छपरा (विशाल)। पेड़ बेजुबान हैं। दर्द बता नहीं सकते। हम आंख-कान वाले न तो उनकी कराह सुनते हैं और न ही घुटन देखते हैं। पेड़ों का गला घोंटने वाले खुद के बनाए वातावरण में जीते हैं और आम आदमी घुट-घुटकर जीने को मजबूर होता है।
व्यावसायिक ब्रांड की नुमाइश करने के लिए पेड़ों के सीने पर कील ठोंकी जाती हैं। बिजली के पोल को सहारा देने के लिए उनका गला घोंटा जाता है। यह कोई नहीं देखता कि हमारी इन्हीं हरकतों से बेचारे पेड़ कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी के दर्द से तड़पते हैं और हवा के तेज झोंके से असमय ढह जाते हैं। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग के प्रो.आरिफ इनाम बताते हैं कि पेड़ों में कील ठोंकने से उनका 'वेस्कुलर सिस्टम' क्षतिग्रस्त हो जाता है जिससे जड़ से पत्तियों तक पानी-खाद पहुंचने में बाधा होने लगती है। ऐसे में पेड़ों का मरना तय है।
नौरंगाबाद के रहने वाले विधि छात्र प्रतीक चौधरी ने पेड़ों के इस दर्द को समझा। एक वैज्ञानिक रिपोर्ट का हवाला देते हुए उन्होंने बताया कि कील ठोंकने से पेड़ को कैंसर होने का खतरा रहता है। प्रतीक ने जिलाधिकारी को पत्र भेजा है जिसमें कहा है कि शहर में कई सड़कों के किनारे लगे पेड़ों पर विभिन्न कंपनियों के बोर्ड कीलों से ठोंके गए हैं। ये तरीका गलत है। मुख्यमंत्री और कुछ संस्थाओं को भी ऐसा ही पत्र भेजा है। सेमिनार और कार्यक्रम में पर्यावरण संरक्षण की बड़ी बड़ी बातें की जाती हैं पर व्यवहार में उस पर अमल दूर तक कहीं नजर नही आता। न तो कोई सामाजिक संगठन इसके खिलाफ आवाज उठाता है और न वन विभाग।
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