महज तीन साल पहले दबंग से अपने करियर की शुरूआत करने वाली सोनाक्षी सिंहा ने इतने कम समय में ही दस से ज्यादा फिल्मों में अभिनय कर चुकी हैं। इनमें से पांच फिल्में तो सौ करोड़ के क्लब में शामिल हो चुकी हैं। लेकिन अभिनेता राजनीतिज्ञ शत्रुघ्न सिंहा की बेटी सोनाक्षी के लिए अभिनय का यह सफर आसान नहीं रहा है। हाल में एक कार्यक्रम के सिलसिले में कोलकाता पहुंची इस अभिनेत्री ने अपने करियर और भावी योजनाओं के बारे में कुछ सवालों के जवाब दिए। पेश है उनसे बातचीत के कुछ संपादित अंश:
इतने कम समय में ही आपने काफी कामयाबी हासिल की है। इसकी वजह?
इस कामयाबी का श्रेय बेहतर पटकथाओं, उनके निर्देशन, मेरे माता-पिता और दर्शकों को जाता है। लेकिन यह सफर उतना आसान नहीं रहा है। इस दौरान अपने अभिनय को निखारने के अलावा मैंने काफी मेहनत की है। इसके साथ ही किस्मत ने भी मेरा साथ दिया।
आपको सौ करोड़ क्लब वाली पहली अभिनेत्री कहा जाता है। यह सुन कर कैसा लगता है?
मुझे ऐसे आंकड़ों पर भरोसा नहीं है। सौ करोड़ का आंकड़ा धीरे-धीरे बढ़ कर तीन-चार-पांच सौ करोड़ तक पहुंच सकता है। मूल बात यह है कि दर्शकों को फिल्में पसंद आ रही हैं। किसी फिल्म के सौ करोड़ का कारोबार करने पर वह रकम निर्माता की जेब में जाती है, मेरी नहीं। उद्योग के लिए अच्छी बात यह है कि फिल्में बढ़िया कारोबार कर रही हैं। अब सिनेमा घरों की तादाद और टिकटों की कीमत बढ़ी है। एक फिल्म की कामयाबी में कई चीजों का योगदान होता है। मुझे तो इस अहसास से ही सुकून मिलता है कि लोगों को मेरी फिल्में पसंद आ रही हैं।
क्या आप व्यावसायिक फिल्मों के साथ लीक से हट कर बनने वाली फिल्मों में भी हाथ आजमाना चाहती हैं?
व्यावसायिक सिनेमा मेरी पहली पसंद है। मैं खुद ऐसी फिल्में देखना ही पसंद करती हूं। इसलिए लगता है कि दर्शक भी ऐसी ही फिल्में देखना चाहता है। मेरा काम तो दर्शकों को अधिक से अधिक मनोरंजन मुहैया कराना है। इस बीच, लुटेरा जैसी चुनौतीपूर्ण भूमिका भी कर चुकी हूं।
कहानी और किरदार की मांग पर फिल्मों में अंतरंग दृश्य देने के बारे में आपका क्या ख्याल है?
एक बात साफ कर देना चाहती हूं कि मैं हमेशा ऐसी साफ-सुथरी फिल्में करना चाहती हूं जिसे पूरा परिवार एक साथ बैठ कर देख सके। मेरा मतलब यह नहीं है कि ऐसा करना यानी अंतरंग दृश्य देना गलत है। लेकिन मुझे यह सब नहीं जंचता। इसलिए मैं ऐसी कोई भूमिका नहीं कर सकती।
क्या आपके फिल्मों के चयन में माता-पिता की भी कोई भूमिका रहती है?
नहीं, मेरे पिता कभी-कभार महज सलाह देते हैं। उन्होंने मेरे करियर में कभी हस्तक्षेप नहीं किया। संयोग से अब तक मैंने ऐसी कोई भूमिका ही नहीं की है जिस पर उनको अंगुली उठाने का मौका मिल सके। वह भी जानते हैं कि मैं साफ-सुथरी पारिवारिक फिल्मों के लिए ही हामी भरती हूं।
क्या शादी के बाद भी फिल्मों में काम करती रहेगीं?
शादी के बारे में तो अभी सोचा ही नहीं है। फिलहाल लंबा करियर सामने है। अभिनय का पेशा काफी थकाऊ और व्यस्तता भरा है। इसलिए शादी के बाद घर पर आराम करते हुए पति और परिवार पर पूरा ध्यान दूंगी।
आपने नए और पुराने दोनों अभिनेताओं के साथ काम किया है। किसके साथ काम करना बेहतर लगा?
अभिनय की राह में उम्र कहीं आड़े नहीं आती। मैंने अब तक जितने अभिनेताओँ के साथ काम किया है वह सभी लाजवाब थे। उन सबसे साथ मेरे बेहतर पेशेवर संबंध बने।
किसी खास निर्देशक के साथ काम करने की इच्छा?
मैं आशुतोष गोवारिकर और नीरज पांडेय के साथ काम करना चाहती हूं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरों के साथ काम नहीं करना चाहती।
आपके लिए फिल्मों के चयन का पैमाना क्या है?
