नई दिल्ली। नमो सूनामी की पहली शिकार बिहार की राजनीति हुई और नीतीश कुमार को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी। नीतीश ही पहले ऐसे सीएम थे, जो एनडीए में रहते हुए भी मोदी के सबसे प्रखर विरोधी के रूप में सामने आए थे। नीतीश ने 48 घंटे के हाई वोल्टेज ड्रामे के बीच जीतन राम मांझी को राज्य का नया सीएम बनवा दिया। आनन-फानन में नीतीश ने क्यों लिया ये फैसला? क्या होंगे इसके दूरगामी परिणाम? बिहार की राजनीति पर क्या होगा इसका असर? इमोशन में नहीं बल्कि राजनीतिक निर्णय लिया है। जेडीयू के अंदर एनडीए से अलग होने के बाद से ही एक गुट नीतीश के पक्ष में नहीं था। लोकसभा चुनाव में हार के बाद तो उनका एक गुट तैयार हो गया। विद्रोही गुट अलग होकर बीजपी के सपोर्ट से खुद या बीजेपी की सरकार बनाने की जुगत में था। वहीं बीजेपी इस मुद्दे पर वक्त मांग रही थी। नीतीश ने मौका भांपते हुए इनका गेम बिगाड़ने के लिए शह-मात का दांव खेला, जिसमें वह तकरीबन सफल भी रहे। विद्रोही गुट का इस अप्रत्याशित कदम का अंदाजा नहीं था और वे प्लान 'बी' पर काम नहीं कर सके।
एक तरह से कह सकते हैं कि नीतीश ने बदले हालात में अपनी राजनीति की नई शुरुआत की है। शुरुआती पांच साल बेहतर प्रदर्शन के बाद उन्हें दोबारा जबर्दस्त बहुमत मिला था। लेकिन पिछले कुछ दिनों से उनके तमाम दांव उलटे पड़े। नरेंद्र मोदी का विरोध उनके लिए तात्कालिक रूप से राजनीतिक नुकसान दे गया। ऐसे में उन्हें यहां से आगे बढ़ने के लिए राजनीति की मौजूदा धारा को बदलना पड़ा। साथ ही पार्टी के कैडर के भी कमजोर होने की खबर आई। ऐसे में चुनाव से लगभग डेढ़ साल पहले नीतीश संगठन पर फोकस करेंगे और गठबंधन से लेकर पार्टी से जुड़े तमाम मुद्दों पर ज्यादा वक्त देंगे। अब उनके लिए 2015 का विधानसभा चुनाव मेक या ब्रेक है। इसीलिए उन्होंने यह राजनीतिक जुआ खेला।
जेडीयू में शरद यादव और नीतीश कुमार के बीच मतभेद की खबरें पिछले कुछ समय से लगातार आती रही है। दरअसल एनडीए संयोजक की अहम भूमिका निभाने वाले शरद इससे अलग होने के पक्ष में नहीं थे। उसके बाद जब आम चुनाव के दौरान जेडीयू के बिहार में हालत कमजोर होने की खबरें आने लगी तब भी शरद ने इसके लिए नीतीश पर परोक्ष रूप से निशाना साधा। और ताजे प्रकरण में शरद यादव ने अपनी नाखुशी कई बार जाहिर की। सूत्रों के अनुसार जब नीतीश पर रिजाइन के बाद दोबारा फिर सीएम बनने का दबाव बढ़ा, तो उन्होंने विद्रोही विधायकों के साथ मिलकर ऐसा नहीं होने दिया। सूत्रों के अनुसार नीतीश इसके बदले उनसे राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद ले सकते हैं और खुद इसकी कमान संभाल सकते हैं।
दोनों दलों के नेता और राजनीतिक जानकार मान रहे हैं कि आने वाले समय में दोनों दलों का गठबंधन होना लगभग तय है। दरअसल दोनों ने लगभग बीस साल तक साथ समाजवाद की राजनीति की है। दोनों जेपी आंदोलन की उपज हैं। अत: दोनों के बीच ऐसी असहज जमीन नहीं है, जो ऐसा बिल्कुल नहीं होने दे। साथ ही बीजेपी के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए इनकी राजनीतिक मजबूरी भी है। कांग्रेस दोनों बीच कड़ी बनने का प्रयास कर रही है। यदि मौजूदा लोकसभा का परिणाम देखें तो गैर आरजेडी-कांग्रेस-जेडीयू को लगभग 47 फीसदी वोट, जबकि बीजेपी को लगभग 38 फीसदी वोट मिले। ऐसे में अगर गठबंधन होता तो परिणाम ठीक उलट होते। वहीं बीजेपी नरेन्द्र मोदी के पीएम बनने के बाद बिहार पर और जोर लगाएगी। ऐसे में अपना राजनीतिक वजूद बचाने के लिए हाथ मिलाना इनकी राजनीतिक मजबूरी है। हालांकि दोनों दलों ने संकेत दिया कि यह स्लो प्रोसेस में होगा। वहां चुनाव अगले साल होने हैं।
बिहार में चुनाव अगले साल अक्टूबर में होने हैं। अत: नीतीश कुमार किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश थी, जो उनके भरोसमंद का हो और जिसके नाम से राजनीतिक लाभ भी मिले। इस पैमाने पर बिहार सरकार में कल्याण मंत्री के रूप में कार्यरत जीतन राम मांझी पूरी तरह खरे उतरते हैं। महादलित बैकग्राउंड से आने वाले गया निवासी लो प्रोफाइल मांझी नीतीश के करीबी मंत्रियों में रहे हैं। मांझी को सीएम बनाने के बाद उनकी नजर महादलित वोट बैंक पर भी है। हालांकि नीतीश की स्वाभाविक पसंद उनके करीबी सांसद आरसीपी सिंह थे, लेकिन विधायकों के विरोध ने उन्हें ऐसा करने से रोक या। (साभार)
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