शांडिल्य सिद्धार्थ
देवरिया। सनातन संस्कृति, परंपरा को अपने आंचल में समेटे देवरिया का श्रीलक्ष्मी वेंकटेश्वर तिरुपति बालाजी मंदिर द्रविण कलाकृति का न सिर्फ बेजोड़ नमूना है बल्कि परिसर में बारहों महीने चलने वाले धार्मिक अनुष्ठान से हर वक्त यहां उत्सव का माहौल बना रहता है। करीब 65 फीट ऊंचा गोपुरम और मंदिर परिसर में स्थापित 108 देवी-देवताओं और संतों की मूर्ति बरबस लोगों को अपनी ओर खींचती है। इस पीठ का सबसे बड़ा त्योहार ब्रह्मोत्सव है। जिसमें देश के अलग-अलग हिस्सों से श्रद्धालु हिस्सा लेते हैं। बिहार राज्य के बक्सर स्थित रामानुज संप्रदाय के सिद्ध पीठ के परम संत जगद्गुरु त्रिदण्डी स्वामी जी ने अपने शिष्य स्वामी राजनारायणाचार्य जी महाराज को ईश्वर की प्रेरणा से आदेश दिया कि वे सरयू के उत्तर भाग में स्थित देवरिया जिले में बाला जी भगवान की मूर्ति की प्रतिष्ठा करें। गुरु का आदेश पाते ही स्वामी जी वर्ष 1993 में देवारण्य पहुंचे। स्थानीय लोगों से विमर्श के बाद उन्होंने कसया रोड पर गायत्री शक्तिपीठ के पूर्व करीब तीन एकड़ जमीन क्रय किया। बड़ी मुश्किलों के बाद उक्त जमीन तक जाने का रास्ता निकला। तब जाकर वर्ष 1994 में भक्ति वाटिका का निर्माण शुरू किया गया। करीब पांच वर्ष तक दक्षिण भारत से आए सैकड़ों श्रमिक दिन-रात एक कर काम किए और वर्ष 1999 में मंदिर का काम पूरा हुआ। दक्षिण भारत से तिरुपति बालाजी भगवान और महारानी पद्मावती देवी जी की साढे़ पांच फीट ऊंची प्रतिमा मंगाई गई। पैंसठ फीट ऊंचा गोपुरम बना। भगवान के दशावतार की प्रतिमाएं, अष्टलक्ष्मी, जय-विजय, सभी संतों-ऋषियों की मूर्ति के अलावा भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं के चित्रों से सजा भव्य शीश महल, करीब तीन सौ किलोग्राम पीतल की गरुण प्रतिमा लोगों का मन मोह लेती है। शास्त्रीय परंपरा और तमिलनाडु के कांची प्रतिवाद भयंकर मठ से अवलंबित इस पीठ की स्थापना वेद के अनुसार की गई है। गरुण स्तंभ व भगवान रामानुजाचार्य की भव्य मूर्ति मंदिर की शोभा बढ़ाती है। इसके साथ ही 108 शालिग्राम भगवान, हनुमान जी की मूर्ति व यज्ञशाला स्थापित है। मंदिर की सेवा में करीब दो दर्जन वैदिक आचार्य नित्य लगे रहते हैं। प्रतिदिन भगवान की सवारी गाजा-बाजा के साथ निकाली जाती है। जिसमें भारी संख्या में स्थानीय श्रद्धालु शामिल होते हैं। मंदिर के पीठाधीश्वर जगद्गुरु स्वामी राजनारायणाचार्य जी महाराज ने कहा कि दक्षिण भारत के कलउ नामक स्थान पर वेंकटाचल पर्वत स्थित है। भगवान का आगमन उस पर्वत पर हुआ ऐसी मान्यता है। दरअसल तिरु का अर्थ लक्ष्मी और पति का आशय स्वामी से है। भगवान विष्णु ही श्रीलक्ष्मी के स्वामी हैं। उनके वेंकटाचल पर्वत पर विराजने के कारण उन्हें वेंकटेश कहा गया। तिरुपति बालाजी उनका ही एक नाम है। मंदिर की प्रतिष्ठा वर्ष 1999 में की गई थी। इसलिए प्रतिष्ठा का उत्सव प्रतिवर्ष ब्रह्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस उपलक्ष्य में बालाजी की रथयात्रा शहर के प्रमुख मार्गो से होकर निकाली जाती है। इसके बाद भगवान के विग्रह को सरयू नदी में अवभृत स्नान कराया जाता है।
ब्रह्मोत्सव में शामिल होने दक्षिण भारत से पहुंचा संतों का जत्था
श्री लक्ष्मी वेंकटेश्वर देवस्थान ट्रस्ट के अध्यक्ष जगद्गुरु रामानुजाचार्य स्वामी राजनारायणाचार्य कहा कि बालाजी मंदिर के 14 वें 6 दिवसीय श्री ब्रह्मोत्सव की तैयारियां पूरी हो चुकी हैं। ब्रह्मोत्सव के पहले दिन 16 मई को भगवद अनुज्ञा, अंकुरारोपण, श्री गरूड़ प्रतिष्ठा, श्री विष्वक्सेन भगवान की सवारी निकाली जायेगी। 17 मई को रक्षाबंधन, ध्जारोहण, श्रीभगवान की सवारी, अभिषेक, भोरीताड़न, नित्ययज्ञ, श्रीभगवान की सवारी, सेवाकाल गोष्ठी एव्र प्रसाद का वितरण किया जायेगा। उन्होंने बताया कि 18 मई को नित्ययज्ञ, श्रीभगवान की सवारी, सेवाकाल गोष्ठी, अभिषेक, झूला दर्शन, नित्ययज्ञ, श्री गरूण वाहन पर श्रीभगवान की सवारी निकाली जायेगी। 