नई दिल्ली (सौतिक बिस्वास)। भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी को चुनावी इतिहास की सबसे बुरी पराजय का सामना क्यों करना पड़ा? आख़िरकार कांग्रेस की एक दशक की सत्ता के दौरान भारत में सामाजिक स्थिरता रही और अर्थव्यवस्था विकास दर 8.5 प्रतिशत पहुँची। सरकार ने कई समाज कल्याण योजनाएँ शुरू कीं और बहुत से लोग मानते हैं कि इनसे भारत के सबसे ग़रीब इलाक़ों में सार्वजनिक सेवाओं में सुधार हुआ। ध्यान रहे कि सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान अर्थव्यवस्था विकास दर आधी हो गई और शर्मसार करने वाले घोटालों की मार सरकार पर पड़ी। लेकिन इससे भी कांग्रेस पार्टी के अब तक के सबसे ख़राब चुनावी प्रदर्शन को कैसे समझा जा सकता है? कांग्रेस को इस बार पचास से भी कम सीटें मिली हैं। कोई ग़लती किए बिना यह कहा जा सकता है कि लगातार बढ़ रही महंगाई ने ग़रीबों और मध्यमवर्ग को कांग्रेस के ख़िलाफ़ कर दिया।
पिछले साढ़े तीन साल से भारत में महंगाई की दर पिछले दो दशकों के दौरान सबसे ज़्यादा है। हालांकि यह महंगाई के वैश्विक औसत के मुक़ाबले हमेशा ज़्यादा ही रही है। बहुत से लोग मानते हैं कि लोगों के ग़ुस्से के तत्काल विस्फ़ोट और कांग्रेस से मोहभंग का यही अहम कारण है। बहुत से लोग यह भी मानते हैं कि पार्टी बदलते भारत के साथ ख़ुद को नहीं बदल पाई और न ही इस बदलाव में ख़ुद को ढाल पाई। एक विश्लेषक के शब्दों में भारत एक याची समाज से आकाँक्षी समाज में बदल रहा था। कांग्रेस के नेता अनौपचारिक बातचीत में कहते रहे थे कि ग्रामीणों को रोजगार देने वाली मनरेगा योजना जैसी पार्टी की ग़रीबों के लिए कल्याणकारी योजनाएं ग्रामीण इलाक़ों में पार्टी को वोट दिलाएंगी। लेकिन संभवतः पार्टी यह समझने में नाकाम रही कि बढ़ती अर्थव्यवस्था और कम महंगाई के दौर में ऐसी योजनाओं पर पैसा आसानी से ख़र्च किया जा सकता है, जैसा कि पार्टी के पहले कार्यकाल के दौरान हुआ। लेकिन दूसरे कार्यकाल में अर्थव्यवस्था रेंगती रही, महंगाई बढ़ती रही, राजकोषीय घाटा बढ़ता रहा। साथ ही, तेज़ी से युवा होते, बेचैन और आकांक्षी भारत को समाज कल्याण योजनाएं बेचने का फ़ायदा सरकार को नहीं हुआ। हर बार जब राहुल गाँधी ने अपने भाषणों के ज़रिए जनता को याद दिलाया कि मनरेगा में पंजीकृतों की संख्या बढ़ी है, वे मौन रूप से स्वीकार कर रहे थे कि अर्थव्यस्था पटरी से उतर गई है। भत्तों में ज़्यादा पैसे ख़र्च करने का मतलब यही होता है कि अर्थव्यस्था अच्छा नहीं कर रही है। यह कोई ऐसी बात नहीं है जिस पर किसी देश को गर्व हो। फिर जब दूसरे कार्यकाल के दौरान एक के बाद एक कई भ्रष्टाचार के मामले सामने आए, पार्टी के तमाम बड़े नेताओं, जिनमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कुछ भी नहीं किया, पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी और उपाध्यक्ष राहुल गाँधी भी शामिल थे। किसी ने भी आगे आकर देश को ये भरोसा नहीं दिया कि वे भ्रष्टाचार को रोकेंगे।
इस हार के लिए पूरी तरह पार्टी नेतृत्व को ज़िम्मेदार माना जा रहा है। डॉ.मनमोहन सिंह और सोनिया गाँधी ने कभी मीडिया से बात नहीं कि और राहुल गाँधी को हमेशा ऐसे नेता के रूप में देखा गया जो ज़िम्मेदारी उठाने के लिए तैयार न हो। राजनीति के मायने ही बदलते हालातों में ढलना और बदलाव लाना हैं, लेकिन कांग्रेस बदलाव को लाने की गति में कभी थी ही नहीं। दिल्ली सेंटर फ़ॉर पॉलिसी रिसर्च के भानु प्रताप मेहता बताते हैं, "बदलते माहौल को समझना और उसके अनुसार ख़ुद को न बदल पाना कांग्रेस के लिए बैद्धिक स्तर पर बहुत ग़हरी नाकामी है. कांग्रेस अपनी छोटी आकांक्षाओं की नीतियों पर चलते रहे।" जैसा कि आम आदमी पार्टी के नेता और राजनीतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव बताते हैं, इसी 'नैतिक, राजनीतिक और शासकीय' खालीपन ने नरेंद्र मोदी को मैदान में उतरने का मौक़ा दिया। मोदी ने नौकरियां देने और विकास करने के वादों से अपनी छवि एक आधुनिक शासक के रूप में पेश की। मेहता कहते हैं, "मैं नहीं समझता कि भारत के लोग एक सत्तावादी नेता चाह रहे थे। लोगों को यह लग रहा था कि मनमोहन सिंह ऐसे नेता थे जो अपनी भूमिका के लिए ज़रूरी नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन नहीं कर पाए। लोग ऐेसे नेता की चाह में थे जो प्रधानमंत्री कार्यालय की ज़िम्मेदारियों को निभा सके।" बाक़ी जो भी हम जानते हैं वो अब इतिहास है। (साभार बीबीसी)
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