग न मिलने से मुम्बइया फिल्म निर्माता यहां फिल्म निर्माण के प्रति आकर्षित नहीं हो रहे हैं। प्रदेश सरकार की फिल्म नीति के प्राविधानों और इसके तहत दी जाने वाली सहूलियतों के दावों की उस समय पोल खुल जाती है, जब किसी फिल्म की यहां शूटिंग हो रही होती है। उत्तर प्रदेश कला-संस्कृति के क्षेत्र में आजादी के पूर्व से ही काफी समृद्ध रहा है। सूबे की धरती पर कई नामी-गिरामी कलाकार, गीत-संगीत कार, लेखक, पटकथा लेखक, फिल्म निर्माता-निर्देशक जन्म ले चुके हैं और उत्कृष्ट कार्यों से देश-विदेश में अपना लोहा मनवाकर बुलंदियों पर पहंुचे हंै। बता दें कि सूबे में फिल्म नीति बनने से पहले ‘लागी नहीं छूटे रामा’, ‘पालकी’, ‘सावन को आने दो’, ‘प्रीतम मोरे गंगा तीरे’, ‘उमराव जान’, ‘शतरंज के खिलाडी’, ‘नदिया के पार’, ‘ सरयू तीरे’, ‘बहिनी तोहरे खातिर’, ‘गंगा किनारे मोरा गांव’, जैसी दर्जनों भोजपुरी, हिन्दी व अन्य आंचलिक भाषा की फिल्मों का निर्माण हो चुका है। सूबे में नमक हलाल, आगमन, गदर, एलओसी, कारगिल , अर्जुन पंडित, चितचोर जैसी कई सफल फिल्मों की आंशिक शूटिंग भी हुई है। प्रदेश के फैजाबाद व अयोध्या में अवधी भाषा की पहली फिल्म ‘सरयू के तीरे’ एवं प्रख्यात निर्माता-निर्देशक कनक मिश्र की ‘प्यार का सावन’, प्रदीप कुमार की फिल्म ‘ न भूले हैं न भूलंेगे’ का निर्माण ढाई दशक पूर्व हो चुका है। कुछ धारावाहिकों का निर्माण भी यहां स्थानीय स्तर पर हुआ है।फिल्मी कलाकारों व निर्माता-निर्देशकों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में फिल्मों के निर्माण को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक है कि शासन और प्रशासन अपनी मानसिकता बदले। उसमें जो इच्छा शक्ति की कमी दिख रही है उसे दूर करे। साथ ही फिल्म निर्माताओं को फिल्म नीति के तहत हर संभव मदद करे और इस कार्य में कोई राजनीति न हो। तभी यहां फिल्मोद्योग विकसित हो सकता है।उनका कहना है कि यदि प्रदेश में फिल्म सिटी न विकसित हो सके, तो कम से कम लखनऊ एवं वाराणसी में ऐसे बड़े स्टूडियो व लैब स्थापित किये जायें जहां निर्माता अपनी फिल्मों एवं धारावाहिकों की शूटिंग के बाद के अन्य कार्यों को संपादित कर सकें। मात्र घोषणाओं व आश्वासनों से कुछ नहीं होने वाला है। स्थिति यदि यही रही तो प्रदेश के कलाकार अपना हुनर दिखाने में नाकाम साबित होंगे।
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