यह इतिहास की उन घटनाओं में से एक है जिन्हें कोई याद करना नहीं चाहता। 24 दिसंबर, 1999 को काठमांडू के त्रिभुवन इंटरनेशनल एयरपोर्ट से इंडियन एयरलाइन के विमान ने उड़ान भरी। बीच में ही उसका अपहरण कर लिया गया। अमृतसर में विमान को उतारा गया। यहां से उड़ान भरने की अनुमति दे दी गई। लाहौर में इसमें ईंधन भरा गया। इसके बाद इसे दुबई ले जाया गया और अंतत: अफगानिस्तान के कंधार स्थित हवाई अड्डे पर इसे पार्क कर दिया गया। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना का अंत सात दिनों के बाद हुआ, जब भाजपानीत राजग सरकार ने तीन खूंखार आतंकियों-मुश्ताक अहमद जरगर, अहमद उमर सईद शेख और मौलाना मसूद अजहर को भारतीय जेलों से रिहा कर दिया और पांचों अपहर्ताओं को लाहौर में सुरक्षित निकल जाने दिया। इस बीच अपहर्ताओं ने विमान में सवार एक भारतीय की हत्या कर दी। रिहा किए गए आतंकियों ने भारत के खिलाफ जिहादियों को संगठित किया और बाद में आतंकी घटनाओं में कई भारतीयों की मौत के जिम्मेदार बने। यह घटना ऐसे गृहमंत्री के शासनकाल में घटी जो खुद को भारत के लौहपुरुष के रूप में पेश करना पसंद करता है। इसी राजग के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की आजकल इसलिए तारीफ हो रही है कि उनका आतंकवाद के खिलाफ शानदार रिकॉर्ड है। अब जरा इसकी तुलना संप्रग सरकार के पिछले कुछ सालों से करें। यासीन भटकल, अब्दुल करीम टुंडा, सैयद जैबुद्दीन अंसारी उर्फ अबु जुंदाल और फसीह मोहम्मद-क्या इन नामों से कुछ याद आया? ये तमाम खूंखार भारतीय आतंकवादी हैं। इनके पास पाकिस्तान का पासपोर्ट था और इन्हें विदेशों में सुरक्षित पनाह मिली हुई थी। माना जाता था कि भारत इन्हें कभी पकड़ नहीं पाएगा। संप्रग सरकार ने इन आकलनों को गलत साबित कर दिया। इन सबको पकड़कर भारत लाया जा चुका है। इनमें से कुछ तो उन देशों से पकड़े गए हैं जो भारत की परवाह नहीं करते। गृहमंत्री इतने से ही संतुष्ट नहीं हो गए। उनका कहना है-हम एक-एक करके तमाम आतंकियों को भारत लाएंगे। किसी को बख्शा नहीं जाएगा। इंतजार कीजिए। भाजपानीत राजग सरकार ने भारत के खूंखार आतंकियों को रिहा किया, जबकि कांग्रेसनीत संप्रग सरकार आतंकियों को भारत ला रही है। आंतरिक सुरक्षा और आतंकवाद पर कांग्रेस और भाजपा के बीच इससे अंतर स्पष्ट हो जाता है।
इन खूंखार आतंकियों के पकड़े जाने से भारत को निशाना बनाने वाले जिहादी समूहों की कमर टूट गई है। संप्रग सरकार ने भारत की भूमि पर आतंकी हमले रोकने के लिए तमाम औजारों का इस्तेमाल किया है। आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि संप्रग-2 के कार्यकाल में जिहादी आतंकी घटनाओं की संख्या नगण्य रही है, जबकि राजग के कार्यकाल में आए दिन आतंकी हमले होते थे। 2008 के मुंबई आतंकी हमले के कई माह बाद तक भाजपा आतंकवाद के खिलाफ फिर से पोटा कानून को लागू करने की मांग करती रही। यह देखते हुए कि राजग कार्यकाल में कुछ समुदायों के खिलाफ पोटा का कितना दुरुपयोग हुआ, संप्रग सरकार ने पोटा लागू नहीं किया। नतीजा सामने है। पोटा हटाने के बावजूद आतंकी घटनाओं में जबरदस्त कमी आई है। ये नतीजे मुख्यत: इसलिए संभव हुए, क्योंकि मुंबई आतंकी हमले के बाद संप्रग सरकार ने खुफिया और सुरक्षा ढांचे का पुनर्गठन किया। