मुम्बई (कोमल नाहटा)। राजनैतिक पृष्ठभूमि वाली फिल्म ‘यंगिस्तान’ देश के इस चुनावी माहौल में कितना सफल हो पाएगी, इस पर सबकी नजरें टिकी हुई हैं। फ़िल्म की कहानी भारतीय प्रधानमंत्री के बेटे अभिमन्यु का किरदार निभा रहे जैकी भगनानी और अन्विता चौहान यानी नेहा शर्मा के प्यार की कहानी के राजनैतिक असर की है। पिता की मौत के बाद अभिमन्यु को प्रधानमंत्री बनना पड़ता है और अभिमन्यु की निजी ज़िंदगी की वजह से शुरू होता है दिक्कतों का सिलसिला। सैयद रज़ा अफ़ज़ाल, रमीज़ इल्हाम ख़ान और मैत्रेय बाजपेयी ने जो कहानी लिखी है वो अलग है लेकिन पटकथा बहुत ज़्यादा लंबी लगती है। राजनीति और निजी जिंदगी के बीच की कशमकश के लिए जो वजहें तैयार की गई हैं वो दरअसल बेवजह नज़र आती हैं।
इंटरवल के बाद भी फ़िल्म दर्शकों को बांध नहीं पाती। अंत से पहले कहानी में दिलचस्पी पैदा होती भी है तो लोग उस वक्त तक इतने बोर हो चुके होंगे कि उसका कोई असर नहीं पड़ेगा। सैयद अहमद अफ़ज़ाल का निर्देशन बहुत ज़्यादा प्रभावित नहीं करता। कहानी की मांग थी कि निर्देशन बेहद संवेदनशील हो लेकिन लेकिन अफ़ज़ाल का काम बचकाना है। डायलॉग्स अगर ठीक-ठाक बन भी पड़े हैं तब भी कहानी कहने का तरीक़ा फ़िल्म को एकदम बनावटी है। फ़िल्म का संगीत भी मिले जुले प्रभाव वाला है हालांकि सलीम-सुलेमान का पार्श्व संगीत अच्छा है। जैकी भगनानी एक तरह से ही अपना किरदार निभाते हुए नज़र आएंगे। उनमें कोई उतार-चढ़ाव या कोई विविधता नज़र आती जबकि किरदार की ज़रूरत थी बहुआयामी अभिनय।
नेहा शर्मा ख़ूबसूरत तो लगती हैं और काम भी अच्छा है लेकिन उनका किरदार इतनी चिढ़ पैदा करता है कि उन्हें दर्शकों का प्यार शायद ही मिल पाए। फ़ारूख़ शेख़ की यह अंतिम फ़िल्म थी लेकिन वो कमज़ोर किरदार के आगे कुछ नहीं कर सकते थे। वहीं बमन ईरानी के पास भी करने के लिए ज़्यादा कुछ है नहीं। मीता वशिष्ठ के पास निभाने के लिए ख़ास रोल नहीं था लेकिन फिर भी वो अच्छा काम करती दिखती हैं। (साभार)
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