19 मई को श्री चुर्णोत्सव, नित्ययज्ञ, श्रीभगवान की सवारी, सेवाकाल गोष्ठी अभिषेक, नित्ययज्ञ बारात, वरमाला दर्शन एवं प्रसाद का वितरण किया जायेगा। 20 मई को श्री तिरूपति बाला जी भगवान की रथयात्रा निकाली जायेगी। 21 मई को श्री भगवान की सवारी, ध्वजारोहण व महाकुम्भम् प्रोक्षण का आयोजन किया गया है। उन्होंने कहा कि ब्रह्मोत्सव में शामिल होने के लिए दक्षिण भारत से संतों का जत्था पहुंच चुका है।
देवरिया। सनातन संस्कृति, परंपरा को अपने आंचल में समेटे देवरिया का श्रीलक्ष्मी वेंकटेश्वर तिरुपति बालाजी मंदिर द्रविण कलाकृति का न सिर्फ बेजोड़ नमूना है बल्कि परिसर में बारहों महीने चलने वाले धार्मिक अनुष्ठान से हर वक्त यहां उत्सव का माहौल बना रहता है। करीब 65 फीट ऊंचा गोपुरम और मंदिर परिसर में स्थापित 108 देवी-देवताओं और संतों की मूर्ति बरबस लोगों को अपनी ओर खींचती है। इस पीठ का सबसे बड़ा त्योहार ब्रह्मोत्सव है। जिसमें देश के अलग-अलग हिस्सों से श्रद्धालु हिस्सा लेते हैं। बिहार राज्य के बक्सर स्थित रामानुज संप्रदाय के सिद्ध पीठ के परम संत जगद्गुरु त्रिदण्डी स्वामी जी ने अपने शिष्य स्वामी राजनारायणाचार्य जी महाराज को ईश्वर की प्रेरणा से आदेश दिया कि वे सरयू के उत्तर भाग में स्थित देवरिया जिले में बाला जी भगवान की मूर्ति की प्रतिष्ठा करें। गुरु का आदेश पाते ही स्वामी जी वर्ष 1993 में देवारण्य पहुंचे। स्थानीय लोगों से विमर्श के बाद उन्होंने कसया रोड पर गायत्री शक्तिपीठ के पूर्व करीब तीन एकड़ जमीन क्रय किया। बड़ी मुश्किलों के बाद उक्त जमीन तक जाने का रास्ता निकला। तब जाकर वर्ष 1994 में भक्ति वाटिका का निर्माण शुरू किया गया। करीब पांच वर्ष तक दक्षिण भारत से आए सैकड़ों श्रमिक दिन-रात एक कर काम किए और वर्ष 1999 में मंदिर का काम पूरा हुआ। दक्षिण भारत से तिरुपति बालाजी भगवान और महारानी पद्मावती देवी जी की साढे़ पांच फीट ऊंची प्रतिमा मंगाई गई। पैंसठ फीट ऊंचा गोपुरम बना। भगवान के दशावतार की प्रतिमाएं, अष्टलक्ष्मी, जय-विजय, सभी संतों-ऋषियों की मूर्ति के अलावा भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं के चित्रों से सजा भव्य शीश महल, करीब तीन सौ किलोग्राम पीतल की गरुण प्रतिमा लोगों का मन मोह लेती है। शास्त्रीय परंपरा और तमिलनाडु के कांची प्रतिवाद भयंकर मठ से अवलंबित इस पीठ की स्थापना वेद के अनुसार की गई है। गरुण स्तंभ व भगवान रामानुजाचार्य की भव्य मूर्ति मंदिर की शोभा बढ़ाती है। इसके साथ ही 108 शालिग्राम भगवान, हनुमान जी की मूर्ति व यज्ञशाला स्थापित है। मंदिर की सेवा में करीब दो दर्जन वैदिक आचार्य नित्य लगे रहते हैं। प्रतिदिन भगवान की सवारी गाजा-बाजा के साथ निकाली जाती है। जिसमें भारी संख्या में स्थानीय श्रद्धालु शामिल होते हैं। मंदिर के पीठाधीश्वर जगद्गुरु स्वामी राजनारायणाचार्य जी महाराज ने कहा कि दक्षिण भारत के कलउ नामक स्थान पर वेंकटाचल पर्वत स्थित है। भगवान का आगमन उस पर्वत पर हुआ ऐसी मान्यता है। दरअसल तिरु का अर्थ लक्ष्मी और पति का आशय स्वामी से है। भगवान विष्णु ही श्रीलक्ष्मी के स्वामी हैं। उनके वेंकटाचल पर्वत पर विराजने के कारण उन्हें वेंकटेश कहा गया। तिरुपति बालाजी उनका ही एक नाम है। मंदिर की प्रतिष्ठा वर्ष 1999 में की गई थी। इसलिए प्रतिष्ठा का उत्सव प्रतिवर्ष ब्रह्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस उपलक्ष्य में बालाजी की रथयात्रा शहर के प्रमुख मार्गो से होकर निकाली जाती है। इसके बाद भगवान के विग्रह को सरयू नदी में अवभृत स्नान कराया जाता है।
ब्रह्मोत्सव में शामिल होने दक्षिण भारत से पहुंचा संतों का जत्था
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