फिल्म की कहानी और पटकथा। मैं कोई भी फिल्म हाथ में लेने से पहले एक दर्शक के नजरिए से सोचती हूं कि क्या मैं इसके लिए पैसे और दो-तीन घंटे का समय बर्बाद करूंगी। और यह कि क्या मैं पूरे परिवार के साथ बैठ कर इसे देख सकती हूं। इन सवालों का जवाब हां में होने पर ही फिल्म हाथ में लेती हूं। (साभार DW.DE, संपादन: महेश झा)
इतने कम समय में ही आपने काफी कामयाबी हासिल की है। इसकी वजह?
इस कामयाबी का श्रेय बेहतर पटकथाओं, उनके निर्देशन, मेरे माता-पिता और दर्शकों को जाता है। लेकिन यह सफर उतना आसान नहीं रहा है। इस दौरान अपने अभिनय को निखारने के अलावा मैंने काफी मेहनत की है। इसके साथ ही किस्मत ने भी मेरा साथ दिया।
आपको सौ करोड़ क्लब वाली पहली अभिनेत्री कहा जाता है। यह सुन कर कैसा लगता है?
मुझे ऐसे आंकड़ों पर भरोसा नहीं है। सौ करोड़ का आंकड़ा धीरे-धीरे बढ़ कर तीन-चार-पांच सौ करोड़ तक पहुंच सकता है। मूल बात यह है कि दर्शकों को फिल्में पसंद आ रही हैं। किसी फिल्म के सौ करोड़ का कारोबार करने पर वह रकम निर्माता की जेब में जाती है, मेरी नहीं। उद्योग के लिए अच्छी बात यह है कि फिल्में बढ़िया कारोबार कर रही हैं। अब सिनेमा घरों की तादाद और टिकटों की कीमत बढ़ी है। एक फिल्म की कामयाबी में कई चीजों का योगदान होता है। मुझे तो इस अहसास से ही सुकून मिलता है कि लोगों को मेरी फिल्में पसंद आ रही हैं।
क्या आप व्यावसायिक फिल्मों के साथ लीक से हट कर बनने वाली फिल्मों में भी हाथ आजमाना चाहती हैं?
व्यावसायिक सिनेमा मेरी पहली पसंद है। मैं खुद ऐसी फिल्में देखना ही पसंद करती हूं। इसलिए लगता है कि दर्शक भी ऐसी ही फिल्में देखना चाहता है। मेरा काम तो दर्शकों को अधिक से अधिक मनोरंजन मुहैया कराना है। इस बीच, लुटेरा जैसी चुनौतीपूर्ण भूमिका भी कर चुकी हूं।
कहानी और किरदार की मांग पर फिल्मों में अंतरंग दृश्य देने के बारे में आपका क्या ख्याल है?
एक बात साफ कर देना चाहती हूं कि मैं हमेशा ऐसी साफ-सुथरी फिल्में करना चाहती हूं जिसे पूरा परिवार एक साथ बैठ कर देख सके। मेरा मतलब यह नहीं है कि ऐसा करना यानी अंतरंग दृश्य देना गलत है। लेकिन मुझे यह सब नहीं जंचता। इसलिए मैं ऐसी कोई भूमिका नहीं कर सकती।
क्या आपके फिल्मों के चयन में माता-पिता की भी कोई भूमिका रहती है?
नहीं, मेरे पिता कभी-कभार महज सलाह देते हैं। उन्होंने मेरे करियर में कभी हस्तक्षेप नहीं किया। संयोग से अब तक मैंने ऐसी कोई भूमिका ही नहीं की है जिस पर उनको अंगुली उठाने का मौका मिल सके। वह भी जानते हैं कि मैं साफ-सुथरी पारिवारिक फिल्मों के लिए ही हामी भरती हूं।
क्या शादी के बाद भी फिल्मों में काम करती रहेगीं?
शादी के बारे में तो अभी सोचा ही नहीं है। फिलहाल लंबा करियर सामने है। अभिनय का पेशा काफी थकाऊ और व्यस्तता भरा है। इसलिए शादी के बाद घर पर आराम करते हुए पति और परिवार पर पूरा ध्यान दूंगी।
आपने नए और पुराने दोनों अभिनेताओं के साथ काम किया है। किसके साथ काम करना बेहतर लगा?
अभिनय की राह में उम्र कहीं आड़े नहीं आती। मैंने अब तक जितने अभिनेताओँ के साथ काम किया है वह सभी लाजवाब थे। उन सबसे साथ मेरे बेहतर पेशेवर संबंध बने।
किसी खास निर्देशक के साथ काम करने की इच्छा?
मैं आशुतोष गोवारिकर और नीरज पांडेय के साथ काम करना चाहती हूं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरों के साथ काम नहीं करना चाहती।
आपके लिए फिल्मों के चयन का पैमाना क्या है?
फिल्म की कहानी और पटकथा। मैं कोई भी फिल्म हाथ में लेने से पहले एक दर्शक के नजरिए से सोचती हूं कि क्या मैं इसके लिए पैसे और दो-तीन घंटे का समय बर्बाद करूंगी। और यह कि क्या मैं पूरे परिवार के साथ बैठ कर इसे देख सकती हूं। इन सवालों का जवाब हां में होने पर ही फिल्म हाथ में लेती हूं। (साभार DW.DE, संपादन: महेश झा)
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