आज यानी 5 अप्रैल को बाबू जगजीवन राम की जयंती है। फलतः खासतौर पर आज उनका याद आना स्वाभाविक है। दलित परिवार में जन्म लेकर राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर छा जाने वाले बाबू जगजीवन राम का जन्म बिहार की उस धरती पर हुआ था जिसकी भारतीय इतिहास और राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। बाबू जगजीवन राम का जन्म 5 अप्रैल, 1908 को बिहार में भोजपुर के चंदवा गांव में हुआ था। उन्हें जन्म से ही आदर से बाबूजी के नाम से संबोधित किया जाता था। उनके पिता शोभा राम एक किसान थे जिन्होंने ब्रिटिश सेना में नौकरी भी की थी। जगजीवन राम अध्ययन के लिए कोलकाता गए वहीं से उन्होंने 1931 में स्नातक की डिग्री हासिल की। कोलकाता में रहकर उनका संपर्क नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुआ।
‘बाबूजी’ के बारे में बताया जाता है कि वे जातीय विद्वेष और छुआछूत की अंध परंपराओं के मिथक तोड़ने वाले साहस, आत्मविास और स्वाभिमान वाहक थे। सामाजिक समता और दलितों के अधिकारों की उनकी लड़ाई चलती रही और गांधी जी तथा मालवीय जी के सान्निध्य में उनके आक्रोश का सार्थक दिशाओं में मार्गान्तरीकरण हुआ। मालवीय जी के सान्निध्य में जगजीवन राम को वैदिक साहित्य, उपनिषद आदि के अध्ययन का अवसर मिला और वे उनमें वर्णाश्रम का उत्स खोजते रहे। बीएससी करने के लिए वे कलकत्ता चले गया। यहां चमड़े की मिलों में काम करने वाले मजदूरों की दयनीय दशा ने उन्हें भीतर तक हिला दिया। अधिसंख्य मजदूर दलित वर्ग के ही होते थे। उन्होंने इनको संगठित कर एक विशाल सभा आयोजित की। इससे आकर्षित नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने उन्हें विपुल संभावनाओं का युवा नेता बताया. वस्तुत: स्कूल से काशी और फिर कलकत्ता विश्वविद्यालय में शिक्षा का दौर उनके जीवन की विशाल प्रयोगशाला बना। उसके बाद वे आजीवन सामाजिक आर्थिक समता, दलितों के मौलिक अधिकार और समाज में मानवोचित सम्मान और प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ते दिखे. लेकिन सवर्णो के प्रति उनके मन में कोई कटु भाव नहीं था। वे कहते थे कि भूख समदर्शी है। वह गरीबों-अमीरों और अमीरों-सवर्णो को समान रूप से सताती है। इसलिए गरीब सवर्णो की भूख की भी दवा होनी चाहिए।
जगजीवन राम को भारतीय समाज और राजनीति में दलित वर्ग के मसीहा के रूप में याद किया जाता है। वह स्वतंत्र भारत के उन गिने चुने नेताओं में से एक थे जिन्होंने राजनीति के साथ ही दलित समाज के लिए नई दिशा प्रदान की। उन्होंने उन लाखों-करोड़ो दमितों की आवाज उठाई जिन्हें सवर्ण जातियों के साथ चलने की मनाही थी, जिनके खाने के बर्तन अलग थे, जिन्हें छूना पाप समझा जाता था और जो हमेशा दूसरों की दया के सहारे रहते थे। पांच दशक तक सक्रिय राजनीति का हिस्सा रहे जगजीवन राम ने अपना सारा जीवन देश की सेवा और दलितों के उत्थान के लिए अर्पित कर दिया। इस महान राजनीतिज्ञ का जुलाई, 1986 में 78 साल की उम्र में निधन हो गया। उसका जीवन्त उदाहरण थे बाबू जगजीवन राम। अपने समाज की दयनीय स्थिति और व्यथा-कथा सुनते स्कूली दौर की दो घटनाएं उनके जीवन की दशा-दिशा का संकेतक बनीं।
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