कवि होने का मुझको
फख्र न शिकवा, शिकायत है
मुझे तो शब्द का दरिया
जहां चाहे बहाता है।
समाए ग्रंथ शब्दों में
ढले महाकाव्य शब्दों में
ऋचा में, मनकतब में
शब्द ही तो गुनगुनाता है।
पिरोकर शब्द की माला
चढ़ा देता हूं शब्दों पर
कविता शून्य है
यह शब्द ही मुझको सिखाता है।
(पुण्य तिथि (5 जनवरी) पर स्व.शिरीष भट्ट को सादर समर्पित)
(संपर्क- 33/303, पाल बीचला, अंधेरी पुलिया, अजमेर, राजस्थान)
0 comments:
Post a Comment
आपकी प्रतिक्रियाएँ क्रांति की पहल हैं, इसलिए अपनी प्रतिक्रियाएँ ज़रूर व्यक्त करें।