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार ने संप्रग सरकार के मल्टी एजेंसी सेंटर [एमएसी] के गठन का विरोध किया, किंतु बाद में इसके कारण मिली सफलताओं के कारण अब वह इसका श्रेय लेने का प्रयास कर रहे हैं। केवल एमएसी ही नहीं, भाजपा ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी [एनआइए] के गठन का भी पुरजोर विरोध किया, किंतु इस एजेंसी के असाधारण प्रदर्शन ने अब भाजपा की बोलती बंद कर दी। इसी प्रकार भाजपा और इसके सहयोगी दलों ने संप्रग सरकार द्वारा प्रस्तावित एक और आतंक विरोधी तंत्र राष्ट्रीय आतंकरोधी केंद्र [एनसीटीसी] के गठन का भी विरोध किया। संघीय ढांचे की दुहाई देकर भाजपा ने इस एकीकृत एजेंसी के गठन में रोड़े अटका दिए।
भाजपा आतंकवाद को राज्यों की सीमाओं में बांधकर देखती है, जबकि आतंकवाद न राज्यों की सीमा जानता है और न ही संघीय ढांचा। वे इन सीमाओं का फायदा उठाते हैं। माओवादी भी विभिन्न राज्यों की सीमाओं का रणनीतिक लाभ उठाते रहे हैं। 2004 में संप्रग सरकार के सत्ता में आने के समय माओवाद चरम पर था। अधिक सुरक्षा बल तैनात करके, पुलिस के आधुनिकीकरण के लिए अधिक फंड प्रदान कर और विकास व प्रभावी सामरिक अभियान की नीति पर चलकर संप्रग सरकार ने माओवादियों पर अंकुश लगा दिया है। यद्यपि माओवादियों का अभी पूरी तरह खात्मा नहीं हो सका है, किंतु अगर इसी गति से आगे बढ़ते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब उनका देश से सफाया हो जाएगा। 2004 में संप्रग के सत्ता संभालते वक्त जम्मू-कश्मीर आतंकवाद से सुलग रहा था। हिजबुल मुजाहिदीन के खिलाफ राजग सरकार का एकतरफा शीतयुद्ध विफल हो गया था और इससे आतंकियों के हौसले बुलंद हुए थे। सुरक्षा बलों की सहायता, कूटनीतिक कदमों और राज्य सरकार की राजनीतिक पहल से कश्मीर में आतंकवाद 1989 के पहले के स्तर पर आ चुका है। पिछले एक दशक में लगभग इसी प्रकार का अनुभव पूवरेत्तर प्रांतों में हुआ है। कुछ बेहद खूंखार विद्रोही समूहों को या तो मिटा दिया गया है या फिर उनके नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया है। बहुत से विद्रोहियों ने युद्धविराम की घोषणा कर दी है और कुछ वार्ता की मेज पर आ गए हैं। इस क्षेत्र में शांति का बांग्लादेश और म्यांमार से भारत के रिश्तों में सुधार का सीधा संबंध है। भारत की मित्र शेख हसीना के हाथ मजबूत करने के लिए संप्रग सरकार बांग्लादेश के साथ लंबे समय से लंबित सीमा समझौता करना चाहती है। इसके लिए संविधान संशोधन की आवश्यकता पड़ेगी जिसके लिए भाजपा ने समर्थन देने से इन्कार कर दिया है। अगर इस क्षेत्र में उग्रवाद बढ़ता है तो इसकी जिम्मेदार भाजपा होगी।
हालांकि पुलिस बल राज्य सरकार के तहत आते हैं, फिर भी कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने पूरे भारत में शांति और स्थिरता का माहौल बनाने के लिए महती प्रयास किए हैं। जिहादी आतंकियों के मंसूबों को नाकाम करके, माओवादियों पर अंकुश लगाकर और पूवरेत्तर व जम्मू-कश्मीर में हिंसा पर काबू करके कांग्रेसनीत संप्रग सरकार भाजपानीत राजग सरकार से अलग नजर आती है। सरकारों की परख रिकॉर्ड के आधार पर होती है, न कि किसी व्यक्ति के शब्दाडंबर से। संप्रग सरकार ने साबित किया है कि आतंक के खिलाफ सफल युद्ध के लिए किसी समुदाय के खिलाफ युद्ध छेड़ने की जरूरत नहीं है। 56 इंच का खोखला सीना पीटने से आतंकवाद पर अंकुश नहीं लगता, बल्कि इसके घातक दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं।
(साभार जागरण। लेखक केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री हैं।